संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
कर्मचारी बॉस के आगे गिड़गिड़ा रहा था।
“सर, अब आप मुझे शाम सात बजे के बाद मत रोका कीजिए। मुझे रोज शाम सात बजे यहाँ से जाने दिया कीजिए।”
बॉस कर्मचारी को घूर रहा था। ऐसा भले कैसे हो सकता है कि तुम्हें सात बजे के बाद रुकने को कभी न कहा जाए। काम तो काम है, कभी-कभी रुकना भी पड़ सकता है। पर कर्मचारी अड़ा हुआ था, “समझिए सर, प्लीज।”
आखिर बॉस ने पूछ ही लिया, “ऐसी क्या बात हो गयी जो तुम शाम सात बजे के बाद रुक नहीं सकते?”
“सर, किसी से कहिएगा नहीं, लेकिन मुझे यहाँ जो वेतन मिलता है, उससे अब मेरा और मेरे परिवार का गुजारा नहीं चलता। मैंने तय किया है कि अब मैं सात बजे के बाद रिक्शा चलाऊंगा, ताकि कुछ अतिरिक्त आमदनी हो सके।”
बॉस कर्माचारी की बाद सुन कर बहुत भावुक हो गया।
उसने धीरे से उससे कहा, “ठीक है, पगले। तूने आज मुझे इमोशनल कर दिया। सुन, तुझे देर रात कभी भूख लगे तो फलाँ गली में आ जाना, मैं रात में वहाँ पाव-भाजी का ठेला लगाता हूँ।”
है तो ये चुटकुला। लेकिन संजय सिन्हा क्योंकि चुटकुले में भी कहानी ढूंढ लेते हैं, इसलिए आप इस चुटकुले पर हँसिएगा मत। दरअसल यह हँसने वाली बात नहीं है। यह हर आदमी की एक ऐसी कहानी है, जिसे कोई किसी से बयाँ नहीं कर पा रहा। हर आदमी सुबह से शाम तक लगा हुआ है, जीने की तैयारी कर रहा है, पर वो जी नहीं पा रहा। वो रोज-रोज की जद्दोजेहद में ही इस कदर उलझ कर रह गया है कि उसे अब जीने का वक्त ही नहीं मिल रहा।
मेरे पिताजी सुबह दस बजे दफ्तर जाते थे। डेढ़ बजे खाना खाने घर आते थे। खाना खाकर, थोड़ा आराम करके फिर वो दफ्तर चले जाते। शाम पाँच बजे छुट्टी हो जाती, वो फिर घर चले आते। साथ में एक-दो दोस्त भी होते। शाम को माँ पकौड़े तलती। कभी चिप्स तलती। कभी पोहा बनाती। जैसे सुबह घर में खाने की सोंधी-सोंधी खुशबू फैलती, शाम को भी वैसी ही खुशबू उड़ती। जैसे सुबह का इंतजार होता, वैसे ही शाम का इंतजार भी होता। खूब भूख लगती। छक कर सुबह नाश्ता करते। दोपहर में खाना खाते। फिर शाम को नाश्ता करते। फिर रात में खाते।
घर में किसी का पेट नहीं निकला था। तब कोई जिम नहीं जाता था। हफ्ते में एक दिन टीवी पर फिल्म आती, तो पूरा घर साथ बैठ कर उसका लुत्फ लेता। एक टीवी था, पूरा घर साथ था। कई बार तो मुहल्ले के भी कुछ लोग भी आ जाते, फिल्म देखने। सबके लिए चाय बनती। सबके लिए पकौड़े तले जाते।
धीरे-धीरे समय बदला।
पहले केवल पिताजी दफ्तर जाते थे। माँ घर के काम करती थी।
जब मैं बड़ा हुआ तो मैं भी दफ्तर जाने लगा। पर मेरी पत्नी भी दफ्तर जाती थी। पहले हमने साथ नाश्ता करना छोड़ा। फिर धीरे-धीरे नाश्ता करना ही छूटने लगा। पहले जैसे टेबल-कुर्सी पर बैठ कर नाश्ता करते थे, वो छूट गया। लंच तो कभी घर में कर ही नहीं पाते।
धीरे-धीरे हम ये भी भूल गये कि शाम को भी सुबह की तरह नाश्ता किया जाता है।
और अब बात रह गयी डिनर की।
तो ये तो सबने सिखाया है कि डिनर करना ठीक नहीं। डिनर तो सात बजे के पहले करना चाहिए। डिनर करते ही सोना मतलब बीमारी को निमंत्रण देना।
मतलब सब छूट गया।
मैं भाग रहा हूँ। पत्नी भी भाग रही है। कुछ ही महीनों में बेटा भी भागने लगेगा।
हम सब पैसे कमा रहे हैं।
जानते हैं क्यों? क्योंकि सचमुच महँगाई बहुत बढ़ गयी है। एक आदमी की नौकरी से सचमुच घर की गाड़ी ठीक से नहीं चल पा रही है। क्या कर्मचारी, क्या बॉस। हम सब महँगाई के पहिए तले दब कर कहीं रिक्शा चला रहे हैं, कहीं पाव-भाजी का ठेला लगा रहे हैं। हम जीने की कोशिश कर रहे हैं, जी नहीं रहे।
मुझे अफसोस इस बात का है कि महँगाई आज मुद्दा नहीं।
हमें छोटे-छोटे काम के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। मुझे अफसोस है कि भ्रष्टाचार भी आज मुद्दा नहीं।
हम बहुत मेहनत करते हैं पर हम जी नहीं पा रहे। मुझे अफसोस है कि हम इस सच को समझ ही नहीं पा रहे कि कोई हमें जानबूझ कर दूसरी समस्याओं में इस कदर उलझा दे रहा है कि हम जी ही नहीं पाएं।
कोई तो है, जो हमें जीने नहीं देना चाहता। कोई तो है, जो नहीं चाहता कि हम रोज की मुश्किलों से बाहर निकलें।
मैं तो पता लगा ही रहा हूँ, आप भी पता लगाइए। पता कीजिए कि वो कौन है जो जीने नहीं दे रहा। वो कौन है जो नहीं चाहता कि हम महँगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार की बात करें। वो कौन है जो मुद्दे बदल दे रहा है। कभी सीएम-एल जी विवाद तो कभी पेट्रोल-डीजल विवाद। कभी आरक्षण विवाद। कभी सीमा विवाद तो कभी जल विवाद।
पता कीजिए, क्योंकि कोई तो है, जो रोज नये विवाद लेकर आ रहा है।
रोज-रोज की जद्दोजेहद में ही जिन्दगी खत्म हो जाएगी। दिन भर की नौकरी के बाद रिक्शा खींचते हुए जिन्दगी खत्म हो जाएगी।
ध्यान रहे, जिन्दगी अनमोल है, पर असीमित नहीं।
(देश मंथन 23 सितंबर 2016)