गली कासिम जान- गालिब की हवेली

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विद्युत प्रकाश मौर्य, वरिष्ठ पत्रकार :

पुरानी दिल्ली में चाँदनी चौक से फतेहपुर मस्जिद की ओर बढ़ते हुए गुरुद्वारा शीशगंज और नयी सड़क के बाद बायीं तरफ आता है बल्लीमारान। वैसे तो बल्लीमारान आज की तारीख में चश्मे और जूते चप्पलों को बड़ा बाजार है। पर इन्ही बल्लीमारान की गलियों में थोड़ी दूर चलने पर आपको गली कासिम जान का बोर्ड नजर आता है। इस बोर्ड को देखकर कुछ याद आने लगता है।  

गली काफी लंबी है जो लालकुआँ की तरफ चली जाती है। पर गली कासिम जान में बस थोड़ा सा आगे बढ़ने पर एक देश के एक महान शायर का घर आता है। ये महान शायर हैं मिर्जा गालिब। उर्दू और फारसी के जाने माने शायर मिर्जा असदुल्ला खाँ गालिब अपने आखिरी दिनों में दो दशक से ज्यादा इसी हवेली में रहे। वे साल 1860 से 1869 में इस हवेली में आये थे। फिर यहाँ के होकर रह गये। कौन जाए अब दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर। 15 फरवरी 1869 को उन्होंने आखिरी साँस ली। उनकी मजार हजरत निजामुद्दीन की दरगाह के पास है।

गालिब की हवेली की सरंचना शानदार है। ईंटो से बना ये अर्धवृताकार भवन किसी हवेली सा लगता है। हालाँकि भारत विभाजन के बाद ये हवेली बुरे हाल में थी। गालिब के प्रेमी लोगों ने इस हवेली के संरक्षण में बड़ी भूमिका निभायी। अब यह हवेली गालिब के संग्रहालय के तौर पर विकसित हो गयी। पर सोमवार को मत जाइएगा। इस दिन हवेली बंद रहती है। बाकी दिन ये हवेली 11 बजे से शाम 6 बजे तक खुली रहती है। गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा में हुआ था। आगरा में गालिब की स्मृति में कुछ नहीं है पर ताज के शहर में अब गालिब की स्मृतियों के नाम पर केवले दो मोहल्ले छोटा गालिबपुरा और बड़ा गालिबपुरा शेष हैं। गालिब जब गली कासिम जान में रहने आए तब वे साठ को पार कर चुके थे। देश 1857 की क्रांति से आगे निकल चुका था। एक शायर के तौर पर गालिब का काफी नाम हो चुका था।

पूछते हैं वो के गालिब कौन है… कोई बतलाओ के हम बतलाएँ क्या?

गालिब की इस हवेली का नया जीवन देने में मशहूर फिल्मकार गुलजार की भी बड़ी भूमिका है। गालिब की हवेली के बाहर विख्यात विद्वान राल्फ रसेल की उक्ति लिखी हुई है- गालिब अगर अंगरेजी भाषा के कवि होते तो उनकी गिनती विश्व इतिहास के महानतम कवियों में होती। गालिब की इस हवेली को देख कर उनका ये शेर सबसे पहले याद आता है-

वो आएँ घर में हमारे, खुदा की कुदरत है। 

कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं।

आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक

कौन जीता  है तेरी जुल्फ के सर होने तक।

उनके देखे से आ जाती है चेहरे पर रौनक

वे समझते हैं बीमार का हाल अच्छा है।

और गालिब का सबसे लोकप्रिय शेर

न कुछ था तो खुदा था, न कुछ होता तो खुदा होता

डुबोया मुझको होने ने, न होता तो मैं क्या होता।

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और अंत में…

हमने माना के तगाफुल न करोगे लेकिन,

खाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक।

तो कभी आइए ना गली कासिम जान में….

शायर का संग्रहालय 

गालिब की हवेली को फिल्मकार गुलजार के प्रयास से नया रूप दिया गया है। हवेली के दो कमरों में मशहूर शायर की यादें समेटने की कोशिश की गयी है। यहाँ गालिब के दो दीवान देखे जा सकते हैं। इसके अलावा गालिब के पसंदीदा खेल चौसर और शतरंज की बिसात भी देख सकते हैं। गालिब जैसे बरतनों का इस्तेमाल करते थे, वैसे कुछ बरतन यहाँ संकलित किये गये हैं। 

दीवारों पर उनकी प्रसिद्ध शायरी का संकलन किया गया है। गालिब साहब की दो मूर्तियाँ और एक विशालकाय पेंटिंग भी यहाँ पर है। 26 दिसंबर 2010 को गालिब की एक मूर्ति यहाँ स्थापित की गयी है। 

उग रहा है दरो दीवार पर सब्जा गालिब

हम बयाबाँ में हैं, और घर में बहार आयी है। 

घुम्मकड़ गालिब 

आगरा में पैदा हुए मिर्जा गालिब का ज्यादातर वक्त दिल्ली में गुजरा, पर वे बड़े घुम्मकड़ किस्म के इंसान थे। उन्होंने कई शहरों का पानी पीया। उन्होंने रामपुर, फिरोजपुर झिरका,  भरतपुर, बांदा, लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, पटना, मुर्शिदाबाद और कोलकाता में भी अपना वक्त गुजारा। पर अंत में दिल्ली पहुँचे। अंतिम दिनों में वे दो बार रामपुर के दरबार में भी गये। उनके देश भर में करीब 200 शागिर्द थे, जिसमें बादशाह बहादुर शाह जफर, अल्ताफ हसन हाली ( पानीपत), दाग देहलवी और मुंशी हरगोपाल प्रमुख थे।

गालिब की पत्नी उमराव बेगम

गालिब की पत्नी उमराव बेगम गली कासिम जान के रहने वाले नवाब लोहारू इलाही बक्श मारूफ की बेटी थीं। उनका जो घर था उसमें आजकल राबिया गर्ल्स स्कूल संचालित होता है। गालिब 13 के थे और उमराव 12 तब दोनों का निकाह हुआ। दोनों की शादी खूब निभी।

उमराव बेगम बड़ी वफादार पत्नी थीं। हालाँकि गालिब को शिकायत रहती थी कि वे उनकी शायरी की तारीफ नहीं करतीं। वास्तव में उमराव बेगम को शायरी पसंद नहीं थी, पर उन्होंने कभी शिकायत नहीं की। गालिब को कुल सात बच्चे हुए पर सभी कच्ची उम्र में ही अल्लाह को प्यार हो गये।

(देश मंथन, 06 नवंबर 2015)

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