माल्दा, मुसलमान और कुछ सवाल!

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कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार : 

माल्दा एक सवाल है मुसलमानों के लिए! बेहद गम्भीर और बड़ा सवाल। सवाल के भीतर कई और सवालों के पेंच हैं, उलझे-गुलझे-अनसुलझे। और माल्दा अकेला सवाल नहीं है। हाल-फिलहाल में कई ऐसी घटनाएँ हुईं, जो इसी सवाल या इन्हीं सवालों के इर्द-गिर्द हैं। इनमें बहुत-से सवाल बहुत पुराने हैं। कुछ नये भी हैं। कुछ जिहादी आतंकवाद और देश में चल रही सहिष्णुता-असहिष्णुता की बहस से भी उठे हैं।

मुसलमानों के विरोध-प्रदर्शन का क्या तुक था?

सवाल पूछा जा रहा है कि माल्दा में जो हुआ, क्या वह मुसलमानों की असहिष्णुता नहीं है? क्या कमलेश तिवारी नाम के किसी एक नेता के बयान पर इतना हंगामा करने का कोई तुक था कि उसके खिलाफ माल्दा समेत देश के कई हिस्सों में आगबबूला प्रदर्शन किये जायें? खास कर तब, जबकि कमलेश तिवारी के खिलाफ कानून तुरन्त अपना काम कर चुका है, खास कर तब जबकि हिन्दू महासभा जैसा संगठन तक भी उसकी निन्दा कर चुका है। इसके बाद और क्या चाहिए था? घटना इतनी पुरानी हो चुकी। अब क्यों प्रदर्शन? अब क्यों ऐसा बेवजह गुस्सा? अब क्यों ऐसी उन्मादी हिंसा? सवाल बिलकुल जायज हैं। और चाहे जो कह लीजिए, इन सवालों का कोई जवाब समझ में नहीं आता!

माल्दा के पहले केरल की घटनाएँ

माल्दा के कुछ दिन पहले केरल से खबर आयी थी एक मुस्लिम वीडियोग्राफर का स्टूडियो जला देने की। उसकी गलती बस इतनी थी कि उसने व्हाट्सएप पर यह सुझाव दिया था कि मुस्लिम औरतों को बुर्क़े या हिजाब का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। उसके पहले केरल में ही एक महिला पत्रकार वीपी रजीना के इस खुलासे पर उन्हें गन्दी-गन्दी गालियाँ दी गयीं कि केरल के एक मदरसे में बच्चों का यौन शोषण होता था। इन दोनों मामलों पर भी जो हंगामा हुआ, वह क्यों होना चाहिए था, यह सवाल आज मुसलमानों को अपने आप से पूछना चाहिए! क्यों मुसलमान यह सुझाव तक भी नहीं बर्दाश्त कर सकते कि बुर्का या हिजाब न पहना जाये? सुझाव देने वाले ने इस्लाम की क्या तौहीन कर दी? क्या ईश निन्दा की? मुसलमानों के खिलाफ क्या टिप्पणी कर दी? बस एक सुझाव ही तो दिया था!

रजीना की गलती क्या थी?

इसी तरह रजीना की गलती क्या थी? उसने एक मदरसे में हुई कुछ घटनाओं का खुलासा इस उम्मीद में किया था कि शायद मामले की जाँच हो, शायद दोषियों की पहचान कर उन्हें सजा दी जाये, ऐसे कदम उठाये जायें ताकि भविष्य में वैसी घटनाओं को रोका जा सके, मदरसों के संचालक इसका ध्यान रखें। इसमें क्या गलत था? क्या इसलाम विरोधी था? किस बात के लिए रजीना के खिलाफ गाली अभियान चलाया गया?

क्या इस्लाम का मतलब असहिष्णु होना है?

हाल-फिलहाल की इन तीनों घटनाओं पर मुसलमानों की ऐसी प्रतिक्रिया का कोई जायज आधार नहीं था। कोई तर्क नहीं था। कोई तुक नहीं था। क्या यह मुसलमानों के लिए सोचनेवाली बात नहीं है कि किसी का एक सुझाव देना भी उन्हें क्यों बर्दाश्त नहीं है, किसी का किसी अपराध को उजागर करना उन्हें क्यों बर्दाश्त नहीं है? इससे बड़ी असहिष्णुता और क्या होगी? क्या इस्लाम का मतलब इतना असहिष्णु होना है? कतई नहीं।

उम्मीद थी कि वक्क के साथ, पढ़ने-लिखने के साथ और एक उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहने के अनुभवों के साथ मुसलमान कुछ सीखेंगे, कुछ बदलेंगे और कठमुल्लेपन की कुछ जंजीरें तो टूटेंगी ही। हालाँकि ऐसा नहीं है कि बदलाव बिलकुल नहीं आया है। आया है और वह सोशल मीडिया पर दिखता भी है। वरना आज से तीस साल पहले 1985 में जब शाहबानो मसले पर मैंने मुस्लिम कठमुल्लेपन और पर्सनल लॉ के खिलाफ लिखा था, तब शायद मेरी राय से सहमत होने वाले इक्का-दुक्का ही मुसलमान रहे हों या हो सकता है बिलकुल ही न रहे हों। यह पता लगा पाना तब मुमकिन नहीं था क्योंकि तब सोशल मीडिया नहीं था। लेकिन आज काफी भारतीय मुसलमान (Indian Muslims) ऐसे हैं, जो सोशल मीडिया पर खुल कर यह लिख रहे हैं कि मुस्लिम समाज को किस तरह अपनी सोच बदलनी चाहिए, धर्म की जकड़न और कट्टरपंथ से बाहर निकलना चाहिए, वोट बैंक के रूप में दुहे जाने और थोथे भावनात्मक मुद्दों के बजाय शिक्षा, विकास और तरक्की के बुनियादी सवालों पर ध्यान देना चाहिए और आधुनिक बोध से चीजों को देखने की आदत डालनी चाहिए।

लेकिन इस हलके से बदलाव के बावजूद भारतीय मुस्लिम समाज (Indian Muslim Society) का बहुत बड़ा हिस्सा अब भी कूढ़मगज है और सुधारवादी कोशिशों में उसका कोई विश्वास नहीं है। वरना ऐसा क्यों होता कि बलात्कार की शिकार इमराना (Imrana Rape Case) और दो पतियों के भँवर के बीच फँसी गुड़िया (The queer case of Gudia, Taufiq and Arif) के मामले में शरीअत के नाम पर इक्कीसवीं सदी में ऐसे शर्मनाक फैसले होते और देश के मुसलमान चुप बैठे देखते रहते! ऐसे मामलों में मुसलमानों का नेतृत्व कौन करता है, उन्हें राह कौन दिखाता है? ले दे कर मुल्ला-मौलवी या उनका शीर्ष संगठन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड। राजनीतिक नेतृत्व कभी रहा नहीं। और शहाबुद्दीन, बनातवाला, सुलेमान सैत या ओवैसी सरीखों का जो नेतृत्व यहाँ-वहाँ उभरा भी, धार्मिक पहचान के आधार पर ही उभरा। इसलिए वह मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ही भड़का कर उन्हें हाँकते रहे। रही-सही कसर तथाकथित सेकुलर राजनीति ने पूरी कर दी, जो वोटों की गणित में कट्टरपंथी और पुरातनपंथी कठमुल्ला तत्वों को पालते-पोसते, बढ़ाते रहे और जानते-बूझते हुए उनके अनुदार आग्रहों के आगे दंडवत होते रहे। इसने मुसलमानों के बीच शुरू हुई सारी सुधारवादी कोशिशों का गला घोंट दिया क्योंकि सत्ता हमेशा उनके हाथ मजबूत करती रही, जो ‘इस्लाम खतरे में है’ का नारा लगा-लगा कर मुसलमानों को भी और सत्ता को भी डराते रहे।

धार्मिक पहचान से इतर कुछ नहीं!

इसीलिए मुसलमानों की सबसे बड़ी समस्या (biggest problem of Indian Muslims) यही है कि अपनी धार्मिक पहचान से इतर वह और कुछ देख नहीं पाते। और यही वजह कि मुसलमानों के पास अपने कोई नायक भी नहीं हैं। पिछले दिनों किसी ने सवाल उठाया था कि ए। पी। जे। अब्दुल कलाम को मुसलमान अपना हीरो क्यों नहीं मानते? सवाल पूछनेवाले ने यह ध्यान नहीं दिया कि कलाम के पहले भी मौलाना अबुल कलाम आजाद, डॉ. जाकिर हुसैन या फखरुद्दीन अली अहमद मुसलमानों के हीरो क्यों नहीं बन सके? और छोड़िए, जिन्दगी भर मुसलमानों, बाबरी मसजिद और मुस्लिम पर्सनल लॉ के लिए लड़ते रहे सैयद शहाबुद्दीन तक को कोई मुसलमान अपना हीरो नहीं मानता, आज कोई उनका नामलेवा क्यों नहीं है? मुसलमानों का यही मुसलमानों का विचित्र मनोविज्ञान है, जिसे समझे बिना यह समझा ही नहीं जा सकता कि मुसलमान आखिर इस तरह धर्म के फंदे में क्यों फँसा हुआ है?

असली मुद्दों पर क्यों नहीं आन्दोलित होते मुसलमान?

समस्या की सारी जड़ यहीं है। इसी मुद्दे को लेकर सोशल मीडिया पर कई मुस्लिम मित्रों ने जोरदार ढंग से यह सवाल उठाया आखिर क्यों मुसलमान आज तक कभी अपनी बुनियादी जरूरतों पर, आर्थिक मुद्दों पर, सम्मान की जिन्दगी जीने को लेकर कभी आन्दोलित नहीं हुआ। जब भी आन्दोलित हुआ तो धर्म के नाम पर और उसमें भी कभी मुसलमानों ने मुम्बई, गुजरात या कहीं के दंगों की जाँच के लिए, दोषियों को सज़ा दिलाने या बेहतर मुआवजे की माँग को लेकर कभी आन्दोलन नहीं किया, कभी बड़े-बड़े जुलूस नहीं निकाले। तीस्ता सीतलवाड तो गुजरात के मुसलमानों के लिए लड़ीं, लेकिन मुसलमानों के वे नेता, वे उलेमा कहाँ-कहाँ दंगा पीड़ितों को इंसाफ दिलाने के लिए लड़े? वे जो हर कदम पर मुसलमानों को भड़काने के लिए तलवारें भाँजते हैं, वे कभी मुसलमानों की वाजिब लड़ाई के लिए आगे क्यों नहीं आते?

जब तक मुसलमान इस सच्चाई को नहीं समझेंगे और अपनी धार्मिक पहचान से हट कर चीजो को देखना और समझना नहीं शुरू करेंगे, तब तक उनकी कूढ़मगजी का कोई इलाज नहीं है। तब तक उन्हें एहसास भी नहीं होगा कि वह आखिर अपने पिछड़ेपन और ऐसी जकड़ी सोच से क्यों नहीं उबरते? मुसलमानों को सोचना चाहिए और शिद्दत से सोचना चाहिए कि सुधारवादी और प्रगतिशील क़दमों का हमेशा उनके यहाँ विरोध क्यों होता है? तीन तलाक जैसी बुराई को आज तक क्यों खत्म नहीं किया जा सका? वे शिक्षा में इतने पिछड़े क्यों हैं? धर्म के नाम पर जरा-जरा सी बातों पर उन्हें क्यों भड़का लिया जाता है? कहीं लड़कियों के फुटबॉल खेलने के खिलाफ फतवा क्यों जारी हो जाता है? कोई क्रिसमस पर ईसाइयों को बधाई देने को क्यों ‘इस्लाम-विरोधी घोषित कर देता है? मुसलमानों को इन सवालों पर सोचना चाहिए और यह भी सोचना चाहिए कि उनके आसपास उनके बारे में लगातार नकारात्मक छवि क्यों बनती जा रही है? और क्या ऐसा होना ठीक है? मुसलमानों को अपने भीतर सुधारों और बदलावों के बारे में गम्भीरता से सोचना चाहिए।

और अन्त में।।।

मुसलमानों के खिलाफ बन रही नकारात्मक छवि के पीछे मुसलमानों का बड़ा हाथ तो है ही, लेकिन यह भी सच है कि बहुत-से झूठे-सच्चे प्रचार अभियान मुसलमानों के खिलाफ लगातार चलाये जाते हैं, कभी संगठित रूप से और कभी अलग-अलग। उप-राष्ट्रपति हामिद अन्सारी के खिलाफ सत्तारूढ़ दल के सरपरस्त संगठन की तरफ से तीन-तीन बार कैसे बेसिर-पैर के अभियान चलाये गये, यह किसी से छिपा नहीं है। सोशल मीडिया पर मुसलमानों के खिलाफ कितना बड़ा गिरोह सक्रिय है, यह बात सबको पता है। लेकिन मीडिया में भी एक तबका बाकायदा इस अभियान में जुटा है। अभी हाल में ‘न्यू इंडियन एक्सप्रेस’ ने एक खबर छापी कि कोलकाता के एक मदरसे के हेडमास्टर काजी मासूम अख्तर (Kazi Masum Akhtar) की कठमुल्ला तत्वों ने इसलिए पिटाई कर दी कि वह गणतंत्र दिवस के लिए बच्चों को राष्ट्रगान गाने का अभ्यास करा रहा था, लेकिन मदरसा संचालकों ने इसलिए उसको पीटा कि वे राष्ट्रगान को ‘हिन्दुत्ववादी’ मानते हैं। इसके बाद यह खबर जस की तस कुछ समाचार एजेन्सियों ने जारी की और कई छोटे-बड़े अखबारों, वेबसाइटों पर छपी, कुछ टीवी चैनलों पर चली, पैनल डिस्कशन भी हो गये। सोशल मीडिया पर खूब बतंगड़ बना। बाद में newslaundry।com ने खबर दी कि हेडमास्टर अख्कर की पिटाई की खबर तो सच है, और यह पिटाई कठमुल्लेपन के विरुद्ध उनके प्रगतिशील विचारों के कारण हुई थी, यह भी सच है। लेकिन पिटाई की यह घटना नौ महीने पहले हुई थी और तब से अख्कर मदरसे आये ही नहीं है। इसलिए इस गणतंत्र दिवस के लिए बच्चों को राष्ट्रगान का अभ्यास कराने का सवाल ही नहीं उठता। मदरसे के एक हिन्दू शिक्षक सुदीप्तो कुमार मंडल के मुताबिक वह दस साल से मदरसे में पढ़ा रहे हैं और राष्ट्रगान मदरसे की डायरी में छपा है और हर दिन सुबह की प्रार्थना में गाया जाता है और यह सिलसिला तब से है, जब अख्कर ने मदरसे की नौकरी शुरू भी नहीं की थी। मदरसे में इस समय सात हिन्दू शिक्षक हैं।

(देश मंथन 10 जनवरी 2016)

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