संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मैं अपनी माँ का बेटा हूँ।
कल मुझसे किसी ने पूछ लिया कि मेरी माँ का क्या नाम था। मैं थोड़ी देर तक सोचता रहा। मेरी माँ का नाम क्या था? क्या माँ का भी कोई नाम होता है? नाम तो पिता का होता है। पिता को नाम की जरूरत होती है। पिता को प्रमाण की जरूरत होती है। माँ तो सत्य है। माँ सार्वभौमिक है।
पूछने वाले से मैंने पूछा कि क्या माँ का भी कोई नाम होता है?
वो सोच में पड़ गया।
मैंने पूछा कि किस माँ का नाम बताऊँ? मुझे तुम्हारी माँ अपनी माँ लगती है। मुझे संसार की हर माँ अपनी माँ लगती है। फिर तो मेरी माँ का कोई नाम नहीं हो सकता। राम कृष्ण परमहंस को पत्नी में माँ नजर आने लगी थीं। पर उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि उनकी माँ का नाम शारदा देवी था। शारदा देवी परमहंस की पत्नी का नाम था।
क्या विडंबना थी। पत्नी में माँ दिखती थी, पर शारदा देवी माँ नहीं थीं।
यही होता है जब हम भाव प्रबल हो जाते हैं। जब हम भाव प्रबल हो जाते हैं, तो नाम अपनी अहमियत खो बैठता है। नाम की दरकार उस रिश्ते में पड़ती है, जहाँ भाव प्रबल नहीं होता। मुझे नहीं याद कि मेरे मुँह से पहला शब्द जो निकला था, वो माँ ही क्यों था। मेरे सामने बड़ी सी बिंदी लगाए, गोरी सी, पतली सी, एक लंबी सी महिला बैठी थी, उसकी आँखों से अनवरत प्यार बरस रहा था। मुझसे उसका परिचय किसी ने नहीं कराया था। उसने खुद भी कभी अपना परिचय मुझे नहीं दिया था। पर उसकी ओर देख कर मेरे मुँह से जो पहला शब्द निकला था, वो माँ था।
मैंने उसे माँ कहा था, उस महिला ने मेरे कहे का प्रतिवाद नहीं किया। उसने मुझे अपनी गोद में भींच लिया था। मतलब मेरा दिया नाम उसे स्वीकार था।
फिर वो महिला एक दिन इस संसार से चली गयी।
मैं अपने एक दोस्त के घर गया था। वहाँ भी मुझे एक महिला दिखी। मैंने उसे भी माँ बुलाया था। उसने मुड़ कर मेरी ओर देखा था, उसने मेरे कहे का प्रतिवाद नहीं किया था। उसने मेरे सिर पर हाथ रख कर लंबी उम्र का आशीर्वाद दिया था।
फिर मैं जहाँ-जहाँ गया, मुझे वो महिला कहीं न कहीं दिख ही जाती थी। मैंने कभी उससे उसका नाम नहीं पूछा। मैंने बस माँ कहा, उसने मेरी ओर मुस्कुरा कर देखा और अपना सारा प्यार मुझ पर लुटा दिया। न जाने मुझे कहाँ-कहाँ कितनी माँएं मिलीं। मुझे उन सबका नाम थोड़े ही न पता है। मैंने तो बस माँ कहा और उसने मेरा प्रतिवाद नहीं किया, फिर तो उसका नाम ‘माँ’ ही हुआ न!
परमहंस की पत्नी को बहुत उम्मीद थी कि वो उन्हें नाम से पहचानेंगे। इसी उम्मीद में उन्होंने अपने पति से पूछ लिया था कि मुझमें आपको क्या दिखता है। परमहंस ने पल भर को आँखें बंद कीं और कहा-माँ।
औरत चाहे बहन के रूप में हो, चाहे पत्नी के रूप में या फिर प्रेयसी के रूप में, मातृत्व उसका पहला रूप होता है और मातृत्व ही उसका आखिरी रूप भी होता है।
हम चाहे जिस रूप में उसके साथ जिएँ, पर जब हम औरत में माँ को तलाश लेते हैं, और औरत मातृत्व के भाव को जीने लगती है, तो मानव अपने उत्थान के चरम पर पहुँच जाता है।
मैं अभी उत्थान के चरम पर नहीं पहुँचा हूँ। पर एक सच यह भी है कि मुझे अपनी माँ का नाम नहीं पता।
मैं पिछले दिनों जब हरदोई गया था, तब मैंने वहाँ कहा था कि इस संसार में किसी का रिश्ता अगर सबसे बड़ा होता है, तो वो है पति-पत्नी का रिश्ता। कई लोगों ने मुझसे बाद में इसका मतलब भी पूछा था कि दिन रात माँ को याद करने वाला मैं, संजय सिन्हा क्यों और कैसे हरदोई में जाकर यह कह आया कि पति-पत्नी का रिश्ता सबसे अनमोल रिश्ता होता है। मैं अपने कहे का अर्थ बताऊँगा। अगर याद रहा तो कल ही बताऊँगा।
पर आज तो सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि पुरुष को औरत में जब माँ दिखने लगती है तो पुरुष खुद को भावों से भरा हुआ पाता है। भाव ऐसे, जहाँ नफरत और हिंसा नहीं होती। प्यार होता है।
और यह तो आप भी जानते हैं कि प्यार सिर्फ प्यार होता है, प्यार का कोई नाम नहीं होता।
(देश मंथन, 21 मार्च 2016)