दीदारगंज की यक्षी

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रवीश कुमार, वरिष्ठ टेलीविजन एंकर :

मेरे लिए वो किसी जादू की तरह थी। हमने जब भी इस मूर्ति को देखा जादू सा लगा।

एक विशालकाय मूर्ति अपने इतिहास बोध की वजह से नहीं किन्हीं और अज्ञात वजहों से जादू सा असर कर गई। कई सालों बाद इतिहास की किताब में जब इस मूर्ति को देखा तो वो जादू हैरत में बदलने लगा। जिसे हमने बचपन के छुप्पन छुपाई के दौरान देखा और जिसके पीछे लुकाते रहे वो मौर्यकाल की मूर्तिकला का एक श्रेष्ठ नमूना है। दीदारगंज की यक्षी इसका नाम है।

धीरे धीरे इतिहास के पन्नों की जानकारियाँ स्मृति से गायब होती गईं मगर यक्षी का जादू गायब नहीं हुआ। यह एक बार फिर से उभर गया जब रिचर्ड एच डेविस की किताब लाइव्स आफ इंडियन इमेजेज एक दिन मेज पर पड़ी मिली। किताब के पलटते ही पहले के कुछ पन्नों पर यक्षी की वही तस्वीर जिसे बचपन में खूब देखा जाना था। पटना का जादू घर मेरे अंदर जिंदा हो गया। म्यूजयम तो हमने अब कहना सीखा है। बचपन से हमारे खेल के अनंत गुप्त मैदानों का एक हिस्सा था जादूघर। तांबे की बड़ी बड़ी मूर्तियाँ। अंग्रेज वायसरायों जनरलों की। सड़क की तरफ पीठ किये हुए और उस इमारत को घूरती हुईं जिसे कभी खुद अंग्रेजों ने बनाया था। खेल के सिलसिले में जब कभी किसी मूर्ति का हाथ गायब मिलता तो हम साजनशों के अजब-गजब किस्सों से लिपट जाते थे। नया चेयरमैन आया है। वही तस्करी करता है। नेपाल से स्मगलर आता है और इन मूर्तियों को ले जाता है। अंग्रेज सब अपनी मूर्ति क्यों बनवाता था रे। इतना लंबा और मोटा होता था क्या। भूत जैसा है। वगैरह वगैरह। जादू घर के भीतर की शांति इन मुर्दा मूर्तियों से और गहरा जाती थी। ऐसा लगता था कि अचानक बोल उठेंगी कि मुझे शीशे के इस बक्शे से आजाद कर दो। मुझे कुछ कहना है। एक विशालकाय भैसा था। लगता था कि अब बाहर निकलेगा और हम सबको मार कर खा जाएगा। पिन अप की हुईं मरी मुर्झाई हुईं तितलियां किसी लघु प्रेतात्मका की तरह फड़फड़ा कर शांत हो गईं लगती थीं।

हम नहीं समझते थे कि यह इतिहास है। इन मूर्तियों की एक-एक बनावट हमारी कलाकृति का दस्तावेज है। हम इन मूर्तियों को वर्तमान की तरह देखते थे। बीस करोड़ वर्ष पुराने पेड़ का जीवाश्म आज भी पटना के जादू घर में है। बीस करोड़ साल की गणना तो आज भी हमारी कल्पना से बाहर है। तब से उस सोये हुए पेड़ को देख रहे हैं। जुरासिक पार्क के किसी डायनासोर की तरह। क्या पता एक दिन वो खड़ा हो जाए और पटना के सारे पेड़ों को रौंद दे। जीवाश्म में बदल दे। इस बीच रिचर्ड डेविस की किताब जिस अनीशा के हाथ से आई थी उन्हीं के पास चली गई। इस बीच मैं पटना पहुंचा। पटना लिटरेचर फेस्टिवल में। भीड़ को छोड़ भाग कर यक्षी के पास पहुंचा था। बस देखने के लिए कि वो अब भी है या नहीं। उसका होना मुझे आश्वस्त कर गया कि मेरा भी एक बचपन था और उसमें थी दीदारगंज की एक यक्षी। संयोग यह भी कि अनीशा के पड़ोसी रंजन साथ में थे। अपना फोन थमाया और कहा कि फटाफट तस्वीर ले लीजिए। सेल्फी टाइप। खैर। दीदारगंज की कथा इस तरह से शुरू होती है।

अक्तूबर 1917 का साल था। पटना के पूर्वी छोर पर दीदारगंज कदम बसुल गांव। यहीं गंगा नदी के किनारे मौलवी काज़ी सैय्यद मोहम्मद अज़ीमुल ने देखा कि गंगा के किनारे पत्थर का एक विशाल चौकोर टुकड़ा रेत से झांक रहा है। किनारे की कटाई के कारण पत्थर का यह टुकड़ा और साफ साफ दिखने लगा। मौलवी को लगा कि इस पत्थर से वे घर के लिए सिलबट्टे टाइप की चीज़ें बना लेंगे। जब इसे बाहर निकाला और खड़ा किया गया तो एक स्त्री की मूर्ति निकली। ख़ूबसूरत और शानदार। एक हाथ गायब। एक हाथ में झालर या पंखा। रहस्यमयी मुस्कुराहट और कटी हुई नाक। किसी को नहीं पता था कि यह मूर्ति हिन्दुस्तान की मूर्तिकला के इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में शुमार होने वाली है। जिसे दुनिया दीदारगंज की यक्षी के नाम से जानेगी।

ईसा से तीसरी सदी पूर्व मौर्य काल की बनी हुई है। अनगढ़ पालिश। मौर्य काल में पाटलिपुत्र के लोग यक्ष और यक्षी को समृद्धि, विपुलता और ऊर्वरता से जोड़ कर देखते थे। पेड़ों के नीचे इनकी मूर्तियों को रखकर पूजा अर्चना करते थे। बाद में दूसरे मतावलंबी भी यक्ष और यक्षी की पूजा करने लगे। बौद्ध स्तूपों में भी यक्ष यक्षी की मूर्ति मिलती है मगर दोयम दर्जे पर। रिचर्ड लिखते हैं कि इस मूर्ति की क्या हैसियत थी, कब इसे बनाया गया या कब विस्थापित किया गया इसका पता नहीं चलता है। मौलवी साहब इस मूर्ति को छोड़ कर चले गए। फिर कुछ और लोगों ने इसे खींच कर किनारे से ऊपर लाया। वहां पर पूजा अर्चना होने लगी। तब पटना म्यूजियम अस्तित्व में था। इसके क्यूरेटर डी बी स्नूपर ने लिखा है कि तब तक पूजा होने लगी जब तक पुलिस ने इसके बारे में शिकायत दर्ज नहीं की। स्नूपर ने स्थानीय लोगों से नहीं पूछा कि वे कौन सी देवी समझ कर यक्षी की पूजा कर रहे थे। तब के ब्रिटिश अधिकारी ई एच सी बाल्श और स्पूनर इस मूर्ति को लाने दीदारगंज गए थे। वहां से लाकर इसे पटना म्यूज़ियम में रख दिया गया। रिचर्ड लिखते हैं कि इस मूर्ति के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं मिलती है। इसका अतीत सिर्फ भारतीय कला के प्रतीक के रूप में दर्ज होकर रह गया। स्नूपर ने भी तब के जर्नल आफ बिहार एंड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी में इसके बारे में एक लेख लिखा था मगर बेहद संक्षिप्त रुप से। फिर इस कहानी के जरिये रिचर्ड अपनी किताब का मकसद बताने लगते हैं मगर मेरा मकसद यहीं तक की जानकारी से पूरा हो जाता है।

किसी किताब से पूरी जानकारी नहीं लिखनी चाहिए। मैंने नहीं लिखी है मगर एक बार इस यक्षी के बारे में जानकर और अच्छा लगा। वो फिर से जादू बन गई है। जादूघर की यक्षी। (देश मंथन, 11 सितंबर 2014) 

 

 

 

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