सोनिया जी, यह न 1975 है, न 1986, इसलिए कोर्ट का सम्मान करें

0
98

अभिरंजन कुमार, पत्रकार :

सोनिया गाँधी सही कह रही हैं कि वह इंदिरा गाँधी की बहू हैं। वह इंदिरा गाँधी की बहू हैं, इसीलिए कोर्ट का भी आदर नहीं कर रही हैं। इंदिरा गाँधी ने भी 1975 में अपने निर्वाचन को अवैध करार देने के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को नहीं माना था और देश में इमरजेंसी लगा दी थी। उस वक्त उन्होंने विपक्ष के साथ जो किया था, राजनीतिक दुर्भावना और दुश्मनी उसे कहते हैं, न कि भ्रष्टाचार के मामले में कोर्ट समन कर दे तो उसे कहते हैं।

सोनिया गाँधी ने सिर्फ सास का नाम लिया, पति का नाम नहीं लिया। उनके पति राजीव गाँधी ने भी 1986 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं माना था। शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला करोड़ों मुस्लिम महिलाओं के हित में था, लेकिन कंप्यूटर लाकर देश को आधुनिक बनाने का दम भरने वाले राजीव गाँधी ने वास्तव में इस देश में दकियानूसी ताकतों को बढ़ावा देने और करोड़ों महिलाओं को इंसाफ से वंचित करने का काम किया था और भारतीय न्यायपालिका के सेक्युलर चरित्र को चोट पहुँचायी थी।

इस पृष्ठभूमि में यह कहा जाना चाहिए कि सोनिया गाँधी अगर सही होतीं तो अपनी सास या विरासत का बखान करने की बजाय अदालत का सम्मान करते हुए अपने खानदान पर लगे इस अमिट कलंक को मिटाने का प्रयास करतीं कि उनका खानदान कोर्ट को नहीं मानता। आज उनके व्यवहार से कई लोगों को लग रहा है कि अगर केंद्र में उनकी सरकार होती और कोर्ट का फैसला उनके खिलाफ आ जाता, तो शायद इंदिरा गाँधी की बहू होने के ख्याल से वे भी कोर्ट का फैसला मानने से इनकार कर देतीं।

दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि सोनिया गाँधी कोर्ट और संसद की अलग-अलग भूमिकाओं को भी समझने को तैयार नहीं हैं। कोर्ट में कोई मामला चल रहा है, इसके चलते संसद को नहीं चलने देने की क्या तुक है? क्या सोनिया गाँधी यह कहना चाहती हैं कि देश की अदालतें सरकार के दबाव में काम करती हैं? अगर ऐसा है तो सुप्रीम कोर्ट ने अभी नेशनल ज्यूडीशियल अपॉइंटमेंट कमीशन को रद्द करके सरकार को इतना बड़ा झटका क्यों दिया? अगर अदालतें सरकार के दखल से ही काम करती हैं, तो जजों की नियुक्ति में भी उसका दखल मान लेने में सुप्रीम कोर्ट को दिक्कत क्यों महसूस हुई?

इसलिए कहना चाहिए कि अपने बचाव के लिए परोक्ष रूप से अदालतों की निष्पक्षता पर उँगली उठाना एक घातक नजरिया है। ऐसे तो विपक्ष के लोग हमेशा यह कह कर बच निकलेंगे कि सरकार बदले की भावना से काम कर रही है। यूँ भी, बदले की भावना कांग्रेस से ज्यादा किस पार्टी में रही है, जो विरोधी दलों की राज्य सरकारों को थोक के भाव धारा 356 लगाकर बर्खास्त कर देती थी।

इतना ही नहीं, सोनिया गाँधी इस तथ्य की भी अनदेखी कर रही हैं कि नेशनल हेराल्ड मामला उनपर न तो बीजेपी की सरकार में शुरू हुआ है, न सुब्रह्मण्यम स्वामी उस वक्त बीजेपी में शामिल हुए थे, जब उन्होंने यह मामला कोर्ट में लाया। इसलिए अगर सोनिया और राहुल गलत नहीं हैं तो कोर्ट का सामना करने में डर कैसा? वे जितना डरेंगे, लोगों के मन में “चोर की दाढ़ी में तिनका” वाली कहावत उतनी ही घर करती जाएगी।

इसलिए बेहतर है कि सोनिया जी विरासत की याद न दिलाएँ, वर्तमान में जिएँ, कोर्ट का आदर करें और अपने को बेदाग साबित करें। हम 2015 के समापन और 2016 के आरम्भ पर खड़े हैं। यह न 1975 है, न 1986 है। जनता अब नेताओं के हथकंडों को समझने लगी है।

(देश मंथन, 09 दिसबंर 2015)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें