संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
स्कूल में मास्टर साहब पढ़ा रहे थे। अचानक मास्टर ने क्लास में सभी बच्चों से पूछा, “बच्चों तुम्हें अचानक भगवान मिल जाएँ और तुमसे कहें कि तुम क्या माँगते हो, विद्या या धन, तो तुम क्या माँगोगे?”
सारे बच्चे सकपका गये। बड़ा विकट सवाल था कि आखिर भगवान से क्या माँगा जाए। विद्या या धन?
विद्या मिल जाये मतलब स्कूल, होमवर्क और परीक्षा तीनों का बेड़ा पार।
धन मिल जाये, तो पढ़ाई की जरूरत ही क्यों पड़े?
पर किसी बच्चे ने कोई जवाब नहीं दिया।
मास्टर ने छड़ी पटकी।
“क्यों तुम्हें नहीं पता कि तुम्हें क्या चाहिए? अरे इतना सीधा सा सवाल पूछा है कि भगवान से तुम क्या माँगोगे? विद्या या धन?”
छड़ी की फटकार से घबरा कर कक्षा में संजय सिन्हा की बगल में बैठे तिवारी ने बोल ही दिया कि मास्टर साहब हम तो धन माँग लेंगे।
“धन? तुम्हारा दिमाग खराब है? अरे! मुझे लगा था कि तुम लोग मेरे शिष्य हो, और विद्या चाहोगे? सच तो यह है बच्चों कि अगर मुझसे यह सवाल कोई पूछता कि मास्टर साहब अगर भगवान सामने खड़े हों और धन या विद्या में से कोई एक चीज देंगे, तो मैं बिना संकोच उनसे विद्या माँग लेता।”
तिवारी कुनमुनाया। मास्टर ने उसे बेंच पर खड़ा होने का आदेश दिया।
“क्यों तिवारी, तुमने धन माँगने की बात क्यों की?”
“मास्टर साहब, जिसके पास जिस चीज की कमी होगी, वही तो माँगेगा भगवान से!”
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मुझसे कई लोग अभी भी पूछते हैं कि संजय सिन्हा तुम पिछले बीस महीनों से रोज सुबह उठ कर फेसबुक पर बेवजह लिखते हो। फिर तुम्हारे तथाकथित परिजन उस पर लाइक बटन दबाते हैं। कमेंट करते हैं। फिर तुम उस कमेंट को पढ़ते हो, अपना लाइक बटन दबाते हो। रोज कम से कम सौ लोगों से मेसेंजर पर स्टिकर-स्टिकर खेलते हो। कई लोगों से फोन पर भी बतियाते हो। व्हाट्स ऐप पर संदेश भेजते हो। फोटो भेजते हो। उन लोगों से जुड़े रहते हो, जिनसे तुम्हारा कोई फायदा नहीं।
कल रविवार था। कल एक सज्जन घर आ ही गये। लगे मुझे सलाह देने कि तुम ये फेसबुक का चक्कर छोड़ो।अरे कोई ऐसा काम करो, जिससे तुम्हें कुछ फायदा हो। मीडिया में हो, उन लोगों से मेलजोल बढ़ाओ, जिनसे कुछ मिले। राजनेताओं से मिलो। जनसंपर्क बढ़ाओ। ये क्या फेसबुक-फेसबुक करते रहते हो। कल को कोई जरूरत आ पड़ी तो तुम्हारे ये परिजन किसी काम नहीं आएँगे। छोड़ो इन रिश्तों को। ये फालतू काम बन्द करो। चलो मैं तुम्हें फलाँ मन्त्री के घर लिए चलता हूँ। ये लोग जीवन में काम आएँगे।”
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मैं आम तौर पर प्रतिवाद कम करता हूँ। और जो सज्जन मेरे पास आये थे, वो करीबी भी थे।
जब बहुत बार उन्होंने मुझे उकसाया, तो मुझसे नहीं रहा गया। मैंने पहले तो उन्हें मास्टर साहब वाला पूरा चुटकुला सुना दिया। फिर धीरे से उनसे कहा कि आदमी के पास जिस चीज की कमी होती है, वो वही तलाशता है। मुझे जनसंपर्क की क्या जरूरत? मैंने यहाँ माँ तलाश ली है, भाई तलाश लिया है, बहनें तलाश ली हैं। मेरे पास इन्हीं की कमी थी। अब जब मेरे पासे इतने रिश्ते हो गये हैं, तो मेरे पास समय ही कहाँ है नेताओं से मिलने का, जो मेरे पता नहीं किस काम आएँगे। मुझे तो सुबह उठते ही अपनों की गुडमार्निंग चाहिए होती है। वही मेरे लिए दिन भर की ताकत हैं।
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मैंने उस मास्टर का मुँह देखा था, जिसे तिवारी ने यह जवाब दिया था कि जिसके पास जिस चीज की कमी होगी, वो वही माँगेगा।
मेरे ऐसा कहते ही मेरे परिचित का मुँह भी मास्टर की तरह बन गया। फिर मैंने उन्हें एक गाना भी सुना दिया- “उनको खुदा मिले, जिन्हें है खुदा की तलाश, मुझको तो एक झलक मेरे ‘प्यार’ की मिले।”
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बस हर सुबह आप अपना प्यार इसी तरह बनाए रखें, इसके आगे किसी चीज की दरकार मुझे नहीं।
(देश मंथन, 03 अगस्त 2015)