अभिरंजन कुमार :
फिल्मों में गालियों के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने की पहलाज निहलानी की पहल काबिल-ए-तारीफ है।
गालियाँ किसी सभ्य समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा नहीं हो सकतीं, न इसे कलात्मकता से जोड़ा जाना चाहिये। खासकर तब, जबकि इनमें से ज्यादातर गालियाँ स्त्रियों के सम्मान-स्वाभिमान पर चोट पहुँचाने वाली होती हैं।
मुझे समझ में नहीं आता कि ये कैसे फर्जी स्त्रीवादी और फिल्मकार हैं, जो “कास्टिंग काउच” किए बिना किसी महिला को अपनी फिल्मों में काम नहीं देना चाहते हैं। अपने धंधे के लिए फिल्मों को स्त्री-देह की नुमाइश का अड्डा या कहें तो “कोठा” बना देते हैं और अपनी माँ-बहनों की मौजूदगी में भी एक-दूसरे को माँ-बहन की गालियाँ देकर हंसी-ठट्ठा करते शर्मिंदा नहीं होते।
पर्दे के पीछे “जिस्म-फरोशी” और पर्दे के आगे “जिस्म-परोसी” करने वाले ऐसे ही कुंठित, कुत्सित, अय्याश, आवारा, धंधेबाज, स्त्री-विरोधी, समाज-द्रोही, सभ्यता-संस्कृति के हत्यारे, कला के नाम पर अश्लीलता फैलाने वाले गैर-जिम्मेदार लोग ही फिल्मों में गालियों पर पाबंदी लगाने की बात से चिढ़ सकते हैं।
फिर भी अगर किसी को लगता है कि फिल्मों में गालियों का इस्तेमाल बुरी बात नहीं है, तो उन्हें उन्हीं गालियों से विभूषित किया जाना चाहिए, जिनके इस्तेमाल की वे इजाजत चाहते हैं। हम भारत सरकार से उम्मीद करते हैं कि वह ऐसे धंधेबाज, अश्लील, अभद्र और स्त्री-विरोधी बॉलीवुडियों के आगे झुकेगी नहीं।
(देश मंथन, 20 फरवरी 2015)