अपने कर्म के सिद्धान्त को अमल में लायें

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

माँ, कल आपने कहा था कि मैं बहुत सी कहानियाँ सुनाऊँगी।”

“हाँ-हाँ, क्यों नहीं। अपने राजा बेटा को नहीं सुनाऊँगी तो किसे सुनाऊँगी।

बताओ आज कौन सी कहानी सुनोगे? तुमने तो कल बहुत से सवाल पूछे थे। रामायण क्यों लिखी गई, अहिल्या पत्थर क्यों बन गई, राम ने अहिल्या का उद्धार क्यों किया, रावण ने सीता का अपहरण क्यों किया। बताओ आज कौन सी कहानी सुनोगे?”

“माँ, कोई भी कहानी सुना दो। लेकिन पहले मुझे ये बताओ कि फेसबुक पर मेरे कई परिजन ये क्यों नहीं मानते कि गलत-गलत होता है, सही सही होता है। क्यों उनके मन में दुविधा रहती है। क्यों उनके सामने ऐसे उदाहरण मौजूद हैं कि किसी ने बहुत सारी गलतियाँ कीं, फिर भी उनका कोई नुकसान नहीं हुआ, जबकि किसी ने कोई गलती नहीं की फिर भी उनका नुकसान ही नुकसान हुआ। ऐसा क्यों, माँ? आप देखो न, कल ही मेरी वाल पर अपने सबसे प्रिय परिजन मनमोहन सिंह ने ये सवाल खड़ा कर दिया है कि गलत सही कुछ नहीं होता। न ही ये जन्म और वो जन्म होता है। चलो, मैं भी मान लेता हूँ कि ईश्वर नहीं होता, लेकिन माँ आपने तो कहा था कि हर कहानी के पीछे कोई न कोई कहानी होती ही है और एक समय के बाद ये आपस में जुड़ भी जाती हैं। जब जुड़ जाती हैं, तो जीवन का अर्थ स्पष्ट होने लगता है।”

“हाँ बेटा, यही सही है। जब तुम बहुत दिनों बाद पीछे मुड़ कर देखोगे और हर घटना क्रम को आपस में जोड़ोगे, तब तुम्हें यकीन होगा कि ये सब कुछ हुआ ही इसलिए था क्योंकि ऐसा होने के पीछे वजह थी। बहुत दिनों के बाद जब तुम फेसबुक पर इन कहानियों को लिखोगे, तब तुम ये सोच कर नहीं लिखोगे कि क्यों लिख रहे हो, लेकिन बहुत दिनों बाद तुम्हारी कहानियों का ताना-बाना आपस में जुड़ जाएगा। फिर तुम्हारे जिन परिजनों को तुम्हारे लेख से शिकायत होगी, वो समझ पायेंगे कि ऐसा क्यों हुआ। वो ये भी समझ पायेंगे कि उनके साथ जो हुआ, वो क्यों हुआ। ईश्वर कल्पना ही सही, लेकिन मेरी बात का यकीन करना कि जो हुआ और जो होगा उनके पीछे कोई न कोई कड़ी होती है, होगी। तब तुम मान बैठोगे कि तुम्हारा काल्पनिक ईश्वर हर काम के लिए कोई निमित चुनता है।”

“मैं तो समझ रहा हूँ। लेकिन मेरे कुछ फेसबुक परिजनों के मन में दुविधा है, उनका क्या?”

“चलो, तुम्हें आज मैं वो पुरानी कहानी सुनाती हूँ, जिसे तुम्हारे फेसबुक वाले परिजन पहले ही पढ़ चुके हैं। लेकिन फिर भी मैं सुना रही हूँ। अहिल्या वाली कहानी तो फिर सुना दूँगी, और मरा से निकलने वाले राम के भाव का अर्थ भी समझाऊँगी तुम्हें, लेकिन आज तुम उस राजा और उसके मंत्री की कहानी सुनो, जिसे राजा ने शिकार खेलते हुए जंगल से भगा दिया था और कहा था कि अब तुम्हारा सिर कलम किया जायेगा।”

“अरे माँ, ये तो बहुत रोचक कहानी लग रही है। तुम मुझे अहिल्या और वाल्मिकी से पहले यही वाली कहानी सुना दो। फिर मैं सो जाऊँगा और सोचूँगा कि सारी घटनाओं का क्रम आपस में जुड़ेगा कैसे।”

“एक राजा था। उसका मंत्री भी था, सेनापति भी था, सैनिक भी थे। जब भी राज्य में कोई घटना घटती, मंत्री कहता जो हुआ अच्छा हुआ। राजा उसकी इस आदत से बहुत परेशान था। मंत्री होकर ऐसी बातें करता है। लेकिन वो कुछ कहता नहीं था। एक दिन राजा मंत्री के साथ जंगल में शिकार खेलने निकला। बहुत दूर जंगल में वो पहुँच गया। बस राजा और मंत्री दो लोग।”

“लेकिन माँ, राजा को जंगल में डर नहीं लग रहा था? उसके पास इतने सैनिक थे, उन्हें भी साथ ले जाता। अकेला मंत्री को लेकर क्यों गया?”

“बेटा, जो डरते हैं, वो राजा नहीं बनते। राजा बनता ही वो है, जो निडर होता है। राजा तो अकेला भी शिकार खेलने जा सकता था। मंत्री को तो वो सिर्फ इसलिए ले गया था ताकि रास्ते में किसी से बातचीत कर सके। बाकी उसे हाथी, शेर से क्या डर। वो राजा था।”

“हाँ माँ, सही बात है। राजा को डरना नहीं चाहिए। राजा अगर डरेगा तो फिर प्रजा की रक्षा कैसे करेगा।फिर क्या हुआ मां?”

“राजा जंगल में जा रहा था, अचानक उसका घोड़ा एक गड्ढे में फँस गया और राजा घोड़े से गिर पड़ा। राजा घोड़े से गिरा, उसके हाथ में चोट लगी, खून निकलने लगा। उसे गिरते देख मंत्री बुदबुदाया, “जो हुआ अच्छा हुआ।”

“राजा का गिरना और उसे चोट लगना अच्छा हुआ? ये मंत्री तो बहुत ही दुष्ट था, माँ। उसे ऐसा नहीं कहना चाहिए था।”

“आगे तो सुनो, बेटा। राजा ने जैसे ही सुना कि मंत्री ने उसे चोट लगने पर कहा है कि अच्छा हुआ, वो उठा और मंत्री को खूब डाँटा। उसने मंत्री से कहा कि तुम अब यहाँ से वापस लौट जाओ। मैं शिकार से लौट कर तुम्हारा सिर कलम करवाऊँगा। तुमने अपने राजा के गिरने और चोट लगने पर दुख जताने की जगह ऐसा होने को अच्छा कहा है। जाओ, लौटो, तुम्हें सजा मिलेगी।”

“फिर?”

“मंत्री ने कहा, जैसी आज्ञा महाराज! और वो लौट गया। राजा अकेला ही शिकार पर आगे निकल पड़ा। कुछ दूर जाने के बाद जंगल में कुछ कबिलाइयों ने राजा को पकड़ लिया और राजा की बलि देने का आदेश सुना दिया। राजा बेचारा बहुत परेशान हो गया। एक तो हाथ में चोट लगी थी और खून रिस रहा था, ऊपर से ये मुसीबत। वो चुपचाप खड़ा था। कबिलाइयों ने राजा को एक खंबे से बांध कर उसकी बलि की तैयारी कर ली, तभी उनका पुरोहित चिल्लाया, इसकी बलि नहीं दी जा सकती, क्योंकि इसे चोट लगी है, खून रिस रहा है। हम ऐसे आदमी की बलि देकर अपने ईश्वर को नाराज नहीं कर सकते। सबने गौर से देखा कि सचमुच राजा के हाथ से खून रिस रहा था। उन्होंने राजा को छोड़ दिया, और राजा अपने महल में लौट आया।”

“माँ रुका मत करो। ऐसी कहानियों को सुनते हुए मेरी आँखों के सामने तस्वीर बन जाती है। आप सुनाती जाओ।”

“राजा के आते ही हड़कंप मच गया। राजा को चोट लगी है, राजा को चोट लगी है। राजा ने सबको बताया कि अरे, चोट की चिंता मत करो। चोट ने आज मेरी जान बचाई है, वर्ना आज मैं उन जंगलियों के लिए बलि का सामान बन गया था। और वो मंत्री कहाँ है, उसे बुलाओ। 

मंत्री को बुलाया गया। मंत्री एकदम शान्त भाव से खड़ा था। राजा ने उससे कहा कि सचमुच मेरा गिरना बड़ा अच्छा रहा। तुमने सही कहा था, अच्छा हुआ। अगर मैं गिरा न होता, चोट न लगी होती तो आज मैं जीवित ही नहीं होता। पर तुम ये बताओ कि मेरे गिरने से तुम्हारे लिए क्या अच्छा हुआ? 

राजन! आप गिरे, आपको चोट लगी। मैंने कहा कि अच्छा हुआ, तो आप नाराज हो गये। आपने गुस्से में मुझे भगा दिया। सोचिए अगर आपने मुझे भगाया नहीं होता, तो जिन जंगलियों ने आपको पकड़ा था, मुझे भी पकड़ लेते। आपकी चोट देख कर उन्होंने आपको छोड़ दिया, लेकिन मेरी बलि तो ले ही लेते। इस तरह आपका गिरना और आपका मुझे भगा देना दोनों ही अच्छा हुआ। 

हे राजन! इस संसार में जो होता है, उसका कोई न कोई प्रयोजन होता है। हम उस प्रयोजन का अर्थ तुरन्त नहीं समझ सकते, क्योंकि उसकी कड़ियाँ धीरे-धीरे ही जुड़ती हुई एक वृत का निर्माण करती हैं। यही वृत जीवन का चक्र कहलाता है। उसकी संपूर्णता उन क्रमों के आपस में जुड़ जाने में होती है। आप खुद सोचिए रत्नाकर वाल्किमी यूँ ही तो नहीं बना न! उसका एक प्रयोजन था। रावण ने यूँ ही तो सीता का अपहरण नहीं किया न! उसका भी एक प्रयोजन था। और राजन, हमारी आपकी ये कहानी बहुत दिनों बाद संजय सिन्हा को सुनाई जायेगी, तो उसका भी एक प्रयोजन होगा। इसलिए हे राजन! आप खुद को निमित मात्र मान लीजिए और सिर्फ अपने कर्म के सिद्धांत को अमल में लाइए। यही सोचिए कि अगर आपके मन का हुआ अच्छा हुआ और नहीं हुआ तो और अच्छा हुआ।”

“संजू बेटा, तुम तो कहानी सुनते-सुनते सो गये।”

“सोया नहीं हूँ, माँ। जाग गया हूँ। सदा के लिए जाग गया हूँ।” 

(देश मंथन 06 मई 2015)

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