प्यार के बीज

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

मेरी तीन नानियाँ थीं। तीन नहीं, चार। 

चार में से एक नानी मेरी माँ की माँ थी और बाकी तीन मेरी माँ की चाचियाँ थीं। माँ तीनों चाचियों को बड़की अम्मा, मंझली अम्मा और छोटकी अम्मा बुलाती थी, इसलिए माँ की तीनों अम्माएँ मेरी बड़की नानी, मंझली नानी और छोटकी नानी हुईं। बचपन में मुझे ऐसा लगता था कि चारों मेरी माँ की माँएं हैं और इस तरह मेरी चार नानियाँ हैं। पर मैंने पहली लाइन में ऐसा इसलिए लिखा है कि मेरी तीन नानियाँ थीं, क्योंकि मेरी माँ की माँ के इस दुनिया से चले जाने के बाद मुझे अपनी उन तीन नानियों के साथ रहने का ज्यादा मौका मिला, जो माँ की चाचियाँ थीं। 

थीं तो वो तीनों मेरी माँ की चाचियाँ, पर क्या मजाल जो उनके व्यवहार से किसी को लग जाए कि वो माँ की माँ नहीं थीं। तीनों माँ को बहुत प्यार करतीं। मुझे बहुत प्यार करतीं। खास कर मेरी माँ की बीमारी में उन तीनों नानियों ने माँ की जिस तरह सेवा की, उसके बाद तो मेरे मन में ये बात बैठ गयी थी कि वो तीनों माँ की चाची नहीं माँ ही हैं। 

तीनों महिलाएँ अलग-अलग घरों से आई थीं। उन्हें हमसे तो बहुत प्यार था, पर आपस में तीनों खूब उलझा करती थीं। किसी भी बात पर। 

तुमने चाय में चीनी ज्यादा क्यों डाली? तुमने सुबह चाय पहले अपने पति को क्यों दी? आज खाना बनाने का टर्न तुम्हारा था, तो तुमने सिर दर्द का बहाना कर लिया। और इस तरह तीनों बात-बात में आपस में उलझ जातीं। और जब उलझ जातीं तो फिर उन्हें शांत करना बहुत मुश्किल काम होता। 

हालाँकि ऐसा बहुत कम होता था। पर जब भी ऐसा होता, माँ अपनी चाचियों की इस तू-तू मैं-मैं के बीच पड़ती और कहती कि आपस में झगड़ा नहीं करना चाहिए। अरे, चाय में चीनी ज़्यादा पड़ गयी तो दूसरी चाय बना लो। और उसने अपने पति को पहले पूछ लिया तो क्या तूफान मच गया, जो पहले सामने पड़ गया, उसे पहले पूछ लिया। 

माँ की बातें सुन कर नानियाँ चुप तो हो जातीं, पर एक नानी जो हैंडपंप पर बर्तन धो रही होती, वो वहीं से बर्तन पर अपनी नाराजगी निकालती नजर आती। बर्तनों के खड़कने की ज़ोर से आवाज आती, तो दूसरी नानी जो चूल्हा जला रही होती, वो वहीं से गरजती कि सारा गुस्सा बर्तन पर निकालोगी क्या? और तीसरी नानी जो सब्जी काट रही होती, वो सब्जी काटना छोड़ कर फिर चाय और चीनी का मुद्दा लेकर उठ खड़ी होतीं। 

और फिर शुरू हो जाती नानियों की चिक-चिक। 

कभी-कभी मामला इस हद तक पहुँच जाता कि नानियाँ कसमें खाने लगतीं कि आज के बाद अगर कभी मैंने तुमसे बात की, तो दुनिया मेरा मरा मुँह देखेगी। जब मामला इतना संवेदनशील हो जाता तो किसी न किसी को बीच में कूदना ही पड़ता। 

जो बीच में कूदता, वो उन तीनों नानियों को समझाता कि अरे जब एक गुस्से में हो तो दूसरे को चुप हो जाना चाहिए। दोनों के बोलने से बात छिल जाती है। चुप कराने वाला जैसे ही ये बोलता, तीनों नानियाँ उसकी ओर मुड़ जातीं और कहतीं कि तुम ठीक कह रहे हो, जब एक बोले तो दूसरे को चुप हो जाना चाहिए। 

“हाँ, चुप हो जाना चाहिए। तो जब एक को चुप होना चाहिए तो फिर इससे कहो कि ये चुप हो जाए।”

“अरे, मैं इससे बड़ी हूँ, मैं बोलूँगी, इसे चुप हो कर सुनना चाहिए।” 

“क्यों? मैं ही क्यों चुप हो जाऊँ? उस दिन भी तुमने मुझे ही चुप होने को कहा था। आज तुम चुप हो जाओ।”

***

उन दिनों फेसबुक नहीं था। पर परिवार था। तीन अलग-अलग घरों से आई महिलाएँ एक घर में आकर एक परिवार बन गयी थीं। तीनों महिलाओं का आपस में रक्त का संबंध नहीं था। पर तीनों एक थीं। तीनों लड़ती थीं, लेकिन तीनों का दिल एक दूसरे के लिए धड़कता था। एक नानी की तबियत खराब होती, तो सुबह उसे भला-बुरा कहने वाली दूसरी नानी उसकी तिमारदारी में जुट जाती। 

मेरी तीनों नानियाँ समय के साथ आसमान में विलीन हो गयीं। जब वो चली गयीं तो आसमान से इंटरनेट हमारे पास आया। 

यहाँ हमने एक परिवार बनाया। परिवार ऐसे लोगों को जोड़ कर बना, जिनका आपस मे किसी तरह का रक्त संबंध नहीं। पर संबंध ऐसा कि एक दूसरे के लिए दिल धड़कता है। यहाँ भी मोदी के पक्ष में, मोदी के विपक्ष में, भगवान के पक्ष में, भगवान के विपक्ष में, फलाँ की तारीफ, फलाँ की निंदा, इसको ये कहा, उसको क्यों नहीं कहा, केजरीवाल को अच्छा कैसे बोला, केजरीवाल को बुरा क्यों बोला, पर्यावरण समाज की सबसे बड़ी चिंता है, नहीं रोटी सबसे बड़ी चिंता है। पानी पर क्यों नहीं लिखा, राजनीति पर क्यों लिखा, राजनीति पर क्यों नहीं लिखते, सिनेमा पर क्यों लिखते हो, मुसलमानों पर क्यों लिखा, मुसलमानों पर क्यों नहीं लिखा, ऐसी ढेरों बातें हैं जिन्हें ले कर कुछ परिजन मेरी नानियों की तरह आपस में लड़ते-भिड़ते हैं। 

***

कोई मुझे कोसता है कि ये सिर्फ अमीरों पर लिखेंगे, गरीबों से इनका कोई सरोकार नहीं। कोई एक मुद्दा लेकर कहेगा इस पर कुछ बोलिए। नहीं बोलने पर फतवा जारी कर देगा। कुछ लोग अपना बहुत कीमती वक्त इशारों में मुझे समझाने में खर्च करते नजर आएँगे, तो कुछ लोग मेरी ही वाल पर आकर भला-बुरा कह जाएँगे। 

मैं तो अपनी माँ का बेटा हूँ। मुझे पता है कि झगड़े में एक को चुप हो जाना चाहिए, और वो चुप्पी मैं ही ओढ़ लेता हूँ। हालाँकि इस पर भी नानियों को चैन नहीं, मुझे मौनी बाबा कह कर चिढ़ाती हैं। पर मेरी माँ ने कहा था कि एक को चुप रहना चाहिए, तो वो मैं वो एक बन जाता हूँ। 

पर संजय सिन्हा फेसबुक परिवार की कुछ नानियाँ जब आपस में झगड़ पड़ती हैं, तो मुझे दुख होता है। 

कोई मुझसे लड़ ले, मैं परेशान नहीं होता, पर आप आपस में मत लड़िए। और अगर लड़ लिए तो कोई बात नहीं, शाम को एक हो जाइए। 

कहा न, जिन्दगी बहुत छोटी होती है। अपुन के पास नफरत के लिए टाइम कम है। प्यार से फुर्सत मिलने पर अपुन नफरत की फसल बोने की सोचेंगे। फिलहाल तो प्यार के बीज ही छिड़कने दीजिए, क्योंकि माँ ने कहा था संसार प्यार से चलता है, नफरत से नहीं। 

‪(देश मंथन, 13 अप्रैल 2016)

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