संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मेरे एक मित्र कल विदेश यात्रा पर निकल रहे हैं। कल उन्होंने फोन कर मुझे बताया कि वो कुछ दिनों के लिए बाहर घूम-फिर कर मन बहला आएँगे।
मैंने उन्हें बधाई दी और कहा कि पर्यटन सचमुच शानदार जरिया है जिन्दगी को समझने का। मैं उन्हें फोन पर ही बताने लगा कि आप वहाँ ये चीज जरूर देखिएगा, उस जगह जरूर जाइएगा।
कहने को तो मैंने कह दिया, लेकिन मुझे फोन पर उनसे बात करते हुए लगा कि उनकी दिलचस्पी पर्यटन में नहीं। वो यहाँ रोज-रोज के तनाव और परेशानियों से दुखी होकर घूमने जा रहे हैं। वो अपनी यात्रा में खुशी तलाशने जा रहे हैं। वो अपने दुखों से भाग रहे हैं।
हम में से ज्यादातर लोग अपनी रोज की जिन्दगी से जब ऊबने लगते हैं, तो बाहर घूमने निकल जाते हैं। घर में किसी बात पर झगड़ा हो, तो आदमी बाहर निकल कर जरा संतोष प्राप्त करने की सोचने लगता है।
पर क्या इससे संतोष मिलता है?
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एक महिला सड़क पर लैंप पोस्ट के नीचे कुछ ढूँढ रही थी। उधर से गुजरते हुए एक आदमी ने उससे पूछा कि आप क्या ढूँढ रही हैं, माँ?
महिला ने कहा कि उसकी सुई कहीं गिर गयी है, वो उसे ही ढूँढ रही है।
आदमी को महिला पर दया आ गयी। उसने कहा कि मैं आपकी मदद करता हूँ और वो बहुत बारीकी से लैंप पोस्ट की रोशनी में सुई तलाशने लगा। उसे ऐसा करते देख आसपास से गुजर रहे कई लोग रुक गये। जब उन्हें पता चला कि सुई ढूँढी जा रही है, तो सभी लोग मिल कर महिला की मदद करने लगे। काफी मशक्कत के बाद कहीं सुई नहीं मिली। आखिर परेशान हो कर एक आदमी ने महिला से पूछा, “अम्मा, सुई गिरी कहाँ थी?”
महिला ने बहुत संयत होकर कहा कि सुई गिरी तो सड़क के उस पार मेरी झोंपड़ी में थी।
“झोंपड़ी में?”
“हाँ, झोंपड़ी में।”
“तो पागल हो गयी हो क्या, अम्मा? सुई झोपड़ी में गिरी थी और तुम उसे तलाश यहाँ रही हो?”
“हाँ, बेटा, पर मेरी झोंपड़ी में बहुत अंधेरा है। मैंने सोचा कि सामने रोशनी है, वहीं मैं अपनी सुई तलाश करती हूँ, शायद मिल जाए!”
आदमी बिगड़ गया। कहने लगा कि ये महिला पागल हो गयी है। सुई गिरी इसकी झोंपड़ी में है, उसकी तलाश ये यहाँ कर रही है।
महिला मुस्कुराई। उसने धीरे से कहा, “पागल मैं नहीं बेटा, तुम सभी हो। मेरी तो छोटी सी चीज गुम हुई है। तुम्हारी जिन्दगी से तो खुशियाँ ही गुम हो चुकी हैं। तुम्हारे मन के अंधेरे में वो खुशियाँ गुम हुई हैं, पर देखो तुम उनकी तलाश कहाँ-कहाँ करते हो। कभी इधर जाते हो, कभी उधर जाते हो। जहाँ चमक-दमक दिखती है, उधर भागते हो। पर क्या तुमने अपने मन के कोने में कभी खुशी तलाशने की कोशिश की है? नहीं। तुम कर ही नहीं सकते। तुम्हारे मन में अंधेरा है, इसीलिए तुम बाहरी रोशनी में उसे तलाशते फिरते हो। ठीक वैसे ही, जैसे मैं अपनी झोंपड़ी में गिरी सुई यहाँ तलाश रही हूँ।”
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आदमी को घूमना चाहिए। संसार का भ्रमण करना चाहिए। संसार को समझना चाहिए।
पर अगर आपका मकसद अपनी जिन्दगी के दुखों से मुक्ति पाना है, अगर आप रोज के तनाव से खुद को दूर करने के लिए घर से बाहर निकल रहे हैं, तो आपके बाहर जाने का मकसद ही गलत है। दुखों से मुक्ति जब भी मिलेगी, मन के कोने में उसके कारणों को ढूँढ़ने से मिलेगी।
अपने मन के कोनों में उजाला भरिए। उसे रोशन कीजिए। फिर देखिए, आपको आपकी निराशा की, आपके दुखों की वजह मिल जाएगी। एक बार आप अपने दुखों की वजह को समझ पाए, तो उसे दूर करना बहुत आसान हो जाएगा।
जब मन का दुख दूर हो जाए, फिर आप चाहे जहाँ जाएँ, आपकी खुशी दुगुनी हो जाएगी।
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मेरा मित्र विदेश घूम कर आएगा। वो मन बहला कर आएगा। लेकिन मैं जानता हूँ कि दो हफ्ते बाद वो फिर दुखी घूमेगा। वो सड़क के किनारे लैंप पोस्ट की रोशनी में अपनी जिन्दगी के दुखों को सिलने वाली सुई की तलाश कर रहा है। काश यही तलाश वो अपने मन की झोंपड़ी में करता!
सोच रहा हूँ मित्र को यह कहानी सुना ही दूँ। उसे बता दूँ कि तुम जो पाने जा रहे हो, वो तुम्हें बाहर नहीं मिलेगा। वो तुम्हारे भीतर है। तुम्हारे ही भीतर।
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याद आया, छठी कक्षा में मास्टर साहब शायद इसीलिए ही पढ़ाते थे-
“कस्तूरी कुंड़लि बसैं, मृग ढूंढ़ै बन माहिं।
ऐसैं घटि घटि राम हैं, दुनिया देखै नाहिं।”
(देश मंथन, 08 दिसंबर 2015)