अकेलापन है सजा

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

हमारे दफ्तर के एक साथी की पत्नी अपने दोनों बच्चों समेत पिछले हफ्ते भर से मायके गयी हैं। 

जिस दिन मेरे साथी की पत्नी मायके जा रही थीं, वो बहुत खुश थे। उन्होंने दफ्तर में बाकायदा एनाउन्स किया कि अब वो दो हफ्ते छड़ा रहेंगे।

छड़ा मतलब बैचलर। वो देर रात तक जागेंगे, सुबह देर तक सोयेंगे, घर में दोस्तों को बुला कर पार्टी करेंगे और आजाद रहेंगे। मतलब दो हफ्ते उनके पास न तो सुबह उठ कर दूध ब्रेड लाने का झंझट, न बिटिया को स्विमिंग क्लास ले जाने की मजबूरी, न समय पर घर पहुँचने की जल्दी, न सब्जी नहीं है कि धुन पर माथा पकड़ने की दरकार। पूरा घर खाली, मतलब फुल मस्ती। 

शुरू के दो दिन हमारे साथ दफ्तर में काम करते हुए कट गये। लेकिन बीच में आ गये शनिवार और रविवार। ये दोनों छुट्टी के दिन। 

मेरे साथी ने इन दो दिनों का इस्तेमाल कैसे किया मुझे नहीं पता। मैंने भी उन्हें इन दो दिनों में फोन करने की जहमत नहीं उठायी। मुझे लगा कि छड़े हैं, तो इन दो दिनों में उनसे दफ्तर की बातें भी क्यों की जायें। जाहिर है ये उनका भाग्य है कि पत्नी उन्हें ‘छड़ा’ छोड़ कर मायके चली गयी हैं। 

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मुझे बहुत खुशी होती अगर हमारे साथी ने रविवार के बाद यानी सोमवार को मुझसे कहा होता कि वो इन दो दिनों की छुट्टी में बहुत खुश रहे।

पर ऐसा दिखा नहीं। दरअसल कल खाने की मेज पर उन्होंने मुझसे कहा कि छुट्टी के ये दो दिन उनके लिए बहुत भारी रहे। उन्होंने मुझे बताया कि बाकी दिन तो दफ्तर में जैसे-तैसे कट जाते हैं, और देर रात घर पहुँचने के बाद बिस्तर पर गिरते ही नींद आ जाती है। लेकिन छुट्टी के इन दो दिनों में उन्हें नींद नहीं आयी। 

उन्हें बार-बार बिटिया की याद सताती रही। कानों में उसकी बातें गूँजती रहीं, “पापा स्विमिंग के लिए कब चलोगे? पापा-पापा रावण के भाई का नाम कुंभकरण क्यों था? पापा तुम दफ्तर में क्या काम करते हो? पापा ये क्यों है? पापा वो क्यों है…?”

बिटिया की आवाज कानों में गूँजनी बन्द हुई, तो बेटे की आवाज कानों में दौड़ने लगी। 

“बाबा, मेरे बाल कब कटेंगे? बाबा, मैं स्कूल जाई-जाई…, बाबा दीदी को डाँटो…।

तीन साल का बालक तेरह साल की दीदी की शिकायत नहीं लगा रहा पिछले हफ्ते भर से। 

बेटे के बाद बारी आयी पत्नी की। 

“अजी दफ्तर से आते हुए थोड़ा पनीर लेते आइएगा। सुनिए, करैला और टिंडा मत लाइएगा। आप खाते ही नहीं।”

मेरा साथी रूंआसा था और बोलता जा रहा था, “सर, पहली बार समझ में आ रहा है कि अकेलापन कितना दुखदायी होता है। पापा, बाबा, अजी सुनिए की आवाज का कानों में नहीं गूँजना किस कदर भीतर तक डंक मारता है। फिर उसने कहा कि सर, ये सच है कि आदमी की जिन्दगी में सबसे बड़ी सजा अकेलापन ही है। जो लोग जेल जाते हैं, उनके लिए सबसे बड़ा दुख परिवार से उनका अलग रहना होता है। सर, जब तक पत्नी घर पर रही मैं हर तीसरे दिन किसी न किसी बात पर उससे झगड़ा कर लेता था। चाहे खाने की बात हो, या दफ्तर से लौटने की बात, पत्नी से ठीक ठाक किचकिच हो जाती थी। इस किचकिच के बाद दो दिनों तक मुँह फुलौवल का खेल चलता, फिर तीसरे दिन वो मुझसे लिपट जाती। 

सर बच्चों के बिना तो घर एकदम काटने को दौड़ रहा है। मन ही नहीं करता कि घर जाऊँ। सर अकेलेपन के सन्नाटे का शोर कान के पर्दे फाड़ देता है।”

ओह! संजय सिन्हा, ये तुम क्या सुन रहे हो? ये तुम्हारा वही साथी है, जिसने पत्नी और बच्चों के बिना खुद को आजाद घोषित किया था। जिसने ये कह कर तमाम साथियों को जलाने की कोशिश की थी कि वो अब दो हफ्तों के लिए ‘छड़ा’ है। 

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आपको याद होगा पिछले साल 16 सितंबर को मैंने अपनी पत्नी के पौधे से प्यार वाली पोस्ट यहाँ फेसबुक पर लिखी थी। मैंने लिखा था कि कैसे मेरी पत्नी ने मुझे समझाया था, “पौधे अकेले में सूख जाते हैं, लेकिन उन्हें अगर किसी और पौधे का साथ मिल जाये तो जी उठते हैं।” इस पोस्ट को भी कई लोगों ने बाद में व्हाट्स ऐप और मेल में मुझे फॉर्वड किया। कई लोगों ने मेरी पोस्ट को अपनी बता कर मुझी से साझा किया। 

आज मेरे पास मौका है अपनी ही लिखी इस कहानी को फिर से उन परिजनों को सुनाने का, जिन्होंने किसी वजह से ये कहानी नहीं सुनी।

16 सितंबर, 2014

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मेरी पत्नी ने कुछ दिनों पहले घर की छत पर कुछ गमले रखवा दिए। फिर किसी नर्सरी से कुछ पौधे मँगवा कर छत पर ही उसने एक छोटा सा गार्डेन बना लिया। वो नियमित रूप से उनमें पानी देती है और माली को बुला कर खाद वगैरह डलवा देती है। शुरू शुरू में मुझे उसकी इस हरकत पर हंसी आई लेकिन ये सोच कर चुप रहा कि चलो कहीं तो अपना दिल लगा रही है। लेकिन पिछले दिनों मैं छत पर गया तो ये देख कर हैरान रह गया कि कई गमलों में फूल खिल गये हैं, नींबू के पौधे में दो नींबू भी लटके हुए हैं, और दो चार हरी मिर्च भी लटकी हुई नजर आयी। 

मैं कुछ देर वहीं छत पर बैठ गया। उन पौधों की ओर देखता रहा। अचानक मैंने देखा कि मेरी पत्नी ने पिछले हफ्ते बाँस का जो पौधा गमले में लगाया था, उस गमले को घसीट कर दूसरे गमले के पास कर रही थी। गमला भारी था, और उसे ऐसा करने में मुश्किल आ रही थी। मैंने उसे रोकते हुए कहा कि गमला वहीं ठीक है, तुम उसे क्यो घसीट रही हो?

पत्नी ने मुझसे कहा कि यहाँ ये बाँस का पौधा सूख रहा है, इसे खिसका कर इस पौधे के पास कर देते हैं। मैं हँस पड़ा और कहा, “अरे पौधा सूख रहा है तो खाद डालो, पानी डालो इसे खिसका कर किसी और पौधे के पास कर देने से क्या होगा?” 

पत्नी ने मुस्कुराते हुए कहा, “ये पौधा यहाँ अकेला है इसलिए मुर्झा रहा है। इसे इस पौधे के पास कर देंगे तो ये फिर लहलहा उठेगा। पौधे अकेले में सूख जाते हैं, लेकिन उन्हें अगर किसी और पौधे का साथ मिल जाए तो जी उठते हैं।”

मेरी पत्नी बोल रही थी और मैं सुन रहा था। क्या सचमुच पौधे अकेले में सूख जाते हैं? क्या सचमुच पौधे को पौधे का साथ चाहिए होता है? 

बहुत अजीब सी बात थी। मेरे लिए ये सुनना ही नया था। लेकिन सुन रहा था और फिर सोच रहा था। पत्नी गमले को खींच कर दूसरे गमले के पास करके खुश हो गयी और मैं उस पौधे की ओर देख कर कहीं खो गया। 

एक-एक कर कई तस्वीरें आँखों के आगे बनती चली गयीं। माँ की मौत के बाद पिताजी कैसे एक ही रात में बूढ़े, बहुत बूढ़े हो गये थे। हालाँकि माँ के जाने के बाद सोलह साल तक वो रहे। लेकिन सूखते हुए पौधे की तरह। माँ के रहते हुए जिस पिताजी को मैंने कभी उदास नही देखा था, वो माँ के जाने के बाद खामोश से हो गए थे। हालाँकि हमारे साथ वो हमारी तरह ही जीते थे, लेकिन कई बार मैंने उन्हें रात के अंधेरे में अकेले सुबकते हुए सुना था। 

मेरी पत्नी कह रही थी, “संजय, अकेले में पौधे सारी रात सुबकते हैं।”

वो कह रही थी कि ये तो तुमने चौथी कक्षा में ही पढ़ लिया होगा कि पौधों में भी जान होती है, और जब जान होती है तो ये हँसते और रोते भी हैं। देखो न मिर्च कैसी लहलहा रही है, नींबू इस छोटे से गमले में भी कैसा फल रहा है। ये सब साथ का असर है। मिर्च के साथ नींबू और नींबू के साथ तरोई, तरोई के साथ सफेद फूल…

बाँस का पौधा जरा अलग सा था तो इसे माली ने अकेले में रख दिया था। माली ने ये सोचने की जहमत भी नहीं उठाई कि इतना छोटा पौधा अकेले में कैसे रह सकता है? देखो तो सही ये अकेला पौधा कितना डरा हुआ सा लग रहा है? बेचारा डर के मारे सूख रहा है। देखना कल से ये पौधा कैसे हरा नजर आने लगता है।

मुझे पत्नी के विश्वास पर पूरा विश्वास हो रहा था। लग रहा था कि सचमुच पौधे अकेले में सूख जाते होंगे। बचपन में मैं एक बार बाजार से एक छोटी सी रंगीन मछली खरीद कर लाया था और उसे शीशे के जार में पानी भर कर रख दिया था। मछली सारा दिन गुमसुम रही। मैंने उसके लिए खाना भी डाला, लेकिन वो चुपचाप इधर-उधर पानी में अनमना सा घूमती रही। सारा खाना जार की तलहटी में जाकर बैठ गया, मछली ने कुछ नहीं खाया। दो दिनों तक वो ऐसे ही रही, और एक सुबह मैंने देखा कि वो पानी की सतह पर उल्टी पड़ी थी। इस एक घटना के बाद मेरे मन से मछली पालने की इच्छा हमेशा के लिए खत्म हो गयी। लेकिन आज मुझे घर में पाली वो छोटी सी मछली याद आ रही थी। बचपन में किसी ने मुझे ये नहीं बताया था कि एक मछली कभी बहुत दिनों तक नहीं जीती। अगर मालूम होता तो कम से कम दो या तीन या और ढेर सारी मछलियाँ खरीद लाता और मेरी वो प्यारी मछली यूँ तन्हा न मर जाती। 

मुझे लगता है कि संसार में किसी को अकेलापन पसन्द नहीं। आदमी हो या पौधा, हर किसी को किसी न किसी के साथ की जरूरत होती है। 

आप अपने आसपास झाँकिए, अगर कहीं कोई अकेला दिखे तो उसे अपना साथ दीजिए, उसे मुर्झाने से बचाइए। अगर आप अकेले हों, तो आप भी किसी का साथ लीजिए, आप खुद को भी मुर्झाने से रोकिए। पहले भी लिखा था, आज दुहरा रहा हूँ कि अकेलापन संसार में सबसे बड़ी सजा है। 

गमले के पौधे को तो हाथ से खींच कर एक दूसरे पौधे के पास किया जा सकता है। लेकिन आदमी को करीब लाने के लिए जरूरत होती है रिश्तों को समझने की, सहेजने की और समेटने की। 

अगर मन के किसी कोने में आपको लगे कि जिन्दगी का रस सूख रहा है, जीवन मुर्झा रहा है तो उस पर रिश्तों के प्यार का रस डालिए। खुश रहिए और मुस्कुराइए। कोई यूँ ही किसी और की गलती से आपसे दूर हो गया हो तो उसे अपने करीब लाने की कोशिश कीजिए और हो जाइए हरा-भरा।

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मैं जानता हूँ कि मेरा साथी अब फिर कभी छड़ा रहने का जश्न नहीं मनायेगा। वो समझ चुका है रिश्तों की अहमियत। वो समझ चुका है कि अकेले रहना आजादी नहीं होती। अकेलापन सजा होती है। 

पत्नी का मुँह फुलाना वह सह लेगा, पर उसका दूर जाना नहीं सह सकेगा।

(देश मंथन, 27 मई 2015)

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