मोतियों की तरह रिश्तों को संभालिए

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

मेरे एक परिचित के दोनों बच्चे गर्मी की छुट्टियों में स्कूल से कहीं घूमने गये हैं। बच्चे हफ्ते भर से बाहर हैं, पति-पत्नी अकेले-अकेले बैठे रहते हैं, ऐसे में उन्होंने तय किया कि कुछ लोगों को घर बुलाया जाए, पार्टी की जाए। बहुत ही बेहतरीन आइडिया था। रोज-रोज की भाग-दौड़ भरी जिन्दगी से थोड़ी राहत मिलेगी और जिनसे पता नहीं कब से नहीं मिले, उनसे मिलना हो जाएगा।

मेरे परिचित ने मुझे फोन किया कि शनिवार को पार्टी है, आप पत्नी के साथ आ जाइएगा। मैंने फोन पर यह जानने की कोशिश की कि कोई खास वजह है क्या? बहुत खोजबीन करने पर यही पता चला कि बच्चे बाहर गये हैं, घर में कोई और है नहीं, तो इसे ही समय का सदुपयोग माना गया।
मैं खुश हुआ कि चलो मेरे परिचित ने अपनी बहुत व्यस्त जिन्दगी से कुछ समय खुद के लिए निकाला, दोस्तों के लिए निकाला। मेरे परिचित बहुत व्यस्त रहते हैं और यह सच है कि उनके पास लोगों से मिलने-जुलने का बिल्कुल भी समय नहीं। उनकी व्यस्तता देख कर कई बार मुझे ही घबराहट होने लगती थी, पर वो पैसा कमाने में इस कदर व्यस्त रहे कि उन्हें पता ही नहीं चला कि उनके अपने जानने वाले कब बहुत पीछे छूट गये। इसका पता हम दोनों को कल चला।
मुझे बुलाने के बाद उन्होंने मुझ से ही पूछा कि यार, और किसको बुलाया जाए?
मैंने कहा कि पार्टी आप देना चाह रहे हैं, गेस्ट भी तो आपके ही होंगे।
हाँ, गेस्ट तो मेरे ही होंगे पर समझ में नहीं आ रहा। बिजनेस मीटिंग तो मैंने बहुत की हैं, पर ये घर वाली पार्टी में तो समझ ही नहीं आ रहा किसे बुलाऊं। मैंने तो घर पर कई सालों से किसी कोन नहीं बुलाया। सच कहूँ तो मैं खुद ही किसी के घर पार्टी में नहीं गया। मुझे लोग पहले बर्थ डे, मैरिज एनिवर्सरी में बुलाते थे, तो मैं हँसता था कि कितना समय है लोगों के पास? मैं कभी किसी पार्टी में गया ही नहीं।
“और अब आप लोगों को बुलाना चाह रहे हैं, तो आपकी समझ में ही नहीं आ रहा कि किसे बुलाया जाये।”
“बिल्कुल सही।”
“फिर पार्टी कैसे होगी? छोड़ दीजिए पार्टी।”
“नहीं। बच्चे नहीं हैं। घर पर मन नहीं लगता। दिन तो बाहर कट जाता है, पर शाम मुश्किल भरी हैं। इतना बड़ा घर है, आते ही सन्नाटा पसर जाता है। ऐसा लग रहा है कि पिछले कुछ वर्षों में मैं रिश्तों से कट गया हूँ। अब तो मेरे फोन की जितनी भी घंटियाँ बजती हैं, सब की सब सिर्फ बिजनेस रिलेटेड होती हैं। अपने दिल की किसी से कहे और किसी के दिल की सुने बहुत साल बीत गये हैं। पहले मैं इसे अपनी व्यस्तता कह कर दुनिया को चिढ़ाता था कि देखो मैं कितना व्यस्त हूँ। पर अब मैं खुद ही चिढ़ता हूँ कि मैं इतना व्यस्त क्यों हूँ।
संजय, पैसे कमाने के चक्कर में रिश्तों की डोर बहुत पीछे कहीं छूट गयी है। और अब मुझे बचैनी सी होने लगी है।”
***
तय हुआ कि कुछ कॉमन लोगों को मैं भी फोन करूं, कुछ को उनकी पत्नी बुला लें और कुछ को वो खुद।
कल शाम मैं पार्टी में गया।
घर में एक गायक को बुलाया गया था। ढेर सारे लोगों के खाने-पीने का इंतजाम किया गया। सबको समय दिया गया शाम आठ बजे का। हमारे हिसाब से पचास लोग आने चाहिए थे।
अब सुनिए। मैं तो पहुँच गया।
गाने वाला गाना गाता रहा, करीब आधे घंटे बाद घंटी बजी तो एक व्यक्ति कोई और आया। हमने नमस्ते-नमस्ते की और बैठ गये। दस मिनट बाद कोई और आया और फिर सन्नाटा पसर गया। समझ में नहीं आया कि कोई आया क्यों नहीं। एक दो लोगों को फोन भी किया गया तो पता चला कि कल तेज बारिश और आँधी आयी तो कई लोगों का आना उसी में टल गया। कई लोगों को लगा कि पार्टी में क्या जाना। समय बरबाद होगा।
इस तरह बमुश्किल पाँच लोग आये उस पार्टी में।
मैं देर रात तक अपने परिचित के साथ बैठा रहा। हमने बहुत मींमासा की जिन्दगी की।
ऐसा क्यों हुआ?
ऐसा इसलिए हुआ कि महानगर में सचमुच आदमी तन्हा हो चला है। पहले लोगों ने व्यस्तता में रिश्तों की डोर ढीली की। फिर धीरे-धीरे ये डोर टूटने लगे। अब जब जब आदमी किसी का साथ चाह रहा है, तो लोग नहीं मिल रहे।
मुझे लगता है कि जल्दी ही आदमी को अपना अकेलापन दूर करने के लिए किराये पर लोग बुलाने की नौबत आने वाली है। जिस तेज गति से हमने अपने दिलों के रिश्तों को रौंदा है, उसमें एक दिन यही होना था।
कल जो हुआ मैं उसका गवाह हूँ। अगर आपने भी समय की व्यस्तता में रिश्तों के पौधों को बहुत दिनों से पानी नहीं डाला तो आज से ही शुरू हो जाइए, क्योंकि अगर आप सोच रहे हैं कि एक दिन आप फोन करेंगे और लोग आपकी घंटी सुन कर चले आएंगे, तो आप गलत हैं। आप व्यस्त हैं, तो सभी व्यस्त हैं। आपके पास मिलने का समय है, तो सभी के पास मिलने का समय है।
पर कहते हैं कि कि अगर आप किसी से प्यार करते हैं, तो समय-समय पर इसे जताते रहना जरूरी है।
रिश्तों को संभालिए मोतियों की तरह। कोई गिर जाए तो उठा लीजिए झुक कर। 
(देश मंथन, 29 मई 2016)

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