ललितगेट : कैसी लकीर खीचेंगे नमो?

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कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार:

सुना है लमो के बखेड़े से नमो बहुत परेशान हैं! सुनते हैं, अपने कुछ मंत्रियों से उन्होंने कहा कि लोग जो देखते हैं, उसी पर तो यकीन करते हैं! और यहाँ तो लोगों ने सिर्फ देखा ही नहीं, बल्कि लमो यानी ललित मोदी को सुना भी। यकीन न करते तो क्या करते? सच तो सामने है, बिना किसी खंडन-मंडन के! 

नमो इसीलिए परेशान हैं। खंडन-मंडन की गुंजाइश होती, जाँच का एलान कर बात टरकाने की गुंजाइश होती, तब क्या परेशानी थी भला! कर देते! लेकिन अबकी बार मामले की धार अलग है। जो हुआ, उसे झुठलाया ही नहीं जा सकता। कोई बहाना ही नहीं है, कन्नी काट सकने की कोई सम्भावना ही नहीं है! इसलिए रास्ता क्या है? यही कि ताल ठोक कर कहो कि हाँ किया तो किया, इसमें गलत क्या है?

लोग कहें ‘ललितगेट’, सुषमा पूछें गलत क्या?

और गलत हो भी कैसे हो सकता है? राष्ट्रवादी लोग जो ठहरे! जो वह करें, जो वह कहें, वही सही! किसी दूसरे ने यही किया होता तो अब तक जमीन-आसमान के कुलाबे एक हो गये होते! लेकिन ‘दूसरों’ और ‘अपनों’ में यही तो फर्क होता है! इसीलिए सवाल उठाने वालों से ही मुँहतोड़ पूछा जा रहा है कि इसमें क्या गलत है? बताइए क्या गलत है? वाकई लाख टके का सवाल है! एक आदमी को प्रवर्तन निदेशालय खोज रहा है। ब्लू कार्नर नोटिस जारी है उस पर। यानी वह कानून से बचता फिर रहा है। ऐसे आदमी की कोई मदद करना सही है या गलत? सही जवाब क्या है? जवाब सुषमा जी ने बता दिया। राष्ट्रवादी करे तो हमेशा सही, बाकी कोई करे तो बिलकुल देश-विरोधी काम होता! सवाल नम्बर दो। उस आदमी पर धन-धुलाई का आरोप है। नेता विपक्ष रहें तो सुषमा जी उसके खिलाफ लोकसभा में जोरदार भाषण करें, कहें कि यूपीए सरकार सख्त से सख्त कार्रवाई करे, और विदेश मन्त्री बन जायें, तो चुपके से उसी आदमी की मदद कर दें! बताइए क्या गलत है इसमें! जवाब है- विपक्ष से सत्ता में आने पर सदन में कुर्सी ही नहीं बदलती, राष्ट्रवाद की परिभाषा भी बदल जाती है! कथनी चाहे न बदले, करनी जरूर बदल जाती है! सवाल नम्बर तीन। मदद मानवीय आधार पर की गयी, तो क्या गलत है इसमें? मानवीय आधार पर मदद करना तो गलत नहीं, लेकिन ऐसे क्यों की गयी कि किसी को कानोंकान पता न चले? कोई खुफिया आपरेशन था? देश की सुरक्षा से जुड़ा कोई मसला था? फिर देश को बता कर क्यों नहीं की गयी यह मानवीय मदद! सही काम था, तो पारदर्शी तरीके से होना चाहिए था? जो सवाल उठते, तभी उठते। देश में चर्चा होती, सरकार फैसला कर लेती कि क्या करना है! बात खत्म! लेकिन विदेश मन्त्री ने क्यों चुपके से मामला निपटा दिया? ‘ललितगेट’ को लेकर सवाल ही सवाल हैं। और ‘राष्ट्रवादियों’ का एक ही जवाब है, इसमें गलत क्या है?

वसुन्धरा जी, चुपके-चुपके, देश से छिप के क्यों?

अगर इसमें कुछ गलत नहीं, तो वसुन्धरा राजे ने भी कुछ गलत नहीं किया? है न! वह भी देश से छिपा कर ललित मोदी की मदद कर रही थीं। हलफनामा देकर कह रही थीं कि भारत में इसका पता किसी को न चले! और चुपके-चुपके लमो की कम्पनी से उनके बेटे दुष्यन्त की कम्पनी में करोड़ों रुपये भी आ गये, किसी को पता नहीं चला! और वह भी ऐसी कम्पनी से जिसका दफ्तर खाली प्लाट पर कहाँ पर है, किसी को पता नहीं! क्या मासूमियत है? पता नहीं लगे, पता नहीं चले, हम सही काम कर रहे हैं! समझ में नहीं आया। हमें तो यही समझ थी कि लोग हमेशा गलत काम छिप कर करते हैं! यहाँ मामला उलटा है। सही काम चोरी-छिपे हो रहा था! गलत काम होता तो शायद सबके सामने होता! इसीलिए पूछा जा रहा है कि इसमें गलत क्या है? 

पूरे विवाद में बस इसी एक सवाल का जवाब चाहिए। यह सब देश से छिपा कर क्यों किया जा रहा था? यह सही था या गलत? अगर संघ और बीजेपी की परिभाषा में यह सही है, तो उन्हें किसी राजनीतिक शुचिता की न बात करनी चाहिए और न दावा। और न ऐसे तर्क देकर बचने की कोशिश करनी चाहिए कि शरद पवार, सलमान खुर्शीद, राजीव शुक्ल समेत दूसरी पार्टियों के नेता भी तो ललित मोदी से मिलते रहे। बेशक मिलते रहे। और शायद यह मानना भी गलत न हो कि उन्होंने भी गाहे-बगाहे लमो से मदद ली भी होगी और दी भी होगी। सबूत मिल जायें तो उनके खिलाफ भी जरूर कार्रवाई होनी चाहिए। बिलकुल करिए। सरकार आपकी है, जाँच कीजिए, धरिए-पकड़िए, लेकिन उनका नाम लेकर इन ‘अपनों’ को तो इन मामलों से तो नहीं बचाया जा सकता!

नरेन्द्र मोदी कुछ करेंगे या चुप रह जायेंगे?

नरेन्द्र मोदी खैर परेशान तो होंगे ही कि उनकी सरकार की छवि धूमिल हुई। लोग ताने मार रहे हैं। नरेन्द्र मोदी अब बोलते क्यों नहीं? वह ‘मौन मोदी’ क्यों हो गये? भ्रष्टाचार के खिलाफ वह खूब दहाड़ा करते थे। विदेश से कालेधन को वापस लाने की बड़ी-बड़ी बातें की थीं उन्होंने। उनका एक वरिष्ठ और जिम्मेदार मन्त्री सबकी नजरें बचा कर एक ऐसे आदमी की मदद क्यों कर रहा था, जिसे धन-धुलाई के लिए उनकी ही सरकार खोज रही हो? यह कैसे भ्रष्टाचार नहीं है? कैसे यह सरकार और देश के हितों के खिलाफ काम करना नहीं है? और ऐसे व्यक्ति को देश की सरकार में किस नैतिक आधार पर बने रहना चाहिए? किसी प्रदेश का मुख्य मन्त्री विदेश में हलफनामा देकर कहे कि मैं यहाँ जो कह और कर रही हूँ, उसका पता मेरे देश में किसी को नहीं लगना चाहिए, यह गलत नहीं है क्या? और अगर यह गलत नहीं है तो फिर कुछ भी गलत नहीं है! बात खत्म! 

बात खत्म शायद न हो। यह मुद्दा गले में हड्डी की तरह अटक सकता है। बिहार में कुछ महीनों बाद चुनाव है। और कुछ नहीं तो यह मामला भ्रष्टाचार पर बीजेपी का मुँह बाँध सकता है। दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में फुसफुसाहटें, अटकलें और अन्दाजों का गुणा-भाग चल रहा है। सुषमा स्वराज और वसुन्धरा राजे का क्या होगा? नरेन्द्र मोदी कैसी लकीर खींचेंगे! वसुन्धरा के उत्तराधिकारियों को लेकर तो चर्चा भी शुरू हो गयी। लेकिन सुषमा स्वराज का क्या होगा? जब उनका मामला पिछले रविवार को पहली बार उछला था, तभी कहने वालों ने कहना शुरू कर दिया था कि नमो ने आखिर सुषमा को भी निपटा दिया। लेकिन बीच में ऐसी कानाफूसियाँ एकदम थम गयी थीं। अब फिर शुरू हो गयी हैं कि सुषमा के अब कितने दिन? 

बहरहाल, इन सवालों से अगले कुछ दिन बीजेपी और नरेन्द्र मोदी को जूझना है, लेकिन इन सवालों से भी बड़ा एक सवाल है। राजनीति की परतें एक के बाद एक उघड़ती जा रही हैं। एक-एक कर पोल खुलती जा रही है। पार्टी यह हो या वह हो, नेता यह हो वह हो, नाम छोटा हो या बड़ा हो, जब आइना सामने आता है, तो सब एक ही चाल, चरित्र और चेहरे वाले दिखने लगते हैं। फर्क बस नारों और नौटंकी का है! क्या इस नौटंकी का कोई अन्त है?

(देश मंथन 22 जून 2015)

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