संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
कल मैंने वादा किया था कि उस बच्चे की कहानी जरूर सुनाऊँगा, जिसकी कहानी मैंने चौथी कक्षा में पढ़ी थी।
मुझे पूरा यकीन है कि आज जो कहानी मैं आपसे साझा करने जा रहा हूँ, वो आप सबने अपने-अपने बचपन में पढ़ी होगी। पढ़ी क्या होगी, जी होगी। आखिर हम सब कभी न कभी बच्चे ही तो थे। हम सभी को अपने पिता की बाँहों में झूलने का सौभाग्य मिला ही है। हम सभी ने अपने-अपने पिता से पूछा ही है कि बाबा, ये क्या है? बाबा, वो क्या है? बाबा, चंदा मामा रात में ही क्यों आते हैं? बाबा, सितारे क्यों टिमटिमाते हैं? बाबा, हवाई जहाज कैसे उड़ता है? बाबा, कौआ काला क्यों होता है?
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बस मेरी कहानी आज कौए पर आकर रुक जाती है।
हम सबने ये कहानी पढ़ी है। पर आज मैं उस बेटे के लिए ये कहानी दुहरा रहा हूँ, जिसके पिता ने मुझसे अनुरोध किया है कि मैं उनके बेटे को समझाऊँ कि वो उनकी बात सुने, उनकी बात समझे। पिता का कहना है कि बेटा अब उनकी बात बिल्कुल नहीं सुनता। वो अपने कुछ बिगड़े हुए दोस्तों के साथ गलत राह पर चल पड़ा है। पिता से कोई बात साझा नहीं करता, पूछने पर उन्हें ही डपट देता है।
बहुत बड़ी विडंबना है। आदमी सारी दुनिया पर राज कर लेता है, पर अपनी ही संतान के आगे हार जाता है।
आज मैं उस हारे हुए पिता के बेटे के नाम बचपन में पढ़ी कहानी को साझा करना चाहता हूँ। मैं उस बेटे को बताना चाहता हूँ कि वो जो कर रहा है, उससे न सिर्फ पिता के दिल को ठेस पहुँचेगी, बल्कि बेटे की पूरी जिन्दगी बर्बाद हो जाएगी।
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बस, बहुत हुआ ज्ञान, संजय सिन्हा। अब सीधे-सीधे वो कौआ वाली कहानी सुना दो, जिसे सुनाने के लिए तुम कल से बेचैन हो। उम्मीद है कि कौए वाली कहानी सुन कर बेटा शायद पिता की बातें सुनने लगे। समझ जाए कि पिता अगर कुछ कहते हैं, कुछ पूछते हैं, कुछ जानना चाहते हैं, तो ये उनका हक है।
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एक छोटा बच्चा घर के आँगन में आये एक कौए को देख कर बहुत उत्साहित था। बच्चा पिता की गोद में बैठा था और आँगन में फुदक रहे कौए को देख कर खुश हो रहा था। बच्चे ने अपने पिता से पूछा कि बाबा, ये क्या है?
पिता ने कहा, “ये कौआ है, बेटा।”
बेटा कौए को देखने में खो गया। कौआ मस्त भाव से आँगन में इधर-उधर बिखरे अनाज के दानों को चुग रहा था।
बेटा पिता के सीने से लिपटता हुआ फिर बोला, “ये क्या है बाबा?”
पिता ने फिर कहा, “ये कौआ है, बेटा।”
बेटा फिर खेलने में मस्त हो गया। अचानक उसने फिर पूछा, “बाबा, ये क्या है?”
“ये कौआ है, बेटा।”
धीरे-धीरे ये खेल बन गया। बेटा बार-बार पिता से पूछता कि ये क्या है और पिता बार-बार जवाब देता कि ये कौआ है। ऐसा एक भी मौका नहीं आया जब पिता बेटे के सवाल पर खीझा हो, चिढ़ा हो।
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बेटा बड़ा हो गया। पिता बूढ़ा हो गया।
एक दिन घर पर कोई आया। पिता ने पूछा कि कौन आया है, बेटा?
बेटे ने वहीं से जवाब दिया कि शर्मा जी हैं।
पिता ने नहीं सुना।
उन्होंने कमरे में लेटे-लेटे दुबारा पूछा कि कोई आया है क्या, बेटा?
बेटे ने वहीं शर्मा जी के सामने दरवाजे पर खड़े-खड़े चीख कर कहा कि कौन आया है, आकर बाहर देख लीजिए। कमरे से चिल्ला कर क्या बार-बार एक ही सवाल पूछे जा रहे हैं? इतनी उम्र हो गयी है, सवाल खत्म ही नहीं होते।
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पिता और उसके बेटे का रिश्ता बड़ा अजीब होता है।
बेटियाँ अगर पिता के लिए नैतिकता होती हैं, तो बेटे पिता का हौसला होते हैं। ऐसा नहीं है कि पिता का ये हौसला एक दिन में बनाता है, ये उनकी वर्षों की तपस्या का फल होता है।
तपस्या का फल वरदान की जगह शाप बन जाए, तो सोचिए कैसा लगेगा।
(देश मंथन, 24 दिसंबर 2015)