क़मर वहीद नक़वी, वरिष्ठ पत्रकार :
तो क्या ‘आप’ का पुनर्जन्म हो सकता है? दिल्ली में चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। सबसे बड़ा सवाल यही है, ‘आप’ का क्या होगा? केजरीवाल या मोदी? दिल्ली किसका वरण करेगी?
महाराष्ट्र और हरियाणा के किले फतह कर चुकी मोदी की सेना क्या दिल्ली में भी वही कमाल दिखा पायेगी? केजरीवाल क्या मोदी के अश्वमेध रथ को रोक पायेंगे? बनारस में मोदी भले ही भारी वोटों से जीते हों, लेकिन वहाँ क्या गजब चुनावी नजारा था! और अब दिल्ली में भी क्या कोई गजब चुनावी नजारा देखने को मिलेगा? खास तौर पर तब, जब लगातार चुनावी पराजयों से मुरझायी हुई काँग्रेस मरघिल्ली-सी दुबकी पड़ी हो!
केजरीवाल: अस्तित्व की लड़ाई
इसीलिए, कहने को भले यह एक छोटे-से राज्य की विधानसभा का चुनाव हो। एक ऐसे राज्य की महज सत्तर सीटों वाली विधानसभा का चुनाव, जो पूर्ण राज्य बनने के लिए तरस रहा हो। फिर भी दिल्ली की यह लड़ाई एक बड़ी चीज तय करेगी, वह यह कि क्या गैर-परंपरागत राजनीति का जो अँखुआ एक बरस पहले अचानक फूटा था, वह कुम्हला कर खत्म हो जायेगा या उसमें नयी कोंपलों की उम्मीदें खिलेंगी? इसलिए, अरविंद केजरीवाल और उनकी सेना के लिए यह अस्तित्व की लड़ाई है। जान की बाजी है। अभी नहीं तो कभी नहीं! आम आदमी पार्टी को अगर एक राजनीतिक संभावना के तौर पर फिर से जन्मना है तो इस चुनाव में उसे जी-जान लगा कर अच्छा प्रदर्शन करना ही पड़ेगा, विकट जूझम-जूझ करनी पड़ेगी। वह सरकार बना पाये या न बना पाये, लेकिन उसे बीजेपी से बिल्कुल बराबरी की गुत्थम-गुत्था तो करनी ही पड़ेगी। वरना एक अकाल मृत्यु के बाद उसकी भटकती आत्मा को कौन जाने कितने बरसों तक पुनर्जन्म की प्रतीक्षा करनी पड़े, कि किस्मत से कोई अन्ना आंदोलन सरीखी दूसरी कोख मिल जाये! कहाँ मिल पाती है ऐसे नसीबों वाली कोख?
मोदी: नाक का सवाल
उधर, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए यह नाक का सवाल है। इज्जत की लड़ाई है! दो नये किले वह जीत चुके हैं। अगले दो और राज्य जीत लेने के करीब हैं! और इस सबके बाद उस सूबे को उन्हें फतह करना है, जहाँ से वह देश का राजकाज चला रहे हैं, जहाँ से लोकसभा की सातों सीटें उनकी पार्टी ने जीती हैं, जहाँ पिछले चुनाव में चार सीटों की कमी से उनकी पार्टी की सरकार बनते-बनते रह गयी थी, और जहाँ पिछले कुछ महीनों में उनके सिपहसालार जोड़-तोड़ के सारे कुलाबे मिला कर भी सरकार बनाने लायक गिनती नहीं पूरी कर पाये और ‘आप’ वाले रोज उन्हें ताना मारते रहे कि बीजेपी डर कर चुनाव से भाग रही है!
लेकिन क्या ‘आप’ के लिए मोदी की चतुरंगिणी सेना का मुकाबला कर पाना इतना आसान है? मोदी के मुकाबले ‘आप’ के पास क्या है? एक तरफ होगा 49 दिन के मुख्यमंत्री का कार्यकाल, जिसे बीजेपी वाले ‘भगोड़ा’ कहते हैं और दूसरी तरफ होगा दो सौ से ज्यादा दिन के प्रधानमंत्री का कामकाज (जब तक दिल्ली में चुनाव होंगे, तब तक मोदी सरकार के दो सौ दिन शायद पूरे हो चुके होंगे)। ‘आप’ के पास क्या? ईमानदारी से राजनीति करने की कोशिश, सस्ती बिजली, मुफ्त पानी, भ्रष्टाचार पर नकेल, वीआइपी कल्चर का खात्मा, आम आदमी के लिए खुला सत्ता का राजप्रसाद, एक अजन्मा जनलोकपाल, सोमनाथ भारती और राखी बिड़लान के लफड़े और धरने पर बैठ जानेवाला मुख्यमंत्री और अनाड़ी रणनीतिकार! मोदी के पास क्या है? विकास के लम्बे-चौड़े एजेंडे की बड़ी लम्बी-चौड़ी लिस्ट, जनता में घुला मोदी लहर का मीठा-मीठा खुमार, नयी मिली जीतों के चमकीले सर्टिफिकेट, मन भर मन की बातें, किलर इंस्टिंक्ट, नये मनलुभावन आइडिया भंडार, भव्य पैकेजिंग का चमत्कार, हिन्दुत्व का बघार और अमित शाह जैसे घाघ रणनीतिकार!
केजरीवाल की लाइन क्या होगी?
लड़ाई सीधी है। पत्ते दो हैं। जनता को चुनना है। इधर या उधर? मोदी या केजरीवाल? मोदी की लाइन तो साफ है। वही जो पिछले दो विधानसभा चुनावों में चली है और जो अभी झारखंड और जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनावों में चलायी जायेगी! लेकिन केजरीवाल की लाइन क्या होगी? पिछली बार उन्हें वोट क्यों मिला? इसलिए कि केजरीवाल एक नयी उम्मीद थे! बेईमानी के लिए बदनाम तमाम राजनीतिक दलों के बीच ईमानदार राजनीति की एक नयी उम्मीद! 2013 में इस केजरीवाल कार्ड में बड़ी अपील थी! केजरीवाल आज भी वैसे ही हैं। उनकी पार्टी आज भी वैसी ही है, लोगों ने जो उम्मीदें उनसे की थीं, 49 दिनों में वह उनसे डिगे भी नहीं, सिवा इसके कि सोमनाथ भारती की नपाई-कटाई करने के बजाए उनके समर्थन में धरने पर बैठ गये, जनलोकपाल पर जानबूझकर सरकार गिरवा दी और रही-सही कसर मीडिया को दुश्मन बना कर पूरी कर दी! लोगों को लगा कि बन्दा ईमानदार तो होगा, लेकिन जिम्मेदार नहीं!
जनता तो आज भी उम्मीद पर ही वोट दे रही है और शायद कुछ दिनों तक यह उम्मीद ऐसी ही बनी रहे! यह ‘मोदी छाप’ उम्मीद है। अभी भले ही कुछ खास न हो सका हो, लेकिन जनता को उम्मीद है कि जो होगा, अच्छा ही होगा। कम से कम पहले से तो अच्छा ही होगा!
मुकाबला मोदी से नहीं, तो किससे?
लेकिन केजरीवाल के तेरह वाले कार्ड में अब वैसी चुनाव जिताऊ अपील बची नहीं! शायद इसलिए कि लोकसभा चुनाव में पिटने के बाद से अब तक पिछले पाँच महीनों में केजरीवाल और उनकी टोली अपने ही खटरागों में उलझी पस्त पड़ी रही। अपने आन्दोलन को वह कोई शक्ल-सूरत नहीं दे पाये और पार्टी छितरती चली गयी। अब इस चुनाव में उनकी क्या रणनीति होगी, अभी कुछ साफ नहीं! बस, अभी एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि दिल्ली में उनका मुकाबला मोदी से नहीं, बीजेपी से है! कहने को आप कुछ भी कहते रहिए! बीजेपी किस चिड़िया का नाम है? बीजेपी यानी मोदी! और यह पानी की तरह साफ है कि मोदी खुद यह चुनाव लड़ेंगे, नुक्कड़-नुक्कड़ सभाएँ करेंगे और अपने लिए वोट माँगेंगे, जैसा उन्होंने महाराष्ट्र और हरियाणा में किया। मोदी के लिए यह बीजेपी का नहीं, उनका चुनाव है! इसलिए मुकाबला तो आमने-सामने ही होगा! मोदी और केजरीवाल का मुका़बला! यह बीजेपी और ‘आप’ का मुकाबला नहीं है!
(पहले मुझे लगा कि केजरीवाल साहब यों ही धुन्नक में बोल गये होंगे यह मोदी से मुकाबला न होने की बात। लेकिन इस कालम के लिखे जाने के बाद देर रात पता लगा कि नहीं, ऐसा तो बाकायदा सोच-समझ कर बोला गया था। कुछ और पत्रकारों को दिये इंटरव्यू में भी केजरीवाल जी ने कहा था कि मतदाताओं की पसंद पीएम पद के लिए मोदी और सीएम के लिए केजरीवाल हैं। यही बात ‘आप’ की वेबसाइट पर भी बड़ी प्रमुखता से उछाली गयी! बाद में जब सोशल मीडिया पर इसकी जम कर छीछालेदर हुई तो वेबसाइट से इसे हटा लिया गया! कौन है केजरीवाल का सलाहकार भई?)
दूसरी बात, अभी ‘आप’ स्थानीय मुद्दों पर बीजेपी को घेरने में लगी है। दिल्ली में हर तरफ गन्दगी का ढेर है। सात साल से तीनों नगर निगमों पर बीजेपी काबिज है, यह उसका निकम्मापन है, वगैरह-वगैरह। यह सब मु्द्दे-वुद्दे ठीक हैं, लेकिन इतने बड़े हैं क्या कि लोग इन मुद्दों पर वोट दे देंगे? लगता तो नहीं है! जादू के खेल में सब जानते हैं कि जादू कुछ होता नहीं है, सब हाथ की सफाई है, लेकिन जादू के शो में मुकाबला तो जादू से बड़ा जादू दिखा कर ही जीता जा सकता है न! क्या केजरीवाल के पास ऐसा कोई जादू है? पिछली बार था, इसलिए जादू चल गया! इस बार पिटारे में क्या है श्रीमान!
मोदी को ‘वाकओवर’ नहीं देना चाहते, तो…
तो केजरीवाल अगर मोदी को ‘वाकओवर’ नहीं देना चाहते, तो कोई धारदार एजेंडा, कोई ब्लूप्रिंट, कोई सपना, कोई नयी उम्मीद, कोई वैकल्पिक और आकर्षक कैनवास उनके पास होना चाहिए। बीजेपी की आलोचना वाली कापी से वह कोई ऐसा विज्ञापन नहीं बना पायेंगे कि लोग उससे बहुत सहमत हो सकें! फिर बीजेपी के जन-धन बल का मुकाबला कर पाना भी केजरीवाल के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। निस्संदेह संघ का पूरा काडर पूरे दम से मैदान में उतरेगा, देश भर से लोग झोंके जायेंगे। क्या केजरीवाल की वालंटियर फौज तैयार है? बहुत दिनों से वह कुछ बुझी-बुझी दिखती है! उन्हें जोश से लबरेज कर मैदान में उतारना होगा। यह भी बड़ा काम लगता है! क्योंकि फिलहाल तो ‘आप’ के दो विधायक ही चुनाव लड़ने से मना कर चुके हैं! तो इस बार मूड बहुत अलग दिखता है! उधर, धन बल की बीजेपी के पास कमी नहीं। इवेंट्स मैनेजरों और प्लानरों की लम्बी-चौड़ी टीम है मोदी के पास। इस मोर्चे पर केजरीवाल की रणनीति क्या होगी? अभी पता नहीं!
कुल मिला कर यह कि क्या पिछली बार की तरह इस बार भी केजरीवाल दिल्ली चुनाव को किसी नये राजनीतिक वैचारिक ध्रुवीकरण की तरफ मोड़ पायेंगे या मोड़ने की उनकी कोई इच्छा है या योजना है या तैयारी है या सामर्थ्य है? अगर नहीं, तो दिल्ली के चुनावी नतीजों और ‘आप’ के भविष्य की भविष्यवाणी आसानी से की जा सकती है! (raagdesh.com)
(देश मंथन, 14 नवम्बर 2014)