Tag: Qamar Waheed Naqvi
विकास की बाँसुरी, फ़ासिस्ज़्म के तम्बू!
कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :
रोहित वेमुला ने आत्महत्या क्यों की? वह कायर था? अवसाद में था? जिन्दगी से हार गया था? उसके मित्रों ने उसकी मदद की होती, तो उसे आत्महत्या से बचाया जा सकता था? क्या उसकी आत्महत्या के ये कारण थे? नहीं, बिलकुल नहीं।
पाकिस्तान : यह माजरा क्या है?
कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :
क्या पाकिस्तान बदल रहा है? पठानकोट के बाद पाकिस्तान की पहेली में यह नया सवाल जुड़ा है। लोग थोड़ा चकित हैं। कुछ-कुछ अजीब-सा लगता है। आशंकाएँ भी हैं, और कुछ-कुछ आशाएँ भी! यह हो क्या रहा है पाकिस्तान में? मसूद अजहर को पकड़ लिया, जैश पर धावा बोल दिया, सेना और सरकार एक स्वर में बोलते दिख रहे हैं, पाकिस्तान अपनी जाँच टीम भारत भेजना चाहता है, और चाहता है कि रिश्ते (Indo-Pak Relations) सुधारने की बातचीत जारी रहे। ऐसा माहौल तो इससे पहले कभी पाकिस्तान में दिखा नहीं! तो क्या वाकई पाकिस्तान में सोच बदल रही है? क्या अब तक वह आतंकवादियों के जरिये भारत से जो जंग लड़ रहा था, उसे उसने बेनतीजा मान कर बन्द करने का फैसला कर लिया है? क्या वहाँ की सेना भी उस जंग से थक चुकी है? क्या पाकिस्तान इस बार वाकई आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करेगा या फिर वह बस दिखावा कर रहा है? क्या उस पर भरोसा करना चाहिए? टेढ़े सवाल हैं।
माल्दा, मुसलमान और कुछ सवाल!
कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :
माल्दा एक सवाल है मुसलमानों के लिए! बेहद गम्भीर और बड़ा सवाल। सवाल के भीतर कई और सवालों के पेंच हैं, उलझे-गुलझे-अनसुलझे। और माल्दा अकेला सवाल नहीं है। हाल-फिलहाल में कई ऐसी घटनाएँ हुईं, जो इसी सवाल या इन्हीं सवालों के इर्द-गिर्द हैं। इनमें बहुत-से सवाल बहुत पुराने हैं। कुछ नये भी हैं। कुछ जिहादी आतंकवाद और देश में चल रही सहिष्णुता-असहिष्णुता की बहस से भी उठे हैं।
मालदा पर मुखर हुए असगर वजाहत और कमर वहीद नकवी
देश मंथन डेस्क :
इस रविवार 3 जनवरी को पश्चिम बंगाल के मालदा जिले में विरोध रैली के नाम पर बड़ी संख्या में जमा हुए लोगों की हिंसक वारदातों पर ज्यादातर बुद्धिजीवियों ने चुप्पी साध रखी है, मगर प्रख्यात साहित्यकार असगर वजाहत और वरिष्ठ पत्रकार कमर वहीद नकवी ने मुखर तरीके से सख्त टिप्पणियाँ की हैं।
पाकिस्तान: एक अटका हुआ सवाल
कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :
पाकिस्तान एक अटका हुआ सवाल है। वह इतिहास की एक विचित्र गाँठ है। न खुलती है, न बाँधती है, न टूटती है, न जोड़ती है। रिश्तों का अजीब सफरनामा है यह! एक युद्ध, जो कहीं और कभी रुकता नहीं। एक युद्ध जो सरकारों के बीच है, और एक युद्ध जो जाने कितने रूपों में, कितने आकारों में, कितने प्रकारों में, कितने मैदानों में, कितने स्थानों में दोनों ओर के एक अरब चालीस करोड़ मनों में, दिलों में, दिमागों में सतत, निरन्तर जारी रहता है! यह युद्ध भी विचित्र है। कभी युद्ध करने के लिए युद्ध, तो कभी युद्ध के खिलाफ युद्ध! हाकी, क्रिकेट में एक-दूसरे को हारता देखने की जंग, तो जरा-सा मौका दिखते ही दिलों को जोड़ने की जंग भी!
ऐसी दिखती है 2016 की तस्वीर!
कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :
तो साल बदल गया। जैसा हर साल होता है, हर साल कुछ बदलता है, लेकिन बहुत-कुछ नहीं भी बदलता। जो कभी नहीं बदलता, उस पर बात भी कभी नहीं होती। आखिर यथावत पर क्या बात की जाये? वह तो जैसा है, वैसा ही रहेगा। गरीब हैं तो हैं, गरीबी है तो है, करोड़ों लोग बेघर हैं तो हैं, वह तो वैसे ही रहेंगे और विकास का सिनेमा देखते रहेंगे, रैलियों में भीड़ बनते रहेंगे, भाषणों पर तालियाँ बजाते रहेंगे, वोट देते रहेंगे, जिन्दगी बदलने की आस में सरकारें बदलते रहेंगे और यथावत जीते रहेंगे, यथावत मरते रहेंगे।
यह कैसा ‘बचकाना न्याय’ है?
कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :
लोग अब खुश हैं। अपराध और अपराधियों के खिलाफ देश की सामूहिक चेतना जीत गयी। किशोर न्याय (Juvenile Justice) पर एक अटका हुआ बिल पास हो चुका है। अब कोई किशोर अपराधी उम्र के बहाने कानून के फंदे से नहीं बच पायेगा। किसी अटके हुए बिल ने आज तक देश की 'सामूहिक चेतना' को ऐसा नहीं झकझोरा, जैसा इस बिल ने किया। जाने कितने बिल संसद में बरसों बरस लटके रहे, लटके हुए हैं। लोकपाल तो पचास साल तक कई लोकसभाओं में कई रूपों में आता-जाता, अटकता-लटकता रहा। देश की सामूहिक चेतना नहीं जगी। महिला आरक्षण बिल भी बरसों से अटका हुआ है। उस पर भी देश की 'सामूहिक चेतना' अब तक नहीं जग सकी है! और शायद कभी जगे भी नहीं!
न्याय क्या सबके लिए बराबर है?
कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :
बड़ी-बड़ी अदालतें हैं। बड़े-बड़े वकील हैं। बड़े-बड़े कानून हैं। और बड़े-बड़े लोग हैं। इसलिए छोटे-छोटे मामले अक्सर ही कानून की मुट्ठी से फिसल जाते हैं! साबित ही नहीं हो पाते! और लोग चूँकि बड़े होते हैं, इतने बड़े कि हर मामला उनके लिए छोटा हो ही जाता है! वैसे कभी-कभार ऐसा हो भी जाता है कि मामला साबित भी हो जाता है। फिर? फिर क्या, बड़े लोगों को बड़ी सज़ा कैसे मिले? इसलिए सजा अक्सर छोटी हो जाती है! और अगर कभी-कभार सजा भी पूरी मिल जाये तो? तो क्या? पैरोल पर एक कदम जेल के अन्दर, दो कदम जेल के बाहर! वह भी न हो सके तो अस्पताल तो हैं ही न!
धर्म-निरपेक्ष कि पंथ-निरपेक्ष?
कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :
पिछले हफ्ते बड़ी बहस हुई। सेकुलर मायने क्या? धर्म-निरपेक्ष या पंथ-निरपेक्ष? धर्म क्या है? पंथ क्या है? अँगरेजी में जो 'रिलीजन' है, वह हिन्दी में क्या है—धर्म कि पंथ? हिन्दू धर्म है या हिन्दू पंथ? इस्लाम धर्म है या इस्लाम पंथ? ईसाई धर्म है या ईसाई पंथ? बहस नयी नहीं है। गाहे-बगाहे इस कोने से, उस कोने से उठती रही है। लेकिन वह कभी कोनों से आगे बढ़ नहीं पायी!
क्या चाहिए आपको, लोकतंत्र या धर्म-राज्य?
कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :
सिर्फ बीस दिन हुए थे। शायद ही ऐसा पहले कभी हुआ हो। देश में कोई नयी सरकार बनी हो और महज बीस दिनों में ही यह या इस जैसा कोई सवाल उठ जाये! तारीख थी 14 जून 2014, जब 'राग देश' के इसी स्तम्भ में यह सवाल उठा था-2014 का सबसे बड़ा सवाल, मुसलमान!