संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
अगर मैंने ये कहानी अपने कानों से नहीं सुनी होती तो मुझे कभी अपने पत्रकार होने की शर्मिंदगी के उस अहसास से नहीं गुजरना पड़ता, जिससे मैं दो दिन पहले गुजरा हूँ। कहानी मुझे एक डॉक्टर ने सुनाई और पहली बार मुझे इस कहानी को सुनते हुए आत्मग्लानि सी हो रही थी। मुझे लग रहा था कि कहीं चुल्लू भर पानी मिल जाए तो फिर कभी किसी को अपना मुँह भी न दिखाऊँ।
ऐसा होता है। कभी-कभी हम जिस प्रोफेशन में होते हैं, उसकी सच्चाई की कलई ऐसे ही खुलती है।
हम मध्य प्रदेश के जंगल, कान्हा में टाइगर देखने गये थे। हमारे साथ जबलपुर के डॉक्टर Avyact Agrawal भी थे। जिस दिन हम कान्हा पहुँचे, खूब तेज बारिश होने लगी और गेस्ट हाउस की लाइट चली गयी। हम बरामदे में बैठ कर हिरण, बारहसिंहो की आवाजें सुनते रहे। डॉक्टर से गप लड़ाते रहे। एक-दूसरे के पेशे के बारे में जानने की कोशिश करते रहे।
इसी क्रम में डॉक्टर ने मुझे एक ऐसी कहानी सुनाई कि उस अंधेरे में भी मेरा चेहरा शर्म से झुक गया था।
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डॉक्टर साहब कहानी सुना रहे थे।
“मैं बच्चों का डॉक्टर हूँ। लोग डॉक्टरों को अक्सर भला-बुरा कहते हैं। किसी का मरीज ठीक हो जाए तो डॉक्टर भगवान हो जाता है। मरीज के साथ ऊँच-नीच हो जाए तो डॉक्टर शैतान हो जाता है। संजय जी, आप भी टीवी न्यूज पर कई बार ऐसी कहानियाँ सुनाते हैं कि डॉक्टर हत्यारा निकला। डॉक्टर ने मरीज को लूट लिया। पर क्या आप हर खबर की तहकीकात कराते हैं? क्या आप कभी ये सोचने की जहमत उठाते हैं कि आपके रिपोर्टर जो खबर आपके पास भेजते हैं, उसकी सच्चाई क्या है?”
“पूरी बात बताइए, डॉक्टर साहब।”
“हमारे अस्पताल में थैलीसिमिया के शिकार कई बच्चे आते हैं। आप जानते हैं कि थैलीसिमिया एक ऐसी बीमारी है, जिसमें मरीज को बार-बार खून चढ़ाना पड़ता है। हम कई बार मरीज के रिश्तेदारों से खून लेते हैं, पर कई बार हमें खून नहीं मिलता है। थैलीसिमिया के मरीजों को इतनी बार खून की जरूरत पड़ती है कि उनके रिश्तेदार भी हाथ खड़े कर देते हैं।
ऐसे ही जबलुपर का एक बच्चा, जिसे थैलीसिमिया बीमारी थी, वो अक्सर हमारे अस्पताल लाया जाता।
एक बार मेरी तबियत ही खराब थी, मैं छुट्टी पर था, उस दौरान उस बच्चे को बहुत इमरजंसी में हमारे अस्पताल लाया गया। बच्चे को खून की जरूरत थी। तुरंत खून का बदला जाना जरूरी था। उसके परिवार से कोई खून देने को तैयार नहीं था। पहले भी किसी ने उसे खून नहीं दिया था। हमारा अस्पताल ही उस बच्चे के लिए खून का इंतजाम करता था। सच कहूँ तो पूरे अस्पताल को उस बच्चे से प्यार हो गया था। हम उससे इमोशनली जुड़ गये थे। पर उस दिन जब उसे अस्पताल लाया गया तो उसकी तबियत सीरियस थी। हमारी एक महिला डॉक्टर ही उस बच्चे को देखती थीं।
उस दिन भी वो अस्पताल में थीं। बच्चे की तबियत बिगड़ रही थी। उसे फौरन भर्ती कराया गया। खून चढ़ाया जाने लगा। पर बच्चा नहीं बचा।
बच्चे की मृत्यु के बाद उसके रिश्तेदारों ने अस्पताल में बहुत हंगामा किया। मीडिया को बुला लाए। मीडिया को बताया गया कि बच्चे को गलत खून चढ़ा दिया गया, इससे उसकी मृत्यु हो गयी। अखबारों में खबरें छपीं।
उस डॉक्टर का तो जैसे पूरा करियर ही तबाह हो गया।
उसका क्या हुआ, ये बाद में बताऊंगा। फिलहाल तो इतना ही जानिए कि उस डॉक्टर का यहाँ मीडिया ट्रायल हो गया।
जब मेरी तबियत ठीक हुई और मैं अस्पताल पहुँचा, तो उस बच्चे के पिता को बुला कर मैंने बात की। बच्चे के पिता ने बताया कि पता नहीं कहाँ से खून ला कर चढ़ा दिया। मेरे बच्चे की मौत हो गयी।
मैं चुपचाप उनकी बात सुन रहा था। जब वो बोल चुके तो मैंने उनसे पूछा कि आपके बच्चे को इतनी बार यहाँ खून चढ़ाया गया है, क्या आपको पता है कि ये खून कहाँ से आता है?
वो चुप रहे।
क्या आपने या आपके परिवार के किसी सदस्य ने कभी अपने बच्चे के लिए रक्त दान किया था?
वो चुप रहे।
आपको जानना चाहिए कि अभी तक आदमी ने खून बनाना नहीं सीखा है। खून की जब भी किसी को जरूरत पड़ती है उसे किसी न किसी से लेकर ही दिया जाता है। हम मरीजों के रिश्तेदारों से खून लेते हैं। जब वो नहीं देते और मरीज की स्थिति गंभीर होती है तो हम ब्लड बैंक की ओर देखते हैं। कई बार हमें वहाँ से भी खून नहीं मिलता तो हम डॉक्टर खुद अपना खून भी मरीज को देते हैं। आप या आपके परिवार के एक भी सदस्य ने आजतक एक बूँद खून नहीं दिया है, जबकि आपके बच्चे को हर बार खून चढ़ाया जाता रहा।
वो चुपचाप मेरी बात सुन रहे थे।
सुनिए सर, आपके बच्चे को इस बार जो खून चढ़ाया गया वो वही खून था, जिसकी बदौलत आपका बच्चा इतने सालों तक बचा रहा।
आपके बच्चे को उसी डॉक्टर का खून चढ़ाया जाता था, जिस पर आपने लापरवाही का आरोप लगा कर, मीडिया ट्रायल करवा कर करियर तबाह कर दिया है। वो महिला डॉक्टर तब से आपके बच्चे को खून दे रही है, जब वो पहली बार हमारे यहाँ आया था। मुझे नहीं पता कि क्यों, पर वो उस बच्चे के प्रति बहुत स्नेह रखती थी। जब आप कई साल पहले पहली बार यहाँ आए थे, और आपके बच्चे के लिए खून हमें नहीं मिल पाया था, तब उस डॉक्टर ने अपने खून की जाँच कराई थी। दोनों का खून मैच किया था। तब से आज का दिन है, आपने एक बूँद खून अपने बच्चे को नहीं दिया, न आपने ये जानने की ही कोशिश की कि आपके बच्चे को खून कौन देता है। उस दिन भी आप जब इमरजंसी में आये थे, उसी ने अपना खून दिया था। उसका खून जाँचा-परखा था।
सिचुएशन गंभीर थी, आपका बच्चा नहीं बचा। पर आपने पूरी परिस्थिति को समझे बिना हंगामा शुरू कर दिया। आपने उस डॉक्टर पर झूठे आरोप लगा दिए, जो उस बच्चे के लिए डॉक्टर नहीं, माँ बन कर सेवा करती थी।”
डॉक्टर इतना कह कर चुप हुए।
बिजली तेज़ कड़क रही थी। मैं अपना चेहरा छुपाए बैठा था। मैं कोशिश कर रहा था कि कड़कती बिजली में कहीं मेरा चेहरा डॉक्टर को दिख न जाए। मैंने वो रिपोर्ट पढ़ी थी। मुझे याद आ रहा था कि अखबार में खबर छपी थी कि डॉक्टर की लापरवाही से बच्चे की जान गयी।
मैंने डॉक्टरों को बहुत कोसा था। मैंने उन्हें जल्लाद कहा था। मैंने कहा था कि डॉक्टरों को पैसे के आगे कुछ नहीं सूझता। ये तो सरकारी अस्पताल था, पर मैंने भी यही कहा था कि सरकारी अस्पताल के डॉक्टर कामचोर होते हैं। निर्दयी होते हैं।
बहुत कुछ कहा था। पर सबकुछ बिना जाँचे-परखे कहा था। एकतरफा रिपोर्ट के आधार पर कहा था।
आज उसी खबर का दूसरा पहलू मेरे सामने था।
मैंने डॉक्टर से धीरे से पूछा, “फिर क्या हुआ?”
“फिर क्या? उस डॉक्टर की इतनी बेइज्जती हुई कि उसे जबलपुर छोड़ना पड़ा। उसे मेडिकल कॉलेज छोड़ना पड़ा। बच्चे का पिता रोने लगा। कहने लगा कि बताइए मैं क्या कर सकता हूँ। मुझसे भारी भूल हुई है। सच में मैने कभी जानने की कोशिश ही नहीं की कि आप लोग मेरे बच्चे को इतनी बार खून कहाँ से लाकर जिन्दगी देते रहे।”
जो हुआ, सो हुआ।
इस सत्य को जानना बहुत जरूरी है कि जैसे संसार में अच्छाई है तो बुराई भी है। सभी अच्छे नहीं तो सभी बुरे भी नहीं। पर किसी की प्रतिष्ठा पर चोट पहुँचाने से पहले उसके सत्य को जानना बहुत जरूरी होता है।
उस दिन मौत भले उस बच्चे की हुई थी, पर मरी डॉक्टर भी थी।
(देश मंथन 27 जून 2016)