संजय सिन्हा :
गोपियाँ कन्हैया से मनुहार कर रही थीं, “कान्हा हमारे कपड़े लौटा दो।”
एक के मनुहार पर कान्हा ने उसके कपड़े पेड़ से नीचे फेंक दिए, जिसे कपड़े मिल गए थे, उसने कहा कि जब तक बाकी सखियाँ निर्वस्त्र रहेंगी, वो भी कपड़े नहीं पहनेगी।
कान्हा ने पूछा, “तुम नारियाँ एक दूसरे के सामने निर्वस्त्र क्यों हो जाती हो?”
“क्योंकि हमारे बीच आपस में ऐसा कुछ नहीं कि कपड़े की आवश्यकता पड़े।”
“फिर पुरुष के सामने कपड़े क्यों?”
“तुम्हारे जैसे लोगों के डर से।”
“हम पुरुष कभी किसी के सामने निर्वस्त्र नहीं होते।”
“शायद तुम पुरुष अपने बीच की दूरी बनाए रखना चाहते हो। हर आक्रामक ऐसा ही करता है।”
“सच कहती हो। पुरुष आक्रामक होता है। वो आक्रामक होता है, इसीलिए उसे आपस में भी छिपाने की जरूरत पड़ती है।”
“नहीं, पुरुष सिर्फ आक्रामक ही नहीं होता, वो महिलाओं के लिए रक्षक भी होता है। वो रक्षक होता है, इसीलिये महिलाओं को पुरुषों के साथ की जरूरत होती है।”
“और महिला? वो सृष्टि की संचालिका होती है, इसलिए वो घर चलाती है?”
“हाँ, कान्हा। तुम हमारे कपड़े लौटा दो। मैं दुआ करुंगी कि जल्द तुम्हारा विवाह हो और तुम्हें एक अति सुंदर स्त्री मिले, जिसकी रक्षा की जिम्मेदारी तुम पर होगी और तुम्हारा घर चलाने की जिम्मेदारी उस पर।”
“फिर कौन किसके घर जाएगा? क्या मैं उस स्त्री के घर जाकर रहने लगूंगा? या फिर वो हमारे घर आएगी?”
“स्त्री तुम्हारे घर आएगी। यही विधान है। तुम उसकी रक्षा का वचन दोगे, उसकी मर्यादा का पालन करने का वचन दोगे, उसके बदले में वो तुम्हारा वंश बढ़ाएगी, तुम्हारा घर संवारेगी।”
“इसका अर्थ ये हुआ कि मैं विवाह करने उसके घर जाऊंगा और वो विवाह के बाद मेरे घर आएगी?”
“हाँ, कन्हैया, यही होगा। अब जल्दी से हमारे वस्त्र लौटा दो।”
“इसका मतलब हुआ कि लड़की विवाह के बाद अपने पिता के घर को छोड़ कर एक नए घर में रहने आएगी?।”
“हाँ, सृष्टि का संचालन तो तभी होगा।”
“तब तो लड़की के घर वालों को बहुत दुख होगा? उनका घर सूना हो जाएगा। लड़की ब्याह के बाद विदा हो जाएगी?”
“हाँ, यह सब तो होगा ही, लेकिन उस लड़की के घर भी तो कोई लड़की आएगी। इस तरह घर फिर से गुलजार हो उठेगा।”
“फिर भी विदाई में तकलीफ तो होगी ही?”
“हाँ कान्हा, साथ छूटने की पीड़ा तो होगी ही। पीड़ा ‘छूटने’ के मोह के कारण होती है। स्त्रियों को पता होता है कि विवाह के बाद एक घर छूट रहा है, एक नया घर मिलने जा रहा है। इसलिये उनके क्रंदन में भी ‘नए’ को पाने की खुशी होती है। स्त्रियां मन से मजबूत होती हैं, वो रहस्यों को भेद सकती हैं, इसलिए उन्हें खोने और पाने का भेद पता होता है।”
“अरे गोपियों, तुमने तो वो सब इतने कम में कह दिया, जिसे मैं अर्जुन के सामने युद्ध के वक्त कहने की सोच रहा था। यही तो कहना है मुझे कि पुराना छूटेगा, नया मिलेगा। हर शोक व्यर्थ है।”
“कन्हैया बातें न बना। हम ठंड में मरी जा रही हैं, तू हमारे कपड़े नीचे फेंक। हमें बड़ी लाज आ रही है।”
“हाँ, कपड़े तो दूंगा ही, लेकिन मेरा सवाल तो अभी जिंदा है कि पुरुष कभी इस तरह एक सरोवर में निर्वस्त्र होकर एक साथ स्नान नहीं करते और तुम महिलाओं को आपस में लज्जा नहीं आती। पर मुझ जैसे एक बालक से लज्जा आ रही है?”
“बताया तो कान्हा, पुरुष और महिलाओं में बड़ा फर्क है। यह फर्क देह का है।”
“ओह! तो लज्जा तन को है? पर देह की तो परिधि होती है। देही की नहीं और ठीक से देख और मैं देही हूँ। देह तो मेरा रथ है। फिर मुझसे क्या लज्जा? मैं तो असीम हूँ। विराट हूँ। मैं जब यहाँ से चला जाऊंगा, तब भी यहीं रहूंगा। जब यहाँ नहीं आया था, तब भी यहीं था। इसलिये लज्जा तो मन को होनी चाहिए, तन का क्या है? बाहर निकलो गोपियाँ अपने-अपने वस्त्र ले जाओ।”
“कन्हैया, ये सब हमारी समझ से परे है, देह, परिधि। हमें तो वस्त्र चाहिए, बस। हम सब तुमसे प्रेम करती हैं। हम तुम्हारी दासियाँ हैं।”
“नहीं। महिलाएँ पुरुष की दासी नहीं हो सकतीं। पुरुष को महिलाओं का दास होना चाहिए। महिलाएँ तो सृष्टि की संचालिका होती हैं, अभी तुमने कहा था।”
“हाँ, हाँ महिलाएँ संचालिका होंगी। तुम अब वस्त्र दे दो। कोई देख लेगा तो क्या कहेगा?”
“कोई कुछ नहीं कहेगा। जो कहना है, वो हमारा और तुम्हारा मन कहेगा।”
“मैं सबके वस्त्र लौटा रहा हूँ। तुम सब दुआ करना, मेरा विवाह एक सुंदर स्त्री से हो, सुंदर मन वाली से।”
“और तन से नहीं?”
“कहा न, मैं तन हूँ ही नहीं। तुम सब भी तन नहीं हो। जो है, मन है। तन के भाव नहीं होते।”
“तो बहुत दिनों बाद दूर अमेरिका में बैठे लोग जब कहेंगे कि भारत में विवाह के बाद विदाई के आंसू नकली होते हैं, तो इसका मतलब यही होगा कि वो सिर्फ तन रह जाएंगे? तन के भाव नहीं होंगे, इसीलिये उन्हें शोक भी नहीं होगा?”
“हाँ, वहाँ विवाह तन का मिलन होगा। वो समाज भोगप्रधान होगा। वो ऊबे हुए लोगों का समाज होगा। वो देही का नहीं देह का समाज होगा। वो नितांत अकेले लोगों का समाज होगा। वो तुम सबकी तरह इस तरह एक साथ नदी में एकसाथ सामूहिक स्नान का सुख नहीं उठाने वालों का समाज होगा।” “कान्हा, वस्त्र दे दो। अब तो तुमने सब जान लिया कि विवाह क्या है? स्त्रियाँ ही विदा क्यों होती हैं? विदाई का मोह क्या होता है?”
“और तुमने भी तो जाना गोपियों कि देह क्या होती है? मन क्या होता है? चलते-चलते तुम ये भी जान लो कि अंधेरे में जीने वाले बेशक अंधकार को जीने लगते हैं, उनकी कोशिशें बेशक अंधेरे में ही देखने भी लगती हैं, अपनी राह भी अंधेरे में चुन लेती हैं, लेकिन इसका मतलब नहीं कि उनके मन में उजाले की कामना नहीं होती। वो, जो कभी उजाले से रूबरू नहीं हुए होते, उनके मन में भी उजाले की कामना होती है। उजाले की कामना ही मुक्ति की कामना है। तुम भविष्य के जिस देश की बात कर रही हो, वो भविष्य में परमाणु शक्ति से पूरे देश रौशन कर लेगा, लेकिन मन को रौशन करने के लिए उसे परमाणु नहीं, पुराण की जरूरत पड़ेगी। तब उन्हें तुम सबके इसी गाँव तक आना पड़ेगा। उन्हें तुम सबसे सामूहिकता का पाठ पढ़ना होगा। उन्हें समझना होगा कि आक्रमण से संसार नहीं चलता, संसार डर से भी नहीं चलता। संसार चलेगा प्रेम से। संसार चलेगा उनसे, जिन्हें आपस में एक दूसरे से कुछ छिपाने की जरूरत नहीं रहेगी। संसार चलेगा तुम स्त्रियों से, जो एक-दूसरे के सामने वस्त्रविहीन होने में संकोच नहीं करेंगी और प्रेम विवाह की सबसे बड़ी कड़ी है। विवाह संसार को चलाने का सबसे सुगम तरीका है। तन इसका रथ होगा, रथि तो मन ही होगा।”
“बहुत खूब कान्हा।”
“ये लो अपने वस्त्र। बाहर निकल आओ।”
“और विवाह के बाद विदाई की घड़ी में संजय सिन्हा की उदासी का सबब?”
“कहा न! संसार प्रेम से ही चलेगा। जो संजय की तरह भावनाओं से संचालित होंगे, वही प्रेम को समझेंगे। सुदूर अमेरिका में बैठे लोग तो देह को प्रेम मान कर अंधकार को जीते रहेंगे। मेरी प्यारी गोपियों, आना उनको भी तुम सबकी शरण में पड़ेगा, कोई तर्क से आएगा, कोई विश्वास से।”
(देश मंथन 04-03-15)