श्री लगाने भर से कोई श्रीमान नहीं हो जाता सुव्रत राय

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पद्मपति शर्मा, वरिष्ठ खेल पत्रकार :

विद्यार्थी जीवन में जब मैं हरिश्चंद्र इंटर कालेज में कक्षा छह का विद्यार्थी था तब अंग्रेजी के अध्यापक महाशय ने बताया था प्रापर नाउन और कामन नाउन के बारे में। पता नहीं क्यों उन्होंने एक बात कही थी- ” कामन नाउन से प्रापर नाउन बनाया जा सकता है”। हमने यह सुन कर सीखा।

सन 1982 के मार्च के प्रथम सप्ताह में मुझे गोरखपुर में पहली बार गुरुजी की वह बात फिर से याद आयी- मैंने उस समय कामन नाउन को प्रापर नाउन बनने की छटपटाहट जिस सख्श में देखी थी उसका नाम था सुव्रत राय।

हुआ यूँ कि गोरखपुर के तत्कालीन क्रिकेटर कलेक्टर बृज मोहन वोहरा ने एक डबल विकेट क्रिकेट टूर्नामेंट का आयोजन किया था, जिसमें उस समय के सभी टेस्ट दिग्गज गावस्कर, कपिल, वेंगसरकर आदि ने भाग लिया। शाम को जिस शख्स के यहाँ डिनर था उनका नाम था सुव्रत राय। छोटे से बंगले के अहाते में शामियाना लगा कर पार्टी दी थी। माँ सहित उनका पूरा परिवार मौजूद था। प्रेस के नाम पर मैं और जागरण व आज के महाप्रबंधक द्वय रिजवी और दिनेश श्रीवास्तव आमंत्रित थे। दोनों ही अधिकारी मेरे परम मित्र भी थे। वहाँ राय ने सभी खिलाड़ियों को हैवीवेट सुपर लार्ज वीआईपी सूटकेस उपहार में दिया। 

यहाँ एक बात बता दूँ कि दिलीप वेंगसरकर से जागरण ने करार किया और इस मैच की रिपोर्ट वेंगी ने लिखी। अपने कालम में उन्होंने इस डिनर की चर्चा करते हुए लिखा कि कोई सहारा वाले के यहाँ पार्टी में बड़ा आनंद आया एकनाथ सोल्कर जैसों ने मिमिक्री से हम सभी को हँसा कर लोट-पोट कर दिया था। 

सुबह अखबार में कालम प्रकाशित हुआ। मैं उस समय जिलाधिकारी के बंगले में सुबह की चाय पी रहा था कि सुव्रत राय नमूदार हुए। सीधे मुझसे बोले कि यह क्या लिख दिया आपने? बीच में ही बात काट कर बोहरा ने, जो स्कूली जीवन में गावस्कर और अशोक मांकड़ के कप्तान हुआ करते थे, पूछा कि आप हैं कौन ? जब परिचय जाना तब मुँह बिचकाते हुए फिर सवाल दागा कि वह सरदारजी के सहारा आफिस में कब्जे का जो मामला था, तुम्ही हो वह ? फिर जवाब सुने बिना बोले कि पदम ने नहीं यह कालम वेंगसरकर ने लिखा है। वेंगी को क्या पता कि यहाँ दो सहारा है और पदमजी बनारस से आये हैं, उन्हें भी कोई जानकारी नहीं। खैर जाइए वेंगसरकर टीम के साथ बस से लखनऊ प्रस्थान करने वाला है। उससे पूछिए। राय वहाँ गये तब वेंगी बोला, ‘क्या बाबा वो पदम से बोलो।’ सुव्रत फिर लौटे तब मैंने कहा कि भाई आप जागरण को स्पष्टीकरण भेज दीजिए। रिजवी आपके मित्र हैं वह उसे छाप देंगे। मैं खुद ही बनारस के लिए अभी निकल रहा हूँ। परसों होली है।

मैंने उस समय महसूस किया था कि इस शख्स की असीम महत्वाकांक्षा है। मैं गलत साबित नहीं हुआ। वह देखते ही देखते सफलता का आसमान छूने लगे। यानी वह हो गये प्रापर नाउन। जिस सहारा शब्द के लिए वह छटपटा रहे थे उसी को अपने नाम के आगे श्री जोड़ कर लिखने लगे। परंतु श्री लिखने से ही कोई श्रीमान नहीं होता। भारतीय नीति शास्त्र कहता है कि इसके लिए विवेकी, मित्र वत्सल, कृतज्ञ जैसे उसमे गुण भी होने चाहिए। इस कसौटी पर अगर सुव्रत राय को आंका जाये तो लकीर कहीं टूटी हुई दिखायी देने लगेगी। पिछले तीन वर्षों में जिन कर्मचारियों ने सहारा के पत्रकारिता से जुड़े विभागों में आधे वेतन पर अपमानित-लांक्षित होकर केवल अपना ही किसी तरह गुजर बसर नहीं किया, सुव्रत को सहारा भी दिया। सिर्फ उन्ही पर उन्होंने गाज गिरायी। दुख तो इस बात का है कि सहारा के अन्य सभी विभागों में सब कुछ ठीक चल रहा है। अधिकारी नयी-नयी गाड़ियाँ खरीद रहे हैं। बीमा के विज्ञापन हम हर चैनल में देख रहे हैं। बस अंधकार सिर्फ उस मीडिया डिवीजन में है, जो कभी उनका मुख्य अस्त्र हुआ करता था। एक साल की सैलरी बकाया है। जब आंदोलन पर विवश हुए मीडियाकर्मी तो उनमें 21 को बर्खास्त कर शेष को खौफजदा कर दिया। एक कर्मचारी की तो जान भी चली गयी।

कोई विश्वास करे या न करे हमारे धर्म ने तो नरक स्वीकारा है। आंशिक नरक यंत्रणा तो आप झेल चुके हैं तीन वर्षों के दौरान तिहाड़ में। मगर फिर भी जो अपराध आप कर रहे हैं, उससे आपकी अनुवांशिकी धारा में भी नरक सुनिश्चित हो रहा है। अरे, सावन आने को है। आप एक बार दिल खोल कर पश्चाताप करें आँसुओं के साथ और सुधारें अपने पिछले कर्मों को। हो सकता है कि जल प्रिय देनता शिव आपको माफ कर दें। अन्यथा शंकर किसी को भी कंकड़ बना सकते हैं। यानी फिर 1982 और पुर्नमूषको भव:

(देश मंथन, 27 जून 2016)

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