कब होगी आमची दिल्ली

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

दिल्ली में तो सुबह-सुबह नींद खुल ही जाती है, लेकिन मुंबई आकर मैं चाहता हूँ कि कुछ देर और होटल के बिस्तर में दुबका रहूँ। फिर तो जब सुबह होगी तो हो ही जायेगी।

एक बार उठ जाओ, तो ये शहर भगाने लगता है, लेकिन पत्नी साथ में हो तो मुंबई आकर भी देर तक सोना मुमकिन नहीं। कभी-कभी मैं सोच में पड़ जाता हूँ कि मेरी पत्नी मुझसे अधिक प्यार करती है, या आप लोगों से। 

आज नींद तो खुल गई थी, लेकिन मैं मटियाया हुआ सो रहा था और सोच रहा था कि उठ कर पहले स्विमिंग करने जाऊंगा, फिर होटल की पहली मंजिल वाले रेस्त्राँ में छक कर नाश्ता करूंगा और उसके बाद लिखने बैठूंगा। मतलब आज मेरे लिए भी रविवार और आपके लिए भी रविवार। रोज एक ही समय लिखने और रोज एक ही समय पढ़ने के रूटीन को तोड़ देने के ख्याल ने अभी मन के गर्भ में आकार लेना शुरू भी नहीं किया था कि अचानक पत्नी ने मुझे जगाना शुरू कर दिया – “संजय, संजय। संजय उठो, आज लिखोगे नहीं क्या?”

“अरे एक दिन देर से लिख दूंगा तो क्या हो जायेगा? फेसबुक के लोग मेरे परिजन हैं, वो समझते हैं कि संजय भी एक दिन देर तक सो सकता है, किसी और काम में उलझ सकता है, जरा आराम करने दो।”

“हाँ, हाँ आराम कर लो।”

मैंने मन ही मन सोचा कितनी सीधी है बेचारी, एक बार में मेरी बात मान लेती है। पर पाँच मिनट भी नहीं बीते होंगे, उसके फोन का अलार्म फिर बजा, टुंई-टुंई-टुंई…। मतलब उसने अपने फोन में मुझे जगाने के लिए अलार्म लगा रखा था, और “हाँ हाँ आराम कर लो” कहने के बाद पाँच मिनट तो मुझे आराम करने दिया और फिर शुरू हो गई- “संजय, संजय। उठो संजय, सात बजने वाले हैं।”

एक नेपोलिनय बोनापार्ट की पत्नी थी, जब नेपोलियन कभी घर आता और सुबह उठ कर अपने घोड़े पर सवार हो, कमर में तलवार लटकाये युद्ध के लिए निकलता तो वो टोकती, “तुम सुबह-सुबह ये घोड़े पर सवार होकर, कमर में तलवार लटकाये कहाँ निकल पड़ते हो?”

“मैं विश्व विजेता बनने निकल रहा हूँ।”

“ओह! कभी आराम भी कर लिया करो। दिन भर दुनिया के बारे में सोचते हो!”

एक मेरी पत्नी है, जो कहती है कि दुनिया के बारे में सोचो। अपने आराम को भूल जाओ और फेसबुक परिजनों के लिए कुछ लिखो। मुझे यकीन है कि अगर मैंने ये बात दिल्ली जाकर केजरीवाल को बताई तो वो पक्के तौर पर कहेंगे कि आपकी पत्नी और फेसबुक के परिजन मिले हुये हैं। उनके बीच सेटिंग है। वर्ना किसी की पत्नी होटल के इतने मोटे गद्दे पर आराम को छुड़वा कर कम्प्यूटर पर टुक-टुक करने को क्यों उकसाएगी? सब मिले हुये हैं जी, सब।

अब जो हो। नींद खुल ही चुकी है और लिखना भी है ही। सोच रहा था कि मुंबई की कहानी लिखूंगा। लिखूंगा कि मुंबई में अभी भी टैक्सी वाला दो रुपये, पांच रुपये की इज्जत क्यों करता है। अगर आपके बिल में चार रुपये बचते हैं, तो वो उसे वापस करने की कोशिश क्यों करता है। यहाँ कभी कोई टैक्सी वाला, ऑटो वाला कहीं जाने से मना क्यों नहीं करता। यहाँ देर रात तक घूमते हुए डर क्यों नहीं लगता। यहाँ मुहल्लों के नाम साकीनाका, मुलुंड, बांदरा क्यों हैं। यहाँ दो परिवार इस बात पर क्यों लड़ते हैं कि मुंबई उनकी है, मुंबई वाले उनके हैं।बहुत कुछ सोच रहा था। सोच रहा था कि उन दोनों माँओं और उस एक बच्चे की कहानी लिखूंगा, जो एक राजा के पास लड़ते हुए गयी थीं कि ये उसका बच्चा है, उसका बच्चा है। राजा उलझन में था कि एक छोटा बच्चा जो माँ को नहीं पहचानता, उसकी दो-दो माँएं हैं, तो आखिर कौन माँ असली है, कौन नकली, कैसे पता चले। 

आखिर में राजा ने कह दिया कि बच्चे को काट कर आधा-आधा कर लो। एक हिस्सा तुम रख लो, एक हिस्सा तुम। एक महिला राजा के इस फैसले पर तैयार हो गयी कि ठीक है इसे दो हिस्सों में बांट दो, लेकिन जो बच्चे की असली माँ थी, वो पलट गयी और कहने लगी, “राजन मुझे माफ करना, ये बच्चा मेरा नहीं है। यह बच्चा उस दूसरी महिला का ही है। मैं झूठ बोल रही थी।” राजा मुस्कुराया। वह समझ गया कि असली माँ के सीने में ही इतना दर्द हो सकता है, जो बच्चे को छोड़ सकती है, पर मरने नहीं दे सकती और उसने फैसला सुना दिया। 

मैं सोच रहा था कि मुंबई उसकी कैसे हो सकती है जो यहाँ इस बात पर तोड़-फोड़ मचा देते हैं, बसों-टैक्सियों में आग लगा देते है कि ये उनकी मुंबई है। 

काश कोई ऐसा राजा होता जो इस विवेक को समझ पाता कि मुंबई सिर्फ उनकी है, जो यहाँ सचमुच ईमानदारी और मेहनत से काम करते हैं और लोगों को बताते हैं कि इस देश में चलने वाला एक रुपया, दो रुपये का सिक्का भी कितना अनमोल है। वर्ना मेरी दिल्ली में तो टैक्सी वाले दस-बीस-पचास रुपये तक वापस करते हुये गुर्राते हैं कि क्या छुट्टे के पीछे पड़े हो? जहाँ के लोग मेहनत से पैसे कमाते हैं, वहीं के लोग एक-एक पैसे की इज्जत करते हैं। जिस पैसे को कमाने में खून और पसीना खर्च होता है, उसी पैसे की इज्जत होती है और जो लोग मेहनत करते हैं, शहर उनका होता है। शहर उनका नहीं होता, जो उनकी मेहनत पर आँखें गड़ाये रहते हैं।

सब कुछ सोच रहा था कि आज लिखूंगा, लेकिन मेरे सोचने से क्या होता है? 

पत्नी के फोन का अलार्म और आपके साथ उसकी मिली भगत ने मुझे पूरी तरह सोचने ही नहीं दिया। “संजय, संजय उठो, उठो लिखो।” ऐसा लग रहा था कि मैं अपनी पहली किताब ‘हिंदी बाल पोथी’ के रानी-मदन-अमर का पात्र हूँ, जिसमें बार-बार एक ही लाइन लिखी होती है, “रानी उठो, मदन उठो, अमर उठो। सबेरा हो गया है।”

लो जी सबेरा हो गया है। जो मन में आया मैं लिख भी दिया हूँ। अब फिर चला रजाई में मुँह घुसेड़ने। ये सोचने कि बंबई, बाम्बे और मुंबई होने का मतलब क्या होता है। वैसे इसमें सोचने वाली बात है नहीं, क्योंकि बाम्बे नाम पुर्तगालियों ने दिया था। ‘बॉम’ मतलब अच्छा और ‘बे’ मतलब खाड़ी – यानी अच्छी खाड़ी। 

और मुंबई का अर्थ है- ‘मुंबा’ यानी दुर्गा और ‘आई’ मतलब माँ। इस तरह माँ दुर्गा का शहर है मुंबई। 

और जिस पर माँ का आशीर्वाद हो, वो तो फलेगा-फूलेगा ही। इसलिये तमाम मुश्किलों के बाद भी मुंबई हिंदुस्तान का सबसे खुशहाल शहर है।

(देश मंथन, 23 मार्च 2015)

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