Monday, June 9, 2025
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मौन की महिमा

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

चंद्रवती हमारी जिन्दगी में जब आयी थी तब उसकी उम्र चालीस साल रही होगी। वो पिछले 25 वर्षों से हमारे साथ है। 

जन्मों को होता है पति-पत्नी का रिश्ता

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

पांडव लाक्षागृह में बतौर मेहमान बुलाए गये थे और जब उसमें आग लग गयी तो वो फँस गये थे। कहीं से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं था। अब कोई करे भी तो क्या करे। लाक्षागृह धू-धू कर जल रहा था। युधिष्ठिर विचलित थे। अब इसमें से कोई कैसे बाहर निकले। सबकी आँखों में यही सवाल था। 

रिश्तों में ईमानदारी रखें

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

मैं रिश्तों की कहानियाँ लिखता हूँ। जो मुझसे मिलता है, मैं उसे बताता हूँ कि एक दिन आदमी के पास सबकुछ होगा, लेकिन वो तन्हा होगा। मैं जहाँ जाता हूँ, सबसे यही कहता हूँ कि अपने रिश्तों को पहचानिए, उनकी कद्र कीजिए। रिश्ते हैं, तो सब-कुछ है। 

बंदर बना राजा

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

यह कहानी मुझे किसी ने सुनाई थी। इस कहानी को सुन कर मैं बहुत देर तक अकेले में हँसता रहा। नहीं, मैं हँस नहीं रहा था, दरअसल मैं रो रहा था। 

रिश्तों का पाठ

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

बचपन में मुझे चिट्ठियों को जमा करने का बहुत शौक था। हालाँकि इस शौक की शुरुआत डाक टिकट जमा करने से हुई थी। लेकिन जल्द ही मुझे लगने लगा कि मुझे लिफाफा और उसके भीतर के पत्र को भी सहेज कर रखना चाहिए। इसी क्रम में मुझे माँ की आलमारी में रखी उनके पिता की लिखी चिट्ठी मिल गयी थी। मैंने माँ से पूछ कर वो चिट्ठी अपने पास रख ली थी। बहुत छोटा था, तब तो चिट्ठी को पढ़ कर भी उसका अर्थ नहीं पढ़ पाया था, लेकिन जैसे-जैसे बड़ा होता गया बात मेरी समझ में आती चली गयी। 

कौन हैं जो मोदी को विफल करना चाहते हैं?

 

 

 

संजय द्विवेदी, अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय  :

क्या सच में नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार का जादू टूट रहा है? अगर टूट रहा है तो वो कौन है, जिसका जादू सिर चढ़कर बोल रहा है? वे कौन लोग हैं जो पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई देश की पहली राष्ट्रवादी सरकार को मार्ग से भटकाना चाहते हैं? जाहिर तौर पर सवाल कई हैं पर उनके उत्तर नदारद हैं।

कब होगी आमची दिल्ली

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

दिल्ली में तो सुबह-सुबह नींद खुल ही जाती है, लेकिन मुंबई आकर मैं चाहता हूँ कि कुछ देर और होटल के बिस्तर में दुबका रहूँ। फिर तो जब सुबह होगी तो हो ही जायेगी।

दिल्ली चुनाव और दिल की बात

अभिरंजन कुमार :

दिल्ली में कोई जीते, कोई हारे, मुझे व्यक्तिगत न उसकी कोई ख़ुशी होगी, न कोई ग़म होगा, क्योंकि मुझे मैदान में मौजूद सभी पार्टियां एक ही जैसी लग रही हैं। अगर मैं दिल्ली में वोटर होता, तो लोकसभा चुनाव की तरह, इस विधानसभा चुनाव में भी "नोटा" ही दबाता।

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