संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
आप जानते हैं कि पृथ्वी पर सबसे ऊँची कोई जगह है तो वो है माउंट एवरेस्ट।
एवरेस्ट पर चढ़ना अपने आप में जिन्दगी की उपलब्धि है। पर क्या कोई एवरेस्ट पर टिका रह सकता है?
नहीं।
मैंने एक बार एवरेस्ट तक पहुँचने वाले पर्वतारोही से पूछा था कि आप इतनी मेहनत से एवरेस्ट के शिखर तक पहुँच गये थे, तो वहीं रुक क्यों नहीं गये?
उन्होंने कहा था कि वहाँ कोई रुक नहीं सकता।
उन्होंने मुझसे कहा था कि एवरेस्ट कुछ है ही नहीं। वह बस एक प्रतीक है।
“प्रतीक? जिस पर्वत चोटी पर चढ़ने के लिए आपने अपनी जिन्दगी खर्च कर दी, उसे आप सिर्फ एक प्रतीक ठहरा रहे हैं?”
उन्होंने मेरी ओर बहुत गौर से देखा और मुझे पास बिठा कर एक कहानी सुनायी।
***
दो दोस्त थे। दोनों में आपस में शर्त लगी कि संसार में कोई भी व्यक्ति अकेला नहीं रह सकता।
एक दोस्त ने कहा कि वो कहीं भी अकेला रह सकता है।
दूसरे ने कहा कि अगर तुम दस वर्ष एकदम अकेले रह गये, तो मैं तुम्हें इतने लाख रुपए दूंगा। शर्त मान ली गयी। दूसरे दोस्त ने कहा कि तुम मेरे रहने का इंतज़ाम कहीं दूर एकदम अकेले में कर दो। मैं दस वर्षों तक किसी से नहीं मिलूँगा।
शर्त तय हुई कि वो आदमी उस सुनसान कोठरी में अकेला रहेगा। उसके लिए हर रोज दरवाजे के बाहर खाना रख दिया जाएगा और वो समय पर दरवाजा खोल कर खाना उठा लेगा, पर किसी से नहीं मिलेगा। दस वर्षों तक उसे आदमी का चेहरा नहीं देखना था। हाँ, अगर वो कुछ पढ़ना चाहे तो किताबें उसे मिल जाएँगी। वो अपनी पसंद की किताबों की लिस्ट दरवाजे के बाहर रख देगा, उसे दरवाजे के बाहर ही किताबें रखी मिल जाएँगी।
दोस्त तैयार हो गया।
खाने और पढ़ने का इंतज़ाम हो चुका था। दोस्त अकेला उस सुनसान कोठरी में रहने लगा।
पहले दिन उसे अकेलेपन से बहुत बेचैनी हुई। दूसरे दिन मन किया कि वो भाग जाए। पर शर्त की बात याद कर, लाखों रुपए इनाम की कल्पना कर वो रुक गया।
धीरे-धीरे एक साल बीत गया। इस बीच वो आदमी हर रोज नई किताब मंगाता और पढ़ता। उसने कई किताबें पढ़ लीं। वो अपनी मंजिल के बेहद करीब था। कुछ ही महीने बचे थे जब वो शर्त जीत जाता। उसका दोस्त उसे लाखों रुपए बतौर इनाम देने वाला था।
एक दिन वो अकेला बिस्तर पर लेटा था।
लेटे-लेट उसे लगा कि उसने पैसों के लिए ये क्या बेकार की शर्त लगा ली। अपने सभी रिश्तों से दूर वो यहाँ कई वर्षों से पड़ा हुआ है। उसने इतनी किताबें पढ़ीं, इतना ज्ञान अर्जित किया और वो कुछ लाख रुपयों के लिए खुद को यहाँ बंधक बनाए हुए है।
उसने तारीख जोड़ी।
करीब एक हफ्ता बचा था। अब वो शर्त जीत जाने वाला था।
मन के एक कोने ने कहा, “इतने दिन रुके रहे, अब एक हफ्ता और रुक जाओ, लाखों रुपए मिलेंगे।”
मन के दूसरे कोने ने कहा, “क्या करोगे उन पैसों का?”
आदमी उठा, उसने एक कागज के टुकड़े पर लिखा, “दोस्त, मैं अपनी शर्त हार रहा हूँ। मैं अब और अकेला नहीं रह सकता। मैं जानता हूँ कि मैं शर्त के लाखों रुपए हारने जा रहा हूँ, पर मैं शर्त तोड़ रहा हूँ। मैं शर्त एक हफ्ता पहले तोड़ रहा हूँ। मुझे माफ करना मेरे दोस्त। मैं हार गया। मैं हारना चाहता हूँ। मैंने इतने दिन अकेले रह कर रिश्तों की अहमितय समझी। मैंने इतने दिन इतनी किताबें पढ़ कर यह समझ लिया कि जिन्दगी इतनी बड़ी नहीं होती कि उसे अकेलेपन के दंश में खत्म कर दिया जाए। इसलिए मेरे दोस्त, मैं जा रहा हूँ। तुम शर्त जीत गये। बधाई।”
और वो चला गया।
***
उधर, उसका दूसरा दोस्त जो हफ्ते भर में लाखों रुपए हारने जा रहा था, मन ही मन परेशान था।
अब तो उसका दोस्त शर्त जीत जाएगा। उसे लाखों रुपए देने होंगे। मन ही मन खुद को कोस रहा था कि उसने शर्त लगायी ही क्यों। अचानक उसके मन में ख्याल आया कि क्यों न वो अपने दोस्त को जाकर मार दे। शर्त जीतने से पहले अगर दोस्त की मौत हो गयी तो उसके लाखों रुपए बच जाएँगे।
उसने हाथ में पिस्तौल ली और चल पड़ा दोस्त के पास।
पर ये क्या? वहाँ तो दोस्त था ही नहीं। वहाँ वही चिट्ठी रखी थी, जिसमें उसने शर्त हारने की बात लिखी थी।
***
पर्वतारोही ने कहानी सुनाई और चुप हो गया।
मैं उसकी ओर देखता रहा। कुछ देर चुप रह कर उसने फिर कहा, जब हम एवरेस्ट पर चढ़ने जाते हैं, तो मन में यह कल्पना लेकर कर जाते हैं कि हम संसार की सबसे ऊँची चोटी पर चढ़ेंगे। पर वहाँ पहुँचते ही हमें यह लगने लगता है कि यहाँ तो कोई रुक नहीं सकता। ऊँचाई सिर्फ मन का प्रतीक है। सिर्फ अहसास है। आदमी बहुत ऊँचे टीले पर बहुत समय तक नहीं रह सकता। जो ऊँचे टीले पर रहते हैं, वो अकेले हो जाते हैं।
और आदमी चाहे जितनी कोशिश कर ले, अकेला नहीं रह सकता। चाहे जितनी बार शर्त लगा ले, वो एक दिन खुद ही शर्त हार जाना चाहता है।
ऊँचे टीले पर चढ़ना बड़ी बात नहीं होती। बड़ी बात होती है, वहाँ से उतरने के लिए तैयार रहने की।
ऊँचे टीले पर चढ़ना सिर्फ मन के उस अहसास से गुजारने की एक प्रक्रिया भर है कि हम वहाँ तक पहुँच सकते हैं। पर वहाँ रुक नहीं सकते। कोई नहीं रुका है। कोई नहीं रुकेगा।
(देश मंथन, 19 दिसंबर 2015)