ये जंगलराज नहीं है, ये पॉवर सेंटर का ‘बिखराव’ है
सुशांत झा, पत्रकार :
नीतीश कुमार की कानून-व्यवस्था को लेकर प्रतिबद्धता पर व्यक्तिगत रूप से मुझे कोई संदेह नहीं है। उन्होंने पिछले एक दशक में बिहार को ठीक-ठाक पटरी पर लाया है। लेकिन सीवान के पत्रकार की हत्या पर मेरी कुछ अलग राय है।
‘हुआ-हुआ’ करने वालों के अच्छे दिन आ गये
अभिरंजन कुमार, पत्रकार :
रातों-रात पीएम बनने की महत्वाकांक्षा के चलते 49 दिन की तुगलकी सरकार से भाग कर जो शख्स भस्मासुर की तरह अपने ही सिर पर हाथ रख कर (राजनीतिक रूप से) मर चुका था, उसे बीजेपी के बौराए रणनीतिकारों ने अमृत छिड़क कर दोबारा जिला दिया, लेकिन अब भी उन्हें चेतना नहीं आयी है।
जुल्फों में संविधान
आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार :
उत्तराखंड के प्रकरण पर गंभीर संवैधानिक बहस चल रही थी एक टीवी चैनल पर।
अदालत में तार्किक अंजाम तक पहुँचे डिग्री विवाद
राजीव रंजन झा :
चाहे प्रधानमंत्री बनना हो या दिल्ली के आधे-अधूरे राज्य की विधानसभा का सदस्य बनना, उसके लिए कोई डिग्री आवश्यक नहीं है। लेकिन यदि कोई चुनावी प्रक्रिया में झूठा शपथपत्र दाखिल करे तो यह एक गंभीर मसला हो जाता है।
कांग्रेस में घबराहट
पद्मपति शर्मा, वरिष्ठ खेल पत्रकार :
चापलूसी की इंतहा है। संसद में गला फाड़ने से कुछ नहीं होगा। देश अब जान चुका है कि हर घोटाले और भ्रष्टाचार के पीछे कौन सा राजनीतिक दल और उसका आला कमान है। इसलिए तर्क मत गढ़िए। एजेंसियों को अपना काम करने दीजिए।
शराबबंदीः सवाल, नीयत और नैतिकता का
संजय द्विवेदी, अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय :
तर्क नहीं है। किंतु वह बिक रही है और सरकारें हर दरवाजे पर शराब की पहुँच के लिए जतन कर रही हैं। शराब का बिकना और मिलना इतना आसान हो गया है कि वह पानी से ज्यादा सस्ती हो गयी है। पानी लाने के लिए यह समाज आज भी कई स्थानों पर मीलों का सफर कर रहा है किंतु शराब तो ‘घर पहुँच सेवा’ के रूप में ही स्थापित हो चुकी है।
खून में सने बासित कुबूल नहीं
पद्मपति शर्मा, वरिष्ठ खेल पत्रकार :
हालाँकि मैं गुलाम अली साहब की इस तकरीर से कतई सहमत नहीं हूँ कि सुरों से सरहद की दूरी कम होगी, चंद सियासतदां हिंदुस्तान-पाकिस्तान की दोस्ती में रोड़े अटका रहे हैं और दोनों मुल्क के बीच कलाकारों के जरिए रिश्ते मजबूत होंगे। वह सरासर बकवास कर रहे थे।
राजनीति और महात्वाकांक्षा
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
माँ ने लिखा है
“आज ट्रेन में यात्रा के दौरान मंगनू सिंह जी के बेटे से भेंट हुई। उनके बेटे डॉक्टर वीपी सिंह इस समय एनसीईआरटी, दिल्ली में हैं और आजमगढ़ से जुड़े हैं।
ग्रामोदय से भारत उदयः कितना संकल्प, कितनी राजनीति
संजय द्विवेदी, अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय : :
क्या नरेंद्र मोदी ने भारत के विकास महामार्ग को पहचान लिया है या वे उन्हीं राजनीतिक नारों में उलझ रहे हैं, जिनमें भारत की राजनीति अरसे से उलझी हुयी है। गाँव, गरीब, किसान इस देश के राजनीतिक विमर्श का मुख्य एजेंडा रहे हैं। इन समूहों को राहत देने के प्रयासों से सात दशकों का राजनीतिक इतिहास भरा पड़ा है। कर्ज माफी से ले कर अनेक उपाय किए गये, किंतु हालात यह हैं कि किसानों की आत्महत्याएँ एक कड़वे सच की तरह सामने हैं।
संघ मुक्त भारत का आह्वान : सपने मत देखिए नीतीश बाबू
पद्मपति शर्मा, वरिष्ठ खेल पत्रकार :
जिस संघ के साथ दशकों नाता रहा, निजी महत्वाकांक्षा में अर्थात प्रधानमंत्री बनने की ललक में, उसी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पानी पी-पी कर जिस तरह से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कोसते हुए यहाँ तक कह दिया कि देश को संघ मुक्त करने के लिए सभी विपक्षी दल एक हों, उसे वाकई गिरी हरकत कहा जाएगा।
परोसिए नहीं, अब कलछुल दीजिए!
क़मर वहीद नक़वी, पत्रकार :
इधर आम्बेडकर नाम की लूट मची है, उधर 'मिलेनियम सिटी' गुड़गाँव के लोग अब गुरुग्राम में दंडवत होना सीख रहे हैं! देश में 'आम्बेडकर भक्ति' का क्या रंगारंग नजारा दिख रहा है! रंग-रंग की पार्टियाँ और ढंग-ढंग की पार्टियाँ, सब बताने में लगी हैं कि बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर में तो उनके 'प्राण' बसते हैं। और 'आम्बेडकर छाप' की सबसे पुरानी, सबसे असली दुकान वही हैं! सब एक-दूसरे को कोसने में लगे हैं कि आम्बेडकर के लिए और दलितों के लिए पिछले 68 सालों में किसी ने कुछ नहीं किया। जो कुछ किया, बस उन्होंने ही किया!
क्यों याद आ रहे हैं आम्बेडकर?
क़मर वहीद नक़वी, पत्रकार :
इतिहास के संग्रहालय से झाड़-पोंछ कर जब अचानक किसी महानायक की नुमाइश लगायी जाने लगे, तो समझिए कि राजनीति किसी दिलचस्प मोड़ पर है! इधर आम्बेडकर अचानक उस संघ की आँखों के तारे बन गये हैं, जिसका वह पूरे जीवन भर मुखर विरोध करते रहे, उधर जवाब में 'जय भीम' के साथ 'लाल सलाम' का हमबोला होने लगा है, और तीसरी तरफ हैदराबाद से असदुद्दीन ओवैसी उस 'जय भीम', 'जय मीम' की संगत फिर से बिठाने की जुगत में लग गये हैं, जिसकी नाकाम कोशिश किसी जमाने में निजाम हैदराबाद और प्रखर दलित नेता बी। श्याम सुन्दर भी 'दलित-मुस्लिम यूनिटी मूवमेंट' के जरिए कर चुके थे।