तोड़ो नहीं, जोड़ो

0
258

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

पिछले साल मैं अमृतसर में वाघा बॉर्डर गया था। वाघा बॉर्डर पर हर शाम एक खेल होता है। देशभक्ति का खेल।

वहाँ अटारी सीमा पर शाम के पाँच बजे भारत और पाकिस्तान दोनों मुल्कों के गेट खुलते हैं और दोनों देशों के सैनिक अपने सैन्यबल का प्रदर्शन करते हैं।

लंबे छरहरे सैनिक एक दूसरे के सामने जाते हैं, एक दूसरे के सिर तक अपने पाँव उठाते हैं, उन्हें चिढ़ाते हैं, ललकारते हैं और फिर टोपी ठीक करते हुए लौटते हैं, मानो ये सब कुछ उन्होंने अपनी टोपी ठीक करने के लिए किया हो। 

बूटों की टक-टक आवाज, इधर से वंदे मातरम् और उधर से पाकिस्तान जिंदाबाद की गूंज कुछ देर के लिए उन्माद सा माहौल तैयार कर देती है। मुझे यकीन है कि दर्शकों को लुभाने वाले इस शो के बाद दोनों देशों के सैनिक आपस में बतियाते होंगे, खाना-पीना साझा करते होंगे, एक दूसरे के दुख-सुख को महसूस करते होंगे। आदमी का मूल स्वभाव ऐसा ही होता है। 

पर जो हमें दिखाया जाता है, वो उन्माद होता है, नफरत होती है। 

मुझसे कई लोगों ने कहा कि उन्हें वाघा बॉर्डर का वो शो बहुत अच्छा लगता है। पर मुझे वो शो बिल्कुल पसंद नहीं। मुझे नफरत पर आधारित कोई शो पसंद नहीं। मैं दो बार वो शो देख चुका हूँ और दोनों दफा शो देखने के बाद बीएसएफ की ओर से आयोजित चाय पार्टी के बाद दोनों मुल्कों के बीच कंटीली तारों का जो बेड़ा है वहाँ तक गया हूँ। पाकिस्तान और हिंदुस्तान दोनों तरफ के लोग कुछ मिनट के लिए दो कदम के फासले से एक दूसरे को देख पाते हैं, तस्वीरें ले पाते हैं। हालाँकि आपस में बातचीत करने पर मनाही है और मेरा कोई रिश्तेदार पाकिस्तान में है भी नहीं, लेकिन पता नहीं क्यों उस पार के लोगों को देख कर दिल में हूक सी उठती है। मुझे पता नहीं क्यों लगता है कि किसी का कोई सगा इधर या उधर रह गया होगा और वो इस तरह कंटीली तारों के आर-पार आपस में एक दूसरे को देख कर भी बातें नहीं कर पाते होंगे तो दिल पर क्या गुजरती होगी। 

आदमी की सबसे बड़ी बेबसी यही होती है। अपनों को देख कर भी अपने दिल का हाल बयाँ न कर पाना। 

मैं जानता हूँ कि पाकिस्तान पर लिखना और दोनों मुल्कों के बीच सौहार्द की कल्पना करना कई बार अपने लिए नापसंदगी को निमंत्रण देना है। मेरे छोटे भाई के ससुर पाकिस्तान का नाम सामने आते ही चिढ़ जाते हैं। अपनी गर्दन पर कुल्हाड़ी के उस निशान को दिखाते हैं जो उन्हें बंटवारे के वक्त दिया गया था। उनके कई सगे-संबंधी बंटवारे के समय मारे गये थे, ऐसे में उनका निजी दुख बड़ा हो जाता है और सुनने को मिलता है कि जाके पाँव न फटे बेवाई, सो का जाने पीर पराई। यानी जिसने उस दुख को नहीं देखा, वो उस दर्द को समझ भी नहीं सकता।

मैं मानता हूँ कि जिनके अपने भारत-पाक बंटवारे में खो गये, मारे गये उनके लिये ये झगड़ा न भूलने वाले गहरे घाव की तरह है। गहरा घाव तो गहरा होता है, रिश्तों में तो छोटा घाव भी बड़ा होता है, लेकिन किसी घाव को रोज रगड़ने से वो तो कैंसर ही बनता है, बजाये ठीक होने के। वाघा बार्डर पर होने वाला ये खेल नई नस्लों के मन में नफरत के पौधे को वृक्ष बनाने का खेल है। ऐसे में पता नहीं आपने टीवी पर ‘फेवीक्विक’ का विज्ञापन देखा है या नहीं, जिसमें वाघा बार्डर पर उन दो सैनिकों को एक दूसरे के सामने जूता दिखाते हुए दिखाया जाता है और एक सैनिक का फटा हुआ जूता सामने आने पर दूसरा सैनिक उसे जूते को चिपकाने का इशारा करता है और अपनी जेब से फेवीक्विक निकाल कर उसे देता है। बाद में दूसरा सैनिक पहले को सलामी ठोकता है और फिर सामने लिखा हुआ आता है, “तोड़ो नहीं, जोड़ो।”

अंगुलिमाल डाकू लोगों को मारकर उनकी उंगलियाँ काट लेता था और उनकी माला बना कर पहनता था। लोग उससे बहुत डरते थे। उसका नाम सुनते ही उनके प्राण सूख जाते थे। एक बार भगवान बुद्ध उपदेश देते हुए उधर आ निकले। लोगों ने बुद्ध से अंगुलीमाल डाकू के बारे में चर्चा की और कहा कि प्रभु कुछ करें। बुद्ध ने लोगों की बात सुनी और वन में घूमने लगे। जब अंगुलिमाल को इसका पता चला तो वह बुद्ध के पास आया। बुद्ध को मुस्कराकर प्यार से स्वागत करते देख उसका पत्थर दिल कुछ मुलायम हो गया। बुद्ध ने उससे कहा, ”सुनो भाई, सामने के पेड़ से चार पत्ते तोड़ लाओगे?” अंगुलिमाल के लिए ये क्या मुश्किल था, वह गया ढेर सारे पत्ते तोड़कर ले आया। बुद्ध ने कहा, “अब जहाँ से इन पत्तों को तोड़कर लाये हो, वहीं इन्हें लगा आओ।” 

अंगुलिमाल ने आश्चर्य से पूछा, “ये कैसे हो सकता है?” 

बुद्ध ने कहा, “जब तुम जानते हो कि टूटा जुड़ता नहीं, तो फिर तोड़ते क्यों हो?”

(देश मंथन, 19 मार्च 2015)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें