संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मुझे मरने से डर नहीं लगता। पर मर जाने में मुझे सबसे बुरी बात जो लगती है, वो ये है कि आप चाह कर भी दुबारा उस व्यक्ति से नहीं मिल सकते, जिससे मिलने की तमन्ना रह जाती है।
हालाँकि कबीर ने मर जाने को शरीर से अधिक मन का भाव माना है। उनका कहना है कि अगर कोई व्यक्ति किसी के मन से निकल गया, मतलब उस व्यक्ति की उसके लिए मौत हो गयी, जिसने उसे दिल से निकाल दिया है।
“उलटी मार कबीर की, जो चित से दियो उतार।”
ऐसा बहुत बार होता है कि हम किसी को जिन्दा रहते ही दिल से निकाल देते हैं और बहुत से लोग जो इस संसार से चले गये, उन्हें नहीं निकाल पाते। ऐसा ही हुआ मेरे साथ। कई साल पहले मर चुकी अपनी माँ को मैं एक पल के लिए भी दिल से नहीं निकाल सका। जाहिर है, मेरी माँ मर की भी मेरे मन में जिन्दा है। बस, अफसोस इस बात का है कि मैं कभी माँ से नहीं मिल पाऊँगा।
पर आज मैं आपको जिसकी कहानी सुनाने जा रहा हूँ, उसकी किस्मत मुझसे अधिक अच्छी है। वो अपनी माँ से मिलने में कामयाब रहा। मैंने भी बहुत कम उम्र में अपनी माँ को खो दिया था, मेरी कहानी का आज का नायक, जिसका नाम सरू है, उसने भी अपनी माँ को बहुत छोटी उम्र में खो दिया था, पर माँ से जुदाई के 25 सालों के बाद वो अपनी माँ से मिलने में कामयाब रहा।
जानते हैं क्यों?
क्योंकि मेरी माँ मर कर मुझसे जुदा हो गयी थी, उसकी माँ जीते-जी जुदा हो गयी थी और मेरा सबसे बड़ा दुख है मर जाने का।
अब आइए, मैं आपको सरू की कहानी सुनाता हूँ। सरू यानी शेरू मुंशी खान।
शेरू मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में गणेश तिलाई इलाके में पैदा हुआ था। वो बहुत छोटा था, तभी उसके पिता की निधन हो गया। घर की स्थिति बहुत ख़राब थी। बच्चे भीख माँगने लगे। एक दिन सरू अपने बड़े भाई के साथ ट्रेन में भीख माँगने के लिए चढ़ा, कुछ देर बाद उसकी आँख लग गयी और चलती ट्रेन में वो सो गया। उसका भाई बुराहनपुर में अपने छोटे भाई को छोड़ कर ट्रेन से उतर गया। ट्रेन चलती चली गयी।
जब सरू की नींद खुली, तो अपने भाई को पास नहीं पा कर वो बहुत घबरा गया। वो रोने लगा। उसने कई बार ट्रेन से उतरने की कोशिश की। पर वो कामयाब नहीं रहा और ट्रेन हावड़ा पहुँच गयी।
हावड़ा में उसे कई तरह के लोग मिले, सबसे बचता बचाता वो रोता हुआ पता नहीं कैसे एक अनाथ आश्रम तक पहुँच गया। और फिर वहाँ से उसे याद नहीं कि कैसे आस्ट्रेलिया के एक दंपति अपने साथ गोद लेकर आस्ट्रेलिया लेकर चले गए। वो हावड़ा से सीधे पहुँचा केनबरा।
पहुँचने को तो वो सात समंदर पार एक नए संसार में पहुँच गया था। पर माँ की उसे बहुत याद आती थी।
सरू वहाँ स्कूल जाने लगा। उसकी जिन्दगी बदल गयी।
पर वो माँ को नहीं भूला। पाँच साल की उम्र में उसकी आँखों में माँ की तस्वीर थी, वो जस की तस बसी रही। सरू कॉलेज गया। नौकरी करने लगा। बहुत साल बीत चुके थे। पर माँ की तस्वीर आँखों से मिट नहीं रही थी। नौकरी में आने के बाद उसने भारत में माँ की तलाश शुरू की। उसने पहले अपनी यादों को खंगाला और फिर गूगल मैप पर उन यादों को आकार देने लगा। गूगल मैप के जरिए वो अपने घर तक पहुँचा और फिर वो फेसबुक के जरिए उस इलाके के लोगों से जुड़ने लगा। धीरे-धीरे उसने अपनी कहानी उस मुहल्ले के लोगों को बताई और माँ की तलाश करने लगा।
और उन्हीं दिनों उसे भारत आने का मौका मिला। भारत पहुँच कर सबसे पहले वो खंडवा के उस इलाके में पहुँचा और मेरा यकीन कीजिए, उसकी चाहत में इतना दम था कि उसे उसकी माँ वहां मिल गयी।
25 साल बाद बेटा माँ की गोद में था।
माँ बहुत बूढ़ी हो गयी थी और साफ-सफाई का काम करके किसी तरह अपना जीवन काट रही थी।
आगे की कहानी मैं नहीं लिख पाऊंगा। मैं लिखते-लिखते रो रहा हूँ।
पर इतना बताता दूँ चलू कि माँ बेटे के इस मिलन पर जल्दी ही एक फिल्म बनने वाली है।
बननी ही चाहिए। माँ-बेटे के मिलन की यह कहानी मुझ जैसे लाखों बेटों को सुकुन देने वाली घटना है। माँ मिल जाए फिर बेटे को और क्या चाहिए?
खंडवा के गणेश तिलाई इलाके के लोग कहते हैं कि माँ के दिन फिर गये। क्योंकि बेटे ने माँ को धन-धान्य और सुख-सुविधाओं से लैस कर दिया है।
मैं कहता हूँ कि बेटे के दिन फिर गये। बेटे को माँ की साँसों की सोंधी खुशबू मिल गयी। बेटे को संसार में सबसे महफूज जगह, माँ की गोद मिल गयी।
वैसे आपको बता दूँ कि सरू फेसबुक पर आया था, माँ की तलाश में। उसे उसकी माँ मिल गयी। वो भाग्यशाली है। पर मैं भी कम भाग्यशाली नहीं। मैं भी फेसबुक पर आया था, इस संसार को अलविदा कह चुके अपने भाई और अपनी माँ की तलाश में। सरू ने तो 25 साल बाद अपनी जिन्दा माँ को ढूँढ निकाला था, इस फेसबुक पर।
संजय सिन्हा को भी फेसबुक पर माँ मिल गयी। कई भाई मिल गये और साथ में आप जैसे प्यार करने वाले इतने सारे रिश्तेदार मिल गये।
मैं तो कहता हूँ कि आदमी की चाहत में शिद्दत होनी चाहिए। चाहत में शिद्दत हो, तो सारा फेसबुक लग जाता है आपको आपकी चाहत से मिलाने में।
(देश मंथन, 27 अप्रैल 2016)




संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :












