संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
बेटे ने जिद पकड़ ली थी कि उसे डायनासॉर वाला खिलौना चाहिए।
डायनासॉर वाला खिलौना बच्चों की पसंद बना हुआ था। वो बैट्री से चलता था, कुछ दूर चल कर रुकता और फिर मुँह से अजीब सी आवाज निकाल कर धुआँ छोड़ता।
20 साल पहले एक हजार रुपये की बहुत कीमत थी। मुझे लग रहा था कि बेकार में हजार रुपये खर्च हो जाएंगे और खिलौने का कोई फायदा भी नहीं। मेरे मन में था कि बच्चे को तो फुसलाया जा सकता है। तो मैं बेटे को खिलौने की दुकान पर ले गया और डायनासॉर दिखला कर मैंने कहा कि यह बिल्कुल बेकार है। तुम ज्यादा देर तक इससे खेल भी नहीं पाओगे। तुम ये वाली कार ले लो। ये बैट्री से चलती है।
बेटे ने कार को उलट-पुलट कर देखा और उसने कहा कि ठीक है, कार ले लो।
मैं मन ही मन खुश हुआ। तीन साल का एक बच्चा अगर अपनी जिद छोड़ दे और पापा की बात में हाँ मिला दे, तो किसी भी बाप के लिए इससे खुशी की बात और क्या हो सकती है?
तो मैंने दुकानदार से कहा कि डायनासॉर नहीं चाहिए। तुम ये कार दे दो।
कार चार सौ रुपये की थी। मैं मन ही मन खुश था कि चलो छह सौ रुपये बच गये।
घर वापसी पर पत्नी ने पूछा कि डायनासॉर ले आए?
“नहीं, कार लाया हूँ। बेटे ने दुकान में जाकर कार पसंद कर ली।”
“चलो अच्छा हुआ कि उसने कार पसंद कर ली।” पत्नी ने राहत की सांस लेते हुए मुझसे कहा।
***
दो दिन बीते होंगे। बेटा मेरे पास आया और उसने कहा कि पापा तुमने अब तक डायनासॉर नहीं दिलाया।
“पर बेटा, उस दिन तो तुम कह रहे थे कि कार लूंगा। अब ये डायनासॉर कहाँ से आ गया?”
“नहीं पापा, तुमने कहा था कि कार ले लो। मैंने तुम्हारी बात मान ली थी। कार से मैं खेल चुका। मुझे तो मुँह से धुआँ निकालने वाला डायनासॉर ही चाहिए।”
बड़ी अजीब स्थिति हो गयी। बच्चे ने जिद पकड़ ली कि डायनासॉर ही चाहिए। तीन साल के बच्चे की जिद के आगे कौन जीता है, जो मैं जीत जाता?
बहुत मुश्किल से उसे मनाया कि शाम को बाजार चलूंगा।
शाम को हम बाजार गये। मेरा मन अभी भी डायनासॉर लेने का नहीं था। हजार रुपये उस खिलौने के लिए देते हुए मुझे बहुत अखर रहा था।
हम खिलौने की दुकान पर पहुँचे।
मैंने दुकानदार से कहा कि डायनासॉर दिखाओ। उसने डायनासॉर निकाला। पर तब तक मेरी निगाह रेलगाड़ी पर पड़ गयी।
मैंने बेटे को समझाया कि ये रेलगाड़ी बहुत अच्छी है। यह पटरी पर चलती है और कू-छुक-छुक करती है। बेटे ने रेलगाड़ी की ओर देखा। मैंने दुकानदार से पूछा कि कितने की है। दुकानदार ने बताया कि यह पाँच सौ रुपये की है।
“बैट्री भी साथ में?”
“नहीं, बैट्री के अलग पैसे देने होंगे।”
बेटा रेलगाड़ी से खेलने में मस्त था। मैंने उससे पूछा कि रेलगाड़ी लोगे? बहुत मजा आएगा इसे चलाने में। बेटे ने सिर हिलाया कि हाँ, रेलगाड़ी ले लूँगा।
पाँच सौ रुपये रेलगाड़ी के और तीस रुपये बैटरी के देकर मैं घर आ गया।
पत्नी ने फिर पूछा कि डायनासॉर आ गया?
“नहीं। बेटे ने रेलगाड़ी पसंद की है। पाँच सौ रुपये में काम हो गया।”
***
बेटा रोज रेलगाड़ी की पटरियाँ बिछाता, उस पर प्लास्टिक की रेलगाड़ी सजाता और फिर कू-छुक-छुक शुरू हो जाती।
तीन ही दिन बीते होंगे कि अचानक एक सुबह बेटा मेरे पास आया और उसने मुझसे पूछा कि पापा डायनासॉर कब लोगे?
“डायनासॉर?”
“हाँ, पापा। तुम बार-बार दुकान जाते हो, वहाँ से कार और ट्रेन खरीद कर ले आते हो। पर डायनासॉर नहीं लेते।”
“पर बेटा, डायनासॉर के बदले तुमने कार खरीदी, ट्रेन खरीद ली। अब डायनासॉर का क्या करना?”
“वो तो तुमने खरीद दी पापा। मुझे तो डायनासॉर ही लेना था।”
मैं समझ गया कि मैंने गलती की है। मैं समझ गया कि हजार रुपये का डायनासॉर मुझे अब 1930 रुपये का पड़ने जा रहा है। मैं समझ गया कि शुरू में छह सौ रुपये जो मैंने बचाए थे, वो मेरी बचत नहीं थी। वो मेरा अतिरिक्त खर्चा था।
खैर, बच्चे की जिद के आगे मुझे झुकना पड़ा और शाम को डायनासॉर खरीद कर लाया गया।
***
अब आप पूछेंगे कि आज संजय सिन्हा ने ये कहानी आपको क्यों सुनाई?
तो सुनिए। कल शाम उसकी आलमारी में कुछ ढूंढते हुए मुझे वो डायनासॉर दिख गया। मैंने गौर से देखा, बेटे ने बहुत संभाल कर उसे रखा था। बीस साल में सैकड़ों खिलौने मैंने उसके लिए खरीदे होंगे। किसी खिलौने का अता-पता नहीं। न कार का, न ट्रेन का, न ही-मैन का, न स्टील मैन का, न स्पाइडर मैन का। पर यह डायनासॉर उसने बहुत संभाल कर रखा है।
जानते हैं क्यों?
क्योंकि यह उसकी पसंद का खिलौना था। उससे पहले जितने भी खिलौने हमने खरीदे, हमने अपनी पसंद उस पर थोपी। आदमी जब अपनी पसंद की चीज पाता है, तो वो उसकी कद्र करता है। वो उसे जीता है।
कई बार हम दूसरों पर अपनी पसंद थोपते हैं। कई बार हम खुद दूसरों की पसंद अपनी जिन्दगी में ढोते हैं।
थोपी गई चीज चाहे जो भी हो, आदमी उससे प्रेम नहीं करता।
एक डायनासॉर खिलौने से मैंने उस शाम ये सबक लिया कि काम पसंद का ही करना चाहिए। मैं यह समझ गया हूँ कि जिन्दगी अपनी पसंद की ही होनी चाहिए।
बीस साल पुराना वो खिलौना आज भी एकदम नये की तरह उसकी आलमारी में पड़ा है। आज भी बेटा उसे देख कर खुश होता है।
जिन्दगी के खिलौने चाहे जो हों, पसंद के होने चाहिए।
(देश मंथन 22 जुलाई 2016)