गुमनाम लिफाफे का अनजाना संदेश

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

एक अनपढ़ आदमी के नाम कहीं से एक चिट्ठी आयी। अनपढ़ आदमी अकेला था। न आगे नाथ न पीछे पगहा। ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी ने उस अनपढ़ आदमी के नाम घर पर चिट्ठी भेजी हो। 

उस आदमी ने उलट कर, पलट कर उस लिफाफे को देखा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर इसमें लिखा क्या है। किसी ने उसे चिट्ठी लिखी ही क्यों?

बहुत परेशान होने के बाद उसने तय किया कि इस पत्र को किसी से पढ़ाया जाये। सबसे पहले उसने अपने पड़ोसी का दरवाजा खटखटाया और उसे लिफाफा देकर कहा कि पता नहीं किसने उसे ये चिट्ठी भेजी है, वो पढ़ नहीं सकता इसलिए आप पढ़कर सुना दीजिए कि क्या लिखा है। 

पड़ोसी ने लिफाफा हाथ में लिया, खोला, पढ़ा और एक चाँटा उस आदमी के गाल पर रसीद कर दिया। 

आदमी घबरा गया। उसकी समझ में कुछ आता इससे पहले ही उसने लिफाफा उस आदमी के हाथ में पकड़ाया और भगा दिया। 

बेचारा आदमी!

उसकी समझ में नहीं आया कि ये क्या हुआ। गाल सहलाता हुआ वो वहां से निकला और सीधे अपने घर पहुंच गया। गाल पर चाँटा तो जोरदार पड़ा था लेकिन उसे चाँटे का दर्द कम था, इस बात का अफसोस ज्यादा था कि पता नहीं चला कि चिट्ठी में लिखा क्या है। 

एकाध दिन वो चुपचाप घर में ही रहा। उसके मन में ये बात रह-रह कर उमड़ती रहती कि आखिर इस पत्र में है क्या?

दो-तीन दिन इंतजार करने के बाद उस लिफाफे को जेब में रख कर वो अपने काम पर पहुंच गया। वहां उसने अपने एक साथी से कहा कि क्या वो इस पत्र को पढ़कर उसे बता सकता है कि इसमें है क्या?

साथी ने पत्र हाथ में लिया। लिफाफा तो खुला हुआ था ही। उसने पत्र बाहर निकाला, उसे पढ़ा और सटाक से एक चाँटा उस आदमी के गाल पर जड़ दिया। 

आदमी बहुत घबरा गया। आखिर इस लिफाफे में है क्या? आखिर इस पत्र में लिखा क्या है? क्यों जो इसे पढ़ता है एक चाँटा रसीद कर देता है?

मन में तरह-तरह के सवाल उठते। लेकिन वो बेचारा पढ़ नहीं सकता था। उसकी हिम्मत टूटने लगी। पर उसे ये जानने की बड़ी उत्सुकता थी कि आखिर इसमें ऐसा लिखा क्या है?

आखिरी बार उसने फिर कोशिश की। एक दिन उसने तय किया कि किसी अनजान व्यक्ति से वो उस पत्र को पढ़वाएगा। बहुत हिम्मत कर वो बाजार में पहुँच गया और वहां उसने एक आदमी से अनुरोध किया कि प्लीज उस पत्र को पढ़कर बता दे कि इसमें लिखा क्या है। आदमी ने पत्र लिया। खुले लिफाफे से पत्र को बाहर निकाला। चुपचाप पढ़ा। फिर उसने उस आदमी को ऊपर से नीचे तक देखा और बीच बाजार में ही एक थप्पड़ जमा दिया। 

अब तो हद ही हो गई थी। अपना सा मुंह और हाथ में लिफाफा लिए वो आदमी घर लौट आया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर पत्र में ऐसा क्या लिखा है कि जो पढ़ता है एक थप्पड़ लगा देता है। जो भी हो, अब आदमी में हिम्मत नहीं बची थी कि वो उस लिफाफे को किसी को देकर उसे पढ़ने को कहे। 

सारी-सारी रात उसके दिमाग में वही चिट्ठी घूमती। उसका मन अपने काम में लगना बंद हो गया। बस वो लिफाफा और उसमें रखी चिट्ठी। उसने उस लिफाफे को सँदूक में बंद करके रख दिया। सोचा कि अब इसे बाहर निकालना ही नहीं है। अब इसे किसी को पढ़ने को देना ही नहीं है। अब इसके बारे में सोचना भी नहीं है।

कई साल निकल गए। आदमी का दिमाग। सोच लेने से क्या हो जाता है? क्या आदमी सोच ले कि वो ऐसा नहीं सोचेगा और वो सोचना बंद कर देगा? अगर ऐसा होता तो भला कोई शायर ऐसा कैसे लिखता, “जिन्हें हम भूलना चाहें, वो अक्सर याद आते हैं।”

तो वो आदमी भी उस पत्र को जितना भूलना चाहता दरअसल उसे उसकी उतनी ज्यादा याद आती। रात-दिन बस यही ख्याल आता कि पत्र आखिर उसे भेजा किसने? आखिर उसमें लिखा क्या है?

बहुत सोचने और परेशान रहने के बाद आदमी ने तय किया कि उसे शादी कर लेनी चाहिए। शादी क्यों कर लेनी चाहिए? 

शादी इसलिए कर लेनी चाहिए, क्योंकि पत्नी से वो उस पत्र को पढ़वा सकता है। 

वाह! दिमाग में क्या आइडिया आया है। एक पढ़ी-लिखी लड़की ढूंढकर शादी कर ली जाए तो वो उस चिट्ठी को पढ़ देगी। वो पत्नी होगी इसलिए थप्पड़ भी नहीं मारेगी। बस-बस। अब तक ये आइडिया दिमाग में क्यों नहीं आया था? इतने साल निकल गए। खैर, जैसे ही दिमाग में ये बात आई उसके मन में खुशी की लहर दौड़ गयी। उसने फटाफट लड़की ढूंढ कर उससे शादी कर ली। लड़की पढ़ी-लिखी थी। 

शादी की पहली रात। आदमी लड़की के पास गया। उसके सामने बैठकर उसने कहा, “तुम जानती हो मैंने तुमसे शादी क्यों की?”

शर्माती हुई लड़की ने सिर हिलाया, “नहीं पता।” 

आदमी ने कहा, “कई साल पहले किसी ने उसके नाम एक पत्र भेजा था। वो उसे पढ़ नहीं पाया। उसने कई लोगों को उस पत्र को पढ़ने को दिया कि कोई उसे पढ़कर सुना दे कि आखिर उसमें लिखा क्या है। लेकिन जिस-जिस को उसने उस पत्र को दिया उस उस-उस ने उसे थप्पड़ लगाया। तुम तो पत्नी हो। तुम उस पत्र को पढ़ सकती हो। तुम तो थप्पड़ नहीं लगाओगी?”

लड़की ने घूंघट हटाकर कहा, “कैसी बात करते हैं? मैं भला आपको थप्पड़ मारुंगी? लाइए वो पत्र मैं पढ़ देती हूं।”

आदमी बहुत खुश हुआ। वो उस कमरे में गया जहां संदूक में उसने उस पत्र को रखा था। संदूक खोला। उसमें उसे पत्र नहीं दिखा। काफी उलट-पुलट किया पर पत्र नहीं दिखा। उसने पूरा घर ढूंढ लिया पर पत्र नहीं मिला।

मुझे जो आदमी ये कहानी सुना रहा था, यहां तक सुनाकर चुप हो गया। 

मेरी जिज्ञासा चरम पर थी। लेकिन कहानी सुनाने वाला एकदम चुप हो गया था। मैंने उसके रुक जाने पर पूछा कि फिर क्या हुआ? 

उसने बड़े निर्विकार भाव से कहा, “होना क्या था? होता तो तब जब पत्र मिलता। जब पत्र ही खो गया तो कहानी खत्म हो गयी।”

“कहानी खत्म हो गयी? इसका क्या मतलब हुआ? अरे इतनी देर से इतनी दिलचस्पी लेकर तुम्हारी कहानी सुन रहा था और तुम कह रहे हो कि कहानी खत्म हो गयी। अरे संजय सिन्हा ने तुम्हारी कहानी के चक्कर में अपना दफ्तर छोड़ दिया और तुम कह रहे हो कि पत्र मिला ही नहीं, इसलिए कहानी खत्म। क्या यार?

ये तो दुनिया की सबसे ऊबाऊ कहानी है। तुम इसे किसी और को मत सुनाना। सुनने वाला थप्पड़ लगा देगा। मेरा भी मन कर रहा है कि तुम्हें एक थप्पड़ लगा दूँ। इतना टाइम खराब किया, इस घटिया कहानी के लिए। अरे जिस कहानी का अंत ही न हो, उस कहानी को सुनाया ही क्यों?”

मैं चिड़चिड़ा हो रहा था। “ये भी कोई कहानी है? इसे जितनी देर मर्जी सुनाते रहो, फिर कह दो कि चिट्ठी मिली ही नहीं। बोरिंग।”

आदमी मुस्कुराता रहा। फिर उसने हौसले से कहा, ये तो कहानी थी। एक कहानी अपने मुकाम तक नहीं पहुंची तो तुम इतना खीझ रहे हो। कहानी शुरू तो हुई थी ठीक-ठाक। अंत तक ठीक से नहीं पहुंची इसलिए तुम्हें लग रहा है कि ये कहानी थी ही नहीं। तुम सोचो कई लोगों की जिंदगी ऐसी ही होती है जो मुकाम तक नहीं पहुंचती। कई लोगों को पता ही नहीं होता कि जिंदगी का मकसद क्या है। सबकुछ चलता रहता है और एक दिन खत्म हो जाता है। ये भी समझ में नहीं आता कि ये सब शुरू ही क्यों हुआ था। दुनिया के ज्यादातर लोग इस संसार में उसी चिट्ठी की तरह चले आते हैं। अंत तक उनके लिए ये रहस्य की तरह रह जाता है कि मकसद क्या है। उस आदमी ने कोशिश तो की ये पता लगाने की कि आखिर पत्र में लिखा क्या है। हम तो ये जानने की जहमत भी नहीं उठाते कि हमारी जिंदगी का मकसद क्या है?

हम आते हैं और चले जाते हैं। कभी बहुत दिनों के बाद जब मकसद जानने की हूक उठती भी है तो चिट्ठी का कहीं पता नहीं चलता। 

ऐसे में बहुत बार लगता है कि हमारी जिंदगी उसी चिट्ठी की तरह है। रहस्यों से भरी, बिना मकसद खो जाने वाली।

नोट- मुझे जिसने ये कहानी सुनाई थी, उसे मैं थप्पड़ मारने के मूड में आ गया था। लेकिन उसके इतना कहने के बाद कि हम सबकी जिंदगी उसी चिट्ठी की तरह है, मुझे तो संदेश मिल गया था। उम्मीद है आपको भी मिल ही गया होगा।

(देश मंथन, 31 जनवरी 2015)

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