‪‎यादें‬ – 13

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

अब यहीं से शुरू हो सकती है वो कहानी, जिसकी भूमिका बाँधते-बाँधते मैं यहाँ तक पहुँचा हूँ। 

हर याद की कोई न कोई वजह होनी चाहिए। बेवजह आने वाली यादें उस राजा-रानी की कहानी की तरह होती हैं, जिनके बारे में कहा जा सकता है कि एक था राजा, एक थी रानी, दोनों मर गये खत्म कहानी। इस संसार में किसी भी आदमी की यादों को कुरेदने बैठ जाइए, तो एक कहानी निकल पड़ेगी। लेकिन कहानी अगर वक्त के पहियों पर दौड़ती हुई किसी मन्जिल तक न पहुँचे, तो सिर्फ घटनाओं का ताना-बाना बन कर रह जाती है, व्यक्तिगत इतिहास बन कर रह जाती है। 

हर आदमी अपनी जिन्दगी की कहानी को याद करता है, पर उस अतीत से वर्तमान का पहलू अगर जुड़ता नजर आये, तभी आदमी अपने होंठों को गोल करता है और कहता है, “ओ माई गॉड!”

उस वक्त उसे अपने जीवन में घटने वाली घटनाओं का मर्म समझ में आता है। 

ईसा मसीह के जन्म के समय आसमान में चमकने वाले सितारे भी कुछ कहना चाहते थे। कृष्ण के जन्म के बहुत पहले कंस की मौत के लिए की गयी भविष्यवाणी भी वेबजह नहीं थी। कौरवों के अहँकार की भी वजह थी और पाँडवों के राज्य विहीन होने की भी वजह थी। सीता हरण के पीछे भी इतिहास की कोई मंशा थी।

घटनाओं के तालमेल को जोड़ कर पढ़ने की कला ही ‘डीएनए की एनाटोमी’ होती है। इसलिए इतिहास चाहे जितना क्रूर और छल भरा हो, अगर उसकी गर्भ में भविष्य पल रहा हो, तो उसे पढ़ने की जगह समझने की कोशिश करनी चाहिए। 

कुछ लोग कहते हैं कि पुरानी यादों पर मिट्टी डाल देनी चाहिए। जरूर डाल देनी चाहिए, अगर वो एक घटना भर हो तो। 

दो शरीरों के मिलन की जिस घटना से किसी तीसरे का जन्म होने वाला हो, उस घटना पर मिट्टी कैसे डालेंगे? हाँ, वो मिलन अगर सिर्फ आनन्द तक सीमित रहा हो, तो वो यादों में तब्दील होकर सिमट सकती है। 

मैं याद करने निकला था जेपी के आंदोलन को। इमरजंसी को। इन्दिरा गाँधी को। दीदी को। विमला दीदी को। मैं चाहूँ तो यहीं से दुबारा पाँचवीं कक्षा में चला जा सकता हूँ और सिलसिलेवार हर तारीख को नई तारीख में तब्दील करता हुआ सबकुछ दर्ज करता हुआ ये बता सकता हूँ कि जो हुआ, वो क्यों हुआ। लेकिन मेरी यादें समय के रथ पर सवार होकर दीदी की कहानी को रोक कर अगर जनसत्ता, प्रभाष जोशी तक जा रही हैं तो जाहिर है कि वहाँ भी यादों के जो मनके हैं, उनकी कोई न कोई भूमिका होगी, जो दीदी के बेहद करीब होकर गुजरेगी।

बात सिर्फ मेरी होती, तो उसकी इतनी कोई अहमियत नहीं होती। 

जिस युद्ध में अयोध्या की रानी कैकेयी ने अपनी उँगली से रथ के पहियों को थाम लिया था, उस युद्ध में कैकेयी को सिर्फ वीरांगना की उपाधि भर नहीं मिलनी थी। उन्हें दरअसल वो आशीर्वाद भी मिलना था, जिसकी कोख में राम का वनवास छुपा था, जिसमें राजा दशरथ की मौत छिपी थी, जिसमें सीता का हरण छुपा था, जिसमें रावण का अन्त छिपा था। ये है यादों की एनाटोमी। अलग-अलग घटनाओं को देखिए तो सारी यादें मिट्टी डाल देने के लायक ही थीं, पर जब उन्हें क्रम में जोड़ कर पढ़ने की कोशिश की जाए, तो हर क्रिया के विपरित प्रतिक्रिया का सिद्धान्त सामने आता नजर आयेगा। 

***

मैं प्रभाष जोशी के सामने बैठा था। अब न तो वो जनसत्ता के प्रधान संपादक थे, न मैं जनसत्ता में उनके मातहत काम करने वाला उप संपादक। 

मैंने इमरजंसी की चर्चा उनसे की, शायद हमारे स्टुडियो में इमरजंसी की यादों पर ही कोई शो बनने वाला था। 

प्रभाष जोशी ज्यादातर सार्वजनिक मौकों पर बड़े लोगों की तरह गंभीर बने रहते थे। बड़े लोगों के मन में हमेशा ये आशंका रहती है कि कहीं वो ऐसा कुछ न कर दें, या कह दें जिससे ये साबित हो जाये कि वो भी आम आदमी की तरह ही साँस लेते हैं, पानी पीते हैं, खाना खाते हैं और संसार के वो सारे काम करते हैं, जो कोई भी करता है। वो अपने मन में खुद को बाकियों से थोड़ा अलग करके जीते हैं, और धीरे-धीरे अलग से होते चले जाते हैं। 

प्रभाष जोशी कभी ऊँची आवाज में नहीं बोलते थे। जब तक आप पर बहुत दुलार न उमड़ पड़े, वो खुल कर ऐसी कोई बात नहीं कहते थे, जिसका कोई सार्वजनिक अर्थ लगाया जा सके। थे वो हमारी और आपकी तरह मुलायम, लेकिन उन्होंने खुद को खुद से इतना दूर कर लिया था कि अगर वो अपनी यादों को हिन्दी व्याकरण के दायरे से निकाल कर बाँधने की कोशिश करते, तो सिर्फ एक शोर बन कर रह जाते। 

पर उन्होंने कुछ प्रयोग किए, प्रयोग अच्छे रहे हों या बुरे इस पर अभी चर्चा नहीं हो सकती। अभी तो मेरा सवाल उनके सामने था कि इन्दिरा गाँधी ने इमरजंसी क्यों लगाई थी?

“इन्दिरा गाँधी ने इमरजंसी सिर्फ इसलिए नहीं लगाई थी कि जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने उनके चुनाव को अवैध करार दे दिया था, सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें वोट न देने का अधिकार देकर स्टे दिया था, जय प्रकाश नारायण ने उनके इस्तीफे की माँग के लिए आंदोलन छेड़ने और सेना और पुलिस विद्रोह की धमकी दी थी। इमरजंसी इसलिए लगायी गयी थी, क्योंकि प्रचंड बहुमत के बाद भी सरकार लोकतांत्रिक तरीके से लोगों के असंतोष और उनकी शिकायतें दूर करने की जगह जन आंदोलनों को कुचलने में लग गयी थी। जब किसी भी शासक के मन में सत्ता में होने की अनिवार्यता और सत्ता के निरंकुश इस्तेमाल की बात आ जाती है, तो ऐसे फैसले उसके आखिरी हथियार होते हैं। इन्दिरा गाँधी ने उसी हथियार का इस्तेमाल किया था। लेकिन वो ये भूल गयीं कि जैसे अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर ऐटम बम का इस्तेमाल भले अपनी ताकत दिखाने को किया हो, पर उसकी आने वाली नस्लें टेढ़ी-मेड़ी पैदा होने लगेंगी, इसका उसे भी अन्दाजा नहीं रहा होगा। 

इन्दिरा गाँधी ने जो किया उसकी यादें आम आदमी के मन में चाहे जैसी रही हों, पर एक सच यह भी है कि इन्दिरा गाँधी की ऐसी ही चाहतों का नतीजा असम और पंजाब में आतंकवाद के कैंसर के रूप में सामने आया। सच कहूँ तो सत्ता में रहने की उनकी अनिवार्यता ने ही देश को आतंक की गर्त में झोंका।”

फिर मीडिया का रूप क्यों बदलता चला गया? 

“मीडिया कहाँ बदली?”

“अगर मीडिया नहीं बदली, तो 1989 की हड़ताल में आप अपने ही पत्रकारों के विरोध में क्यों खड़े थे? जस्टिस बछावत ने पत्रकारों की तन्ख्वाह से संबंधित जो रिपोर्ट सरकार को सौपी थी, उसे लागू करवाने के लिए तो आपको खुद सामने आना चाहिए था। पर आप तो आंदोलन को कुचलने की कोशिश कर रहे थे। ये बदली हुई मीडिया थी।”

मुझे लगता है कि प्रभाष जोशी इस बात पर तिलमिलाए होंगे। पर चुप रहे। वो देश, जनता, राजनीति, क्रिकेट, सिनेमा सभी विषयों पर बात करने को तैयार रहते थे, लेकिन जब कोई उनसे सीधे सवाल पूछता, तो वो थोड़ा अनमने से हो जाते। 

मुझे लगा कि मैंने वेबजह उन्हें आहत कर दिया है। पर मैं मौका गंवाने के पक्ष में नहीं था। मैं जानता था कि वो एक बार कैमरे के सामने चले जाएंगे तो अपनी भाषा और अपने अनुभवों से ऐसा माहौल बना देंगे कि लोग कह उठेंगे, वाह! वाह!

और वाहवाही किसे अच्छी नहीं लगती।

पर मुझे तो उन सवालों के जवाब चाहिए थे, जिन्हें भविष्य में मेरे बॉस Qamar Waheed Naqvi ने दिया। 

मुझे उसी जवाब की तलाश थी, क्योंकि पत्रकारिता ने पैंतरा बदला वहीं से। मैं अपने दफ्तर से घर के लिए निकलते हुए बहुत बार अपनी कार दफ्तर में छोड़ देता और नकवी जी के साथ लौटता, उनकी यादों में अपनी कहानी के पात्रों को तलाशता हुआ। मैं अक्सर नकवी जी से कहता भी था कि कभी आपके ऊपर ही पूरा उपन्यास लिखूँगा। नकवी जी मुस्कुरा देते थे। 

पर अभी तो मुझे मेरा जवाब मिलना था कि आखिर कैसे इंदिरा गांधी के पतन के बाद जनता पार्टी की सरकार ने संचार के संसाधनों में नए बीज बो दिए। उसकी फसल तब नहीं काटनी थी, अब काटनी थी। 

दीदी की कहानी शुरू हुई थी जेपी के आंदोलन से, खत्म हुई इंदिरा गांधी की हत्या के बाद। बीच में जनता पार्टी की सरकार बनी। जेपी का निधन हुआ। मेरी मां भी उसी दौरान मुझे छोड़ कर चली गई। फिर इंदिरा गांधी की हत्या हो गई। 

लेकिन मैं रह गया उसके बाद भी। जार-जार आंसू बहाने के लिए।

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कल अपनी पोस्ट पर की गई दो टिप्पणियों को मैं उद्धृत कर रहा हूँ।

शम्भूनाथ शुक्ल कुछ बातों पर मिट्टी डालनी चाहिए। पत्रकारिता बहुत साफ-सुथरा पेशा भले न हो पर अपेक्षाकृत ईमानदार है।

Sanjaya Kumar Singh मेरी राय अलग है। पत्रकारिता ऐसा पेशा है कि दूसरों के बारे में तो हम खूब लिखते – बताते हैं इस हद तक कि कई बार चटखारे लेते प्रतीत होते हैं और जब अपने बारे में लिखना हो तो ये भी लिखने में शर्माते हैं कि न्यूनतम वेतन तक देने में लालाओं की जान निकलती है। लाला आपस में एक दूसरे के खिलाफ ना लिखें ना बताएँ। हमलोग क्यों चूकें। सबसे पहले आप ही ने तो लिखा था कि टीवी वाले गेस्ट के रूप में बुला कर पैसे नहीं देते है। अब ऐसे में मिट्टी क्यों डालना। वैसे भी खुला खेल फर्रूखाबादी का कोई जवाब नहीं। ना तनाव ना चिन्ता। अपेक्षाकृत ईमानदार से मुझे लगता है कि इसमें बेईमानीं करके जितनी बेइज्जती होती है उस हिसाब से पैसे नहीं मिलते। इसलिए ईमानदारी कहीं मजबूरी की तो नहीं है।

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कई परिजनों को लग रहा है कि मैं रिश्तों और जिन्दगी की कहानी कहते-कहते ये कहाँ चला आया हूँ। उनसे मेरा आग्रह है कि धैर्य रखिए। दीदी की कहानी का अन्त आपको नहीं पता है, इसलिए आप अधीर हो रहे हैं। आप इसे सिर्फ उपन्यास का हिस्सा मान कर पढ़ेंगे, तो ज्यादा आसानी होगी, कहानी को क्रमश: रूप में स्वीकार करने में।

मुंबई में एक बार जुहू के पास महेश लन्च होम रात का खाना खाते हुए नकवी जी ने मुझे समझाया था कि दुनिया एक नहीं होती। जितने लोग होते हैं, उतने संसार होते हैं। सबके संसार अलग-अलग होते है। सबकी दुनिया अलग-अलग होती है। हर किसी की अपनी कहानी होती है।

(देश मंथन, 06 जुलाई 2015)

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