लीलण एक्सप्रेस से सुनहले शहर जैसलमेर की ओर

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विद्युत प्रकाश मौर्य, वरिष्ठ पत्रकार:  

बीकानेर से जैसलमेर जाने वाली ट्रेन का नाम लीलण एक्सप्रेस (12468) है। नाम कुछ अनूठा लगा तो जानने की इच्छा हुई।

वैसे लीलण एक्सप्रेस जयपुर से चलकर जैसलमेर जाती है। बीकानेर से यह रात्रि 11.15 बजे खुलती है। अहले सुबह ट्रेन जैसलमेर पहुंच जाती है। रात 11.15 मतलब खा-पीकर सोने का समय। प्लेटफार्म नंबर छह पर ट्रेन नियत समय पर आकर लग गयी थी।

उत्तर भारत में रेलगाड़ियां रिकार्ड लेट चल रही हैं पर राजस्थान में उसका असर नहीं है। लीलण एक्सप्रेस समय पर आ गई और समय पर चल भी पड़ी। मैं भी अपनी बर्थ पर सो गया। बीकानेर से जैसलमेर 320 किलोमीटर का सफर। बीच में ट्रेन लालगढ़ जंक्शन, कोलायत, फालौदी जंक्शन, रामदेवरा, आशापुरा, श्रीभदरिया लाठी रुकती है। पर रात में नींद आने के बाद स्टेशनों का पता नहीं चला। घुमक्कड़ के लिए रात में ट्रेन से सफर करने का बड़ा फायदा है कि आपको होटल में रहने की जरूरत नहीं है। दिन भर एक शहर में घूमने के बाद रात में आप ट्रेन में बर्थ पर सो जाएं। यात्रा भी हो गयी और अगली सुबह एक नये शहर में। पर घाटा यह है कि रास्ते में गुजरने वाले स्टेशन और ट्रेन की खिड़की से खेत, मैदान, हरियाली आदि का नजारा आप नहीं ले पाते।

नींद खुली तो सुबह के साढ़े चार बज रहे थे। ट्रेन कहीं मैदान में खड़ी थी। थोडी में ट्रेन चल पड़ी। दरअसल लीलण एक्सप्रेस समय से पहले जैसलमेर पहुंच गयी थी। इसलिए आउटर सिग्नल पर रुकी थी। सुबह के 5 बजने से पहले ट्रेन जैसलमेर के प्लेटफार्म नंबर दो पर थी। ट्रेन से उतरने पर रात के अंधेरे में ही बिजली की रोशनी में जैसलमेर लिखा हुआ नजर आया। साफ सुथरा प्लेटफार्म। राजस्थान के मरुस्थल का आखिरी रेलवे स्टेशन। चौबीस घंटे में गिनती की पाँच रेलगाड़ियाँ आती हैं और खुलती हैं। प्लेटफार्म नंबर एक के वेटिंग रुम में पहुंचकर सुबह के उजाला होने का इंतजार करने लगता हूँ। कुछ सहयात्रियों से बात होती है सभी इस सुनहले शहर को देखने आए हैं। पर सुबह कुहरे का आलम है। लीलण एक्सप्रेस प्लेटफार्म नंबर एक पर आकर लग जाती है। मैं उसका नाम पट्टिका पढ़ता हूँ उस पर लिखा है-यह राजस्थानी लोक देवता वीर तेजा जी महाराज की प्रिय घोड़ी (सवारी) का नाम था। मेरी लीलण के बारे में और जिज्ञासा बढ़ती है। वीर तेजाजी जाट समाज में जन्मे वीर थे। लोकमान्यता है कि तेजाजी ने ग्याहरवीं सदी में गायों की डाकुओं से रक्षा करने में अपने प्राण दाँव पर लगा दिये थे। उन्ही वीर तेजा जी की सवारी थी ‘लीलण’ घोड़ी।

वीर तेजाजी का जन्म 29 जनवरी 1074 को हुआ और 28 अगस्त 1103 को परलोक सिधार गये। उनके बारे में लोकगीतों में कहा जाता है- मोती सम न उजला, चन्दन सम ना काठ। तेजा सम न देवता, पल में करदे ठाठ।। तेजा जी असाधारण घटनाक्रम में रहते हुए एक असाधारण मनुष्य में रूपान्तरित होकर लोक नायक बन गये। ऐसे लोकनायक की उन की बहादुरी दास्ताँ गीतों में सुनायी जाने लगी। उनके नाम पर मंदिर बनने लगे।

वीर तेजाजी के देश में अनेक मंदिर बनाये गये हैं। ये मंदिर राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, गुजरात और हरियाणा में देखे जा सकते हैं। मुझे जैसलमेर की कई टैक्सियों में लीलण लिखा हुआ दिखाई देता है। यानी सभी चाहते हैं कि वाहन हो तो लीलण की तरह फुर्तीला। राजस्थान की लोक संस्कृति में लीलण का अदभुत सम्मान है। कई गायक तो हर साल लीलण की बहादुरी पर वीडियो अलबम बनाते हैं। तो भारतीय रेल ने भी इस लोकनायक की प्रिय सवारी के नाम पर एक ट्रेन का नाम रखकर संस्कृति का संवहन का पुनीत कार्य किया है।

(देश मंथन,  19 अप्रैल 2017)

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