विकल्प न हो तो, जो है उसमें खुश रहिये

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

मेरे फुफेरे भाई के पास एक जोड़ी हवाई चप्पल थी। चप्पल क्या, समझिए ऊपर रंग उतरा हुआ फीता था, नीचे घिसी हुई ऐड़ी थी। ऐड़ी इतनी घिसी हुई कि पाँव फर्श छूता था। लेकिन थी चप्पल।

उन्हें उस चप्पल से बहुत प्यार नहीं था। न उस चप्पल से उनकी कोई ऐसी याद ही जुड़ी थी कि उसे वो छाती से सहेज कर रखते। पर चप्पल पाँव की इज्जत बचाने का काम चला रही थी। एक दफा मैं उनसे मिलने गया और उन्हें उस चप्पल को पहने देखा तो बहुत बुरा लगा। मैंने उनसे पूछा, “भइया, आप इस चप्पल को फेंक क्यों नहीं देते?”

भइया ने कहा, “क्यों, इसमें क्या बुराई है? हवाई चप्पल है, तीन साल पहले बीस रुपये में खरीद कर लाया था, अब इसे फेंक क्यों दूँ? चप्पल टूटी भी नहीं है।”

“आप इसे नहीं फेंकेंगे, तो मैं ही फेक दूँगा।” 

“फेंक दोगे, फिर मैं क्या पहनूँगा? क्या मैं नंगे पाँव रहूँगा?”

“लेकिन भइया, इस चप्पल की कीमत तो आज दो कौड़ी भी नहीं है।”

***

“संजू, मेरे प्यारे भाई, जिन्दगी को इस तरह कीमतों में नहीं तौलते। माना कि आज इस चप्पल की कीमत दो कौड़ी भी नहीं। कहीं सड़क पर फेंक आऊँ, तो भिखारी भी इसे नहीं उठाएगा। लेकिन तुम ध्यान से देखो और ध्यान से सोचो। आज इस चप्पल को मैं फेंक दूँ, तो मुझे अभी तुरन्त एक हवाई चप्पल की जरूरत पड़ेगी। मतलब मुझे बाजार जाकर पहले एक जोड़ी चप्पल खरीदनी होगी। जब मैंने चप्पल ली थी, तब इसकी कीमत बीस रुपये थी, पर अब लगता है कि तीस रुपये हो गयी होगी। मतलब ये कि मुझे तत्काल तीस रुपये खर्चने होंगे। 

आज मैं जब इस चप्पल को पहन कर चलता हूँ, तो बेशक ये घिसी हुई और पुरानी दिखती है, लेकिन पाँव में चप्पल दिखती तो है! कहीं जाने के बाद कोई ये तो नहीं कहता कि नंगे पाँव आया हूँ। और अभी लगातार पहनता रहा तो कम से कम दो महीने और चलेगी ये चप्पल। सोचो, मैं इसे फेंक दूँ, क्योंकि तुम्हारी भाषा में इसकी कीमत कुछ नहीं, लेकिन बाजार की भाषा में मेरी यह चप्पल कम से कम तीस रुपये की है। आज अगर चप्पल को फेंक दूँ, तो मुझे दूसरी चप्पल कौन खरीद कर देगा? सच बात ये है मेरे भाई कि जब तक विकल्प नहीं हो, तो जो हो उससे खुश रहना चाहिए। 

यही है जिन्दगी का फलसफा।”

***

कई साल पुरानी बात है। मेरी एक चाची अपने घर में रोज नौकरानी से लड़ पड़ती थीं। कभी कहतीं, ये काम ठीक नहीं हुआ, वो काम ठीक नहीं हुआ। फर्श तो देखो, यहाँ मिट्टी रह गयी है, वहा मिट्टी रह गयी है। चाची के घर काम वाली पचास रुपये महीने के लेती थी और बिना नागा रोज आती थी। काम वाली आ जाती तो समझिए कि उनका पूरा बिखरा घर दुरुस्त हो जाता। वो सारे जूठे बरतन धो देती, रसोई साफ कर देती, मसाले पीस देती, सब्जियाँ भी काट देती, घर की सफाई कर देती। उसका आना मतलब घर सारे दिन के लिए ठीक। लेकिन चाची को लगता कि पचास रुपये लेती है, तो ये भी ठीक कर दे, वो भी ठीक कर दे। पता नहीं क्या-क्या ठीक कर दे।

और चाची उसे तुनक कर हड़कातीं। 

एक दिन काम वाली गुस्से में उनके घर का काम छोड़ कर चली गयी। 

***

मैं चाची के घर गया था। चाची सुबह से माथा पीट रही थीं। दूसरी काम वाली उतने पैसों में उन्हें मिली नहीं और अब सुबह उठ कर बरतन धोने से लेकर झाड़ू, चौका, बिस्तर उनके माथे पर चला आया। चाची सुबह से रसोई में लगी थीं। 

मैंने उनसे पूछा कि काम वाली क्यों छोड़ गयी? चाची ने कहा, “पूछ मत संजय बेटा। कोई काम ढंग से नहीं करती थी। फर्श काले पड़ गये थे। एक दिन डांटा तो छोड़ कर भाग गयी।”

मैंने कहा कि आप दूसरी काम वाली रख लो।

“अरे दूसरी मिलती कहाँ हैं? और मिलती भी हैं तो महँगी मिलती हैं। फिर उन्हें शुरू से समझाओ कि ये करना है, ये नहीं करना है। अब तो मैं भारी मुसीबत में हूँ। कई दिनों से इसी चक्कर में तुम्हारे चाचा के लिए लंच भी नहीं पैक कर पा रही हूँ। बेचारे ऑफिस की कैंटीन में खाते हैं। बहुत परेशानी है।”

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बहुत कमाल की बात थी। पचास रुपये महीने पर काम करने वाली एक महिला ने चाची की जिन्दगी को उलझा कर रख दिया था। 

मैंने चाची को बुआ के बेटे की हवाई चप्पल वाली पूरी कहानी सुनायी। कहा कि जब तक विकल्प न हो, उसे नहीं हटाना चाहिए था। कहने को काम वाली चली गयी है, लेकिन आपने अपनी खुद की जिन्दगी पचास रुपये की काम वाली में तब्दील करके रख ली है। जो काम पचास रुपये में हो रहा था, उसे होते रहने देना चाहिए था। या तो आपके पास बेहतर विकल्प होता, नहीं तो जो था उसी में खुश रहना चाहिए था। माना कि वो रोज बहुत रगड़-रगड़ कर फर्श बहुत साफ नहीं करती थी, लेकिन कुछ तो साफ करती थी। हफ्ते-महीने में उसके साथ मिल कर आप ये सफाई करा लेतीं, तो वो खुशी से वो भी कर देती। और सबसे बड़ी बात कि वो इतने दिनों से आपके घर में परिवार की तरह हो गयी थी। उसे पता था कि आपकी क्या जरूरतें हैं, कब क्या करना है। वो छुट्टी नहीं करती थी। और उसकी ईमानदारी पर आपको संदेह नहीं था।”

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चाची ने पूछा कि उस चप्पल का क्या हुआ?

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वो चप्पल भइया का साथ देती रही। बहुत दिनों तक देती रही। उसने इतना साथ दिया कि मेरे दो नये चप्पल टूट गये पर उनकी वो चप्पल चलती रही। अब सुना है कि उन्होंने नयी चप्पल ले ली है। चाहे सब लोग उन्हें कंजूस कहें, लेकिन मुझे उनकी ये बात बहुत भीतर तक छू गयी कि जब तक विकल्प न हो, जो हो उसी में खुश रहना चाहिए। मतलब जो है, वो है। 

***

अब आप पूछेंगे कि उस काम वाली का क्या हुआ?

अरे! उसी शाम काम वाली के किसी को घर भिजवा कर चाची ने उसे बुलवा लिया। वो घर आयी तो, वो चाची उससे कह रही थीं, “इतना पुराना घर कहीं ऐसे छोड़ा जाता है? और डांट दिया तो कौन सी बड़ी बात हो गई? मैं चाचा को भी डांट देती हूँ, तो क्या चाचा घर छोड़ कर चले जाते हैं? 

कहने की दरकार नहीं कि उसके बाद भी चाची का डाँटना कम नहीं हुआ, पर काम वाली उसके बाद घर छोड़ कर नहीं गयी। 

***

आप भी सोचते होंगे कि मैं कहाँ के तीर कहाँ छोड़ने बैठ जाता हूँ हर सुबह। 

पर क्या करूँ। स्कूल में मास्टर ने जो पढ़ाया था, जिन्दगी की गाड़ी उससे नहीं चल रही। जिन्दगी की गाड़ी तो घर के छोटे-बड़ों ने जो सिखा दिया उससे चल रही है। 

मेरी चिन्ता ये है कि आजकल के बच्चों के पास रिश्तों का ऐसा कारवाँ नहीं, तो क्या वो जीवन के वो सभी पाठ पढ़ पाएँगे, जिसे मेरे फुफेरे भाई ने फटी चप्पल से मुझे पढ़ा दिया था, और मैंने उस चप्पल की कहानी से चाची को।

(देश मंथन 09 जुलाई 2015)

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