संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
माँ तीन दिनों के लिए पिताजी के साथ बाहर गई थी। मैं बिना माँ के एक दिन नहीं रह सकता था। माँ ने जाते हुए मुझसे दो साल बड़ी बहन को निर्देश दिया था कि संजू का ख्याल रखना। बहन चुपचाप खड़ी थी।
जाते हुए माँ ने मुझे दस रुपये दिए कि मैं कहानी की किताबें खरीद कर लाऊँ और पढ़ूँ। माँ ने बहन को भी दस रुपये दिए थे कि उसका जो मन हो वो भी अपने लिए ख़रीद ले।
माँ के जाते ही मैं किताबों की दुकान पर गया और ढेर सारी कहानी की किताबें खरीद लाया। पराग, नंदन, चंपक और चंदामामा।
मैं सारी रात उन कहानियों को पढ़ता रहा। कहानियाँ खत्म हो गईं, तो फिर माँ की याद आने लगी।
माँ कहाँ गई, माँ कहाँ गई और मैं रोने लगा।
मुझे रोता देख कर मेरी बहन मेरे पास आई और उसने अपने दस रुपये भी मुझे दे दिए, कहने लगी कि तुम मत रो भाई। ये दस रुपये लो, और किताबें खरीद लाओ।
उसके बाद की कहानी बड़ी लंबी है कि मैं कैसे उन पैसों से भी कहानियों की किताबें खरीद लाया। उन्हें भी पढ़ गया। फिर मेरी तबियत खराब हो गयी और बहन ही उस रात मेरी माँ बन गयी।
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जब माँ सदा के लिए चली गयी, तो मेरी उस बहन ने अपनी शादी तक मुझे भाई की तरह नहीं, बेटे की तरह प्यार किया।
आज मैं आपको ले चलता हूँ पश्चिम बंगाल में तारापीठ मंदिर तक। मैं पिछले हफ्ते तारापीठ मंदिर गया था।
मंदिर का पट बंद था। मैं बाहर इंतजार कर रहा था कि कब दुबारा पट खुले तो मैं तारा माँ के दर्शन कर पाऊँ। हिंदुस्तान के मंदिरों के बाहर ढेरों भिखारी बैठे रहते हैं। इस मंदिर के बाहर भी एक बच्चा, जिसका एक पाँव पूरा कटा हुआ था, अपनी बहन के साथ भीख माँग रहा था।
आते-जाते श्रद्धालु उसके सामने एक-दो रुपये दे जाते।
अचानक मैंने देखा कि वो बच्चा अपनी बहन से जिद करने लगा कि उसे सामने बिक रहा वो खिलौना चाहिए।
मैं चुपचाप पत्रकार बन कर इस दृश्य को देखने लगा। भाई सामने दुकान पर टंगे खिलौने की ओर ललचाई नजरों से देख रहा था। बहन भाई की ओर देख रही थी। बहन ने भाई को कई बार कुछ समझाने और मनाने की कोशिश की। पर भाई ने जिद पकड़ ली थी। वो खुद उठ नहीं सकता था।
मैं चुपचाप एक भाई की जिद और बहन की मजबूरी को देख रहा था।
भाई जब सचमुच बहुत उदास हो गया, तो बहन ने चादर पर पड़े पैसों में से कुछ पैसे हाथ में उठाए, उन्हें गिना और उठ कर उस दुकान में गयी और वो खिलौना खरीद कर ले आई।
उदास, बिलखते भाई की आँखों में मैंने वहीं बैठे-बैठे झाँका। बहन ने भाई को खिलौना पकड़ाया और भाई की आँखें चमक उठीं।
आप आज मेरी पोस्ट की तस्वीर को गौर से देखिए, आप भी उस चमक को महसूस करेंगे।
बस आज आपको इतना ही महसूस करना है। इससे अधिक कुछ भी नहीं।
आज मैं संजय सिन्हा, इस भाई-बहन की कहानी को बहुत मन मसोस कर, बहुत काट-छांट कर, खुद को बहुत रोक कर आपके पास लाया हूँ। मैं बार-बार दुहरा रहा हूँ कि मेरा इरादा भाई की बेबसी की कहानी सुनाने का रत्ती भर नहीं, मेरा इरादा है आपको भाई की आँखों की चमक को दिखाने का।
आज मेरा मन कर रहा है आपसे ये पूछने का कि इन लड़कियों को कौन सिखाता है, माँ बनना?
आज मेरा मन है आपसे ये पूछने का कि लड़कियों में करुणा के बीज कौन रोपता है?
मैं आज इससे अधिक नहीं लिख पा रहा। नहीं लिख पा रहा, क्योंकि हाथ बार-बार रुक रहे हैं। इन तस्वीरों में ही एक हजार शब्द छिपे हैं, इन्हें शब्दों की क्या दरकार?
मैं भाई की आँखों की चमक देख रहा हूँ, आप भी भाई की आँखों में चमक और बहन की आँखों में प्यार देखिए।
(देश मंथन 09 अगस्त 2016)