आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार :
यहाँ मुझे, सुभाष चंदरजी और हरीश नवलजी को मार्गदर्शक – मंडल बना दिया है। चलो सुभाष चंदरजी और हरीश नवलजी तो पर्याप्त बुजुर्ग हो चुके हैं कि इन्हे मार्गदर्शक – मंडल बना दिया जाये।
पर मैं तो कतई युवा और नवोदित व्यंग्यकार, मुझे मार्गदर्शक बनाया जाना साजिश है।
मैं पूरी ईमानदारी से कहता हूँ कि मार्गदर्शक एक फर्जी शब्द है। कम से कम मुझे तो नहीं मालूम मार्ग है कहाँ। मार्ग टटोल रहा हूँ मैं। चीजें बदल रही हैं बहुत रफ्तार से। जो मार्ग कल का था, वह आज का नहीं है। मैं खुद मार्ग-टटोलक मानता हूँ। तो यहाँ मैं मार्गदर्शन जैसा कुछ नहीं कर रहा हूँ, सिर्फ यह कह रहा हूँ कि आइये, हम सह-टटोलक बनें, मार्ग को साथ-साथ टटोलें।
व्यंग्य या किसी भी क्रियेटिव क्षेत्र में मार्ग हासिल कर लेने का दावा बहुत मुश्किल दावा है। मैं जीवन के आखिर दिन तक मार्ग टटोलता ही पाया जाऊंगा।
व्यंग्य पर चर्चा बहुत जरूरी है। व्यंग्यकार अपनी चर्चा कराने में इतने बिजी हो जाते हैं कि व्यंग्य पर चर्चा हो नहीं पाती।
व्यंग्य का मतलब है
विसंगतियों को सामने लाना और सपाटबयानी से नहीं, रोचक तरीके से। इस काम में हास्य की मदद लेनी पड़े, तो व्यंग्य लेता है। व्यंग्य से आशय मोटे तौर पर यहाँ व्यंग्य गद्य से है। कुल मिलाकर परिदृश्य बदल गया है, बहुत तेजी से बदल गया है और व्यंग्य की भूमिका भी बदली है। व्यंग्य के तौर तरीके भी बदले हैं। परिदृश्य में बदलाव कई सारे हैं। मेरी कोशिश है कि मैं पिछले दो दशक के बदलावों को रेखांकित करने की कोशिश करुं।
1991 यानी आर्थिक सुधारों के बाद का दृश्य
मई 1991 से आर्थिक सुधारों का दृश्य शुरू होता है। अर्थव्यवस्था समाजवादी अर्थव्यवस्था ना रहकर बाजार आधारित अर्थव्यवस्था होने की तरफ तेजी से बढ़ने लगी। पहले फोन बिजली पानी लिए के सरकार के द्वारे जाना पड़ता था, अब बाजार इनका सप्लायर हो रहा था। शिकायतें सरकार से हुआ करती थीं, फिर शिकायतें शिफ्ट होने लगीं, बाजार से शिकायतें होने लगीं। बाजार के छद्म सामने आने लगे। संबंधों में बाजार अलग तरह से आने लगा
सेलरी पैकेज, निजी क्षेत्र की असुरक्षा, पति और पत्नी के संबंधों में आर्थिक पेंच, नये विश्व में अमेरिका की दादागिरी, अमेरिका विरोध को धंधे के स्तर तक ले जाना। इन सारे बदलावों से व्यंग्य परिदृश्य में बदलाव आये हैं।
1991 के बाद के मोटे बदलाव कुछ यूँ हैं-
घरेलू स्तर पर आर्थिक बदलाव, उसमें भी खास तौर पर बाजार संबंधी बदलाव
घरेलू स्तर राजनीतिक बदलाव
तकनीकी स्तर पर बदलाव
वैश्विक अर्थव्यवस्था में बदलाव
वैश्विक राजनीति में बदलाव
घरेलू स्तर पर समाजशास्त्रीय बदलाव
क्रिकेट और आईपीएल
माध्यमों का बदलाव
इन सब बदलावों के साथ व्यंग्य की भूमिका
व्यंग्य की भाषा और फार्मेट पर बदलाव
मेरा प्रयास रहेगा कि इन सारे मसलों पर कुछ कह सकूं।
घरेलू स्तर पर आर्थिक बदलाव बहुत जबरदस्त हैं। 125 करोड़ की जनसंख्या में 80 करोड़ मोबाइल धारी है। देश में टायलेटों की संख्या कम है, मोबाइलों की संख्या ज्यादा है। गरीबी रेखा के नये पैमाने हास्य का विषय हो रहे हैं, 28 रुपये पैंसठ पैसे गरीबी की रेखा का मानक है। रोचक बदलाव हो रहे हैं। आर्थिक व्यंग्य अपने आप में एक अलग विधा के तौर पर विकसित हुआ है। सेनसेक्स और मल्टीप्लेक्स पर अर्थव्यवस्था उस देश में साइन कर रही है, जहाँ करीब अस्सी करोड़ की आबादी बीस रुपये रोज पर बसर कर रही है। विसंगतियां बहुत हैं और तेजी से बढ़ी हैं। सेलरी पैकेज बढ़ रहा है, ब्लड प्रेशर उससे ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है। बेटा अमेरिका में है। माँ-बाप देश में हैं। उम्मीदें हैं, उम्मीदों पर भारी डालर हैं। ग्लोबल होती अर्थव्यवस्था के लोकल परिणाम हैं। जाब के प्रेशर हैं। ऐसी अर्थव्यवस्था विकसित हुयी, जिसमें संवेदनशील सिर्फ सेनसेक्स बचा। मसले टेढ़े हुये हैं। बाजार बहुत बदल गया। माल का कमाल सामने आया। जो खरीदना है, जो चाहिये, वह नहीं है। पर बाजार वो सब बेचे दे रहा है, जो उसे बेचना है। वर्ण व्यवस्था कार आधारित हो रही है। मारुति 800 वाले और एल्टो वाले इसमें शूद्र हैं। इस कार वर्ण व्यवस्था के ब्राह्मण अलग हैं, वैश्य अलग हैं। नये समाज को समझना है, तो कारों का चरित्र समझना जरूरी हुआ।
व्यंग्य का स्कोप यहाँ लगातार बढ़ा है। व्यंग्य की भूमिका लगातार बढ़ी है। आर्थिक टीवी चैनलों पर व्यंग्य की मांग बढ़ी है। हाल की अमेरिका की मंदी पर जबरदस्त व्यंग्य टीवी शो में आये। पब्लिक को इन व्यंग्य शो ने राहत दी, उनके मन की बात की। ग्लोबलाइजेशन बढ़ा तो ग्लोबाइजेशन का विरोध भी बढ़ा। ग्लोबलाइजेशन के विरोध का बाजार लगातार बढ़ा। नयी अर्थव्यवस्था में एनजीओ का रोल बढ़ा। वह व्यंग्य का अलग मसला बना। पर यह तकनीकी मसले हैं। इन पर लिखने बोलने के लिए तकनीकी ज्ञान की जरूरत बढ़ी है।
अखबारों में व्यंग्य लेखन का दायरा बदला। व्यंग्य अब सिर्फ राजनीतिक विषयों पर नहीं चाहिये। अर्थव्यवस्था पर चाहिये। वो मोटे तौर पर पहले भी था। आर्थिक नवलकथा गंगाधर गाडगील जी पहले भी लिखते रहे हैं। पर अब मोबाइल पर चाहिये। बाजार पर चाहिये। सेनसेक्स पर चाहिये। इन विषयों पर लिखने वालों की भूमिका बढ़ी है।
घरेलू स्तर पर राजनीतिक बदलाव
यह यहीं संभव हुआ कि गठबंधन की राजनीति जबरदस्त तरीके से बढ़ी। प्रदेश में आपस में एक दूसरे का कड़ा विरोध करने वाली पॉलिटिकल पार्टियाँ सेंटर में एक ही पार्टी को सहयोग देने पर सहमत हुईं। कौन किसके साथ है, कौन किसके विरोध में है, यह तय करना मुश्किल हो गया। ऐसे-ऐसे नेता हुये कि जो लगभग हर सरकार में मंत्री रहे। बहुमत की सरकार रही, पर सत्ता बहुत थोड़े से निर्दलीय विधायकों की रही। ये सब पिछले दो दशकों में दिखा। लेफ्ट की बातें ज्यादा प्रासंगिक होनी चाहिये थीं, पर लेफ्ट के दल लगातार अप्रासंगिकता की ओर बढ़े। जनपक्षधरता एनजीओ कारोबार में तबदील हुई एक हद तक।
व्यंग्य की भूमिका यहाँ बदली इस अर्थ में कि लेफ्ट के नाम पर जो कारोबार विकसित हुआ, वह भी व्यंग्य के दायरे में आया। अमेरिका की भूमिका के विरोध के नाम पर जो कारोबार विकसित हुआ, वह भी व्यंग्य का विषय बना।
ग्लोबल पॉलिटिक्स से लोकल कारोबार कैसे चलते हैं, यह मसला महत्वपूर्ण हुआ।
तकनीकी स्तर पर बदलाव ने तो जीवन का पूरा चेहरा ही बदल दिया।
मोबाइल तो जैसे शरीर का हिस्सा ही बन गया। तमाम विधानसभाओं में मोबाइल, आईपैड पर क्या-क्या हो रहा है, यह विषय हमारे सामने आये। मोबाइल इतना व्यापक हुआ कि सिर्फ मोबाइल के ही तमाम आयामों पर व्यंग्य लिखने वालों की माँग हो रही है। मोबाइल पर सिर्फ मोबाइल पर फोकस कई पत्रिकाएँ हैं। तकनीकी गैजट्स आई फोन आई पाड, डेस्क टाप, लैपटाप वगैरह अपने आप में महत्वपूर्ण विषय हुये हैं। व्यंग्य की भूमिका यहाँ लगातार बढ़ी है और व्यंग्य अब कहीं-कहीं विशेषज्ञ व्यंग्य हुआ जा रहा है।
कुल मिलाकर बदलते परिदृश्य में हुआ यह है कि क्रिकेट में आईपीएल आ गया, चीयर लीडर आ गयीं। क्रिकेट केंद्रित व्यंग्य का नया रास्ता खुला। ग्लोबल इकोनोमी का खलीफा अमेरिका ना रहा। चीन भारत, ब्राजील, रुस और साऊथ अफ्रीका आ गया। यानी ब्रिक्स का नया सीन आ गया। ग्लोबल अर्थव्यवस्था में परेशानी में पड़ा अमेरिका अब वैसी राजनीतिक शक्ति नहीं रहा। जैसी हुआ करता था। बेटे-बेटियाँ दिल में अमेरिका का ख्वाब लिये अमेरिका निकल गयीं। लेफ्ट के प्रोफेसर अमेरिका को कोसते रह गये। बेटे अमेरिका में सैटल हो गये। यह भी पिछले बीस सालों में हुआ जोरदारी से।
इस सारे घटनाक्रम का एक नतीजा यह हुआ कि व्यंग्य अब पंद्रह सौ शब्दों का नहीं माँगा जाता। पाँच सौ। तीन सौ, शब्दों में कहिये बात। नहीं कह सकते, तो सीखिये। व्यंग्य सिर्फ छपित माध्यम के लिए नहीं। वह वेबसाइट के लिये जायेगा। वेबसाइट का व्यंग्य शायद हर घंटे का हो जाये, हर घंटे नया लिखिये। व्यंग्य टीवी पर जायेगा। वह रेडियो पर जायेगा। इन माध्यमों को समझिये, फिर लिखिये। कुछ समय बाद यह भी संभव है कि एसएमएस की पाँच लाइन में व्यंग्य चाहिये।
व्यंग्य की भूमिका बदली है। फार्मेट बदला है। लंबी कथाएं नहीं, संक्षिप्त कथाएँ दीजिये। बजट पर दीजिये, रेल बजट पर दीजिये, योजना आयोग पर दीजिये।
भाषा बदली, स्कोप बदला, माध्यम बदले, विषय बदले, पर नहीं बदलीं तो इंसानी भावनाएँ। इंसानी बेवकूफियाँ, खुद को विशिष्ट दिखाने की चाहतें वैसी रहीं। प्रेम करने के तरीके बदल गये हों, पर प्रेम नहीं बदला। प्रेमिका को इंप्रेस करने के तरीके बदल गये हों, पर इंप्रेस करने की इच्छा ना बदली। चमचागिरी की प्रविधियाँ बदलीं, पर चमचागिरी ना बदली। घोटालों के नाम बदल गये, पर घोटाला करने की इच्छाशक्ति ना बदली। अमेरिका की मूर्खताएँ दयनीय भले ही हो गयी हों, पर अमेरिकी मूर्खताएँ ना बदलीं। बहुत कुछ बदला, बहुत कुछ नहीं बदला। वो कहते हैं कि जैसे-जैसे बदलता जाता है, वैसे-वैसे बहुत कुछ नहीं भी बदलता है।
व्यंग्यकार की भूमिका बदलते परिवेश में यह है कि वह बदलते माहौल के बदलाव को समझे और समझे कि क्या नहीं बदला है। व्यंग्यकार को प्रासंगिक बने रहना है, तो यह करना होगा।
संक्षेप में कहना चाहूँगा कि खूब पढ़ें, इकोनोमिक टाइम्स, टाइम्स आफ इंडिया, नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान, इकोनोमिस्ट मैगजीन समेत बहुत सारी मैगजीन पढ़ें। हिंदी व्यंग्य की पूरी परंपरा को पढ़ें। विदेश का व्यंग्य पढ़ें। खूब पढ़ें, खूब पढ़ें, आबजर्व करें, खूब सोचें।
व्यंग्य आयेगा, और व्यंग्य की इज्जत करें। यहां कई मित्र मुझे यह कहते दिखायी दिये, जी मूलत तो हम कवि हैं, पर व्यंग्य कभी-कभार यूँ ही लिख लेते हैं। यूँ ही कोई काम नहीं होना चाहिये, जो भी काम कर रहे हैं, उसे न्यूनतम सम्मान दें।
कभी इस चक्कर में ना पड़ें कि कौन खलीफा आपको क्या मानता है, उसकी सूची में आपका नाम है या नहीं। खलीफाओं के अपने कारोबार हैं, अपने गुणा-गणित हैं, उनके हिसाब से उनके कारोबार करने दें, उनकी रोजी-रोटी उनके हिसाब से चलने दें। वक्त सब हिसाब साफ कर देता है, वक्त के छलनी के पार वही रचना जाती है, जिसमें दम होता है। कोई खलीफा आपको महान लेखक घोषित कर दे – उससे क्या होगा, कुछ नहीं होता। आपके काम में दम है, तो आप खलीफा के बगैर भी चलते रहेंगे और अगर काम में दम नहीं है, तो एक नहीं पचास खलीफा भी आपका कुछ भला नहीं कर सकते। कई लोगों को मैं सुझाव देता हूँ कि खलीफाओं पर टाइम वेस्ट ना करो, कुछ अच्छा लिखो-पढ़ो। वरिष्ठों का सम्मान करो, पर उनके झोले इस उम्मीद में मत उठाओ कि वो तुम्हारा भला करेंगे। ये क्रियेटिव दुनिया है, आप और सिर्फ आप ही खुद का भला कर सकते हैं। सबसे सीखिये, पर चंपूगिरी से बचिये।
(देश मंथन, 23 मार्च 2015)