रॉकेट्री फिल्म के बहाने फिर सामने आयी हिंदुओं के प्रति वामपंथी घृणा!

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(रॉकेट्री फिल्म में इसरो वैज्ञानिक नंबी नारायणन की भूमिका में अभिनेता आर. माधवन)

रॉकेट्री फिल्म की इसलिए आलोचना की जा रही है कि इस फिल्म ने नारायणन की भक्ति को बार-बार दिखाया है। वे जब भी कठिनाई में फँसते हैं तो वे प्रार्थना करते हैं, वे एक सच्चे हिंदू देशभक्त हैं! क्या हिंदू देशभक्त होना अपराध है? क्या वह व्यक्तित्व, जिन्होंने अपने जीवन में तमाम कठिनाइयों का सामना किया और उनसे संघर्ष करने की शक्ति उन्हें अपने धार्मिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों से प्राप्त हुई, तो क्या वह बात इस फिल्म में दिखायी नहीं जानी चाहिए थी?

आर. माधवन की फिल्म रॉकेट्री के बहाने एक बार फिर से बॉलीवुड की वामपंथी लॉबी की कुंठा सामने आयी है। आर. माधवन ने यह फिल्म इसरो वैज्ञानिक नंबी नारायणन के जीवन पर बनायी है, जिनका जीवन पूरी तरह से देश को समर्पित रहा था। उनके साथ जो छल और षड्यंत्र किये गये, वे भी किसी से छिपे नहीं हैं। क्या ऐसे वैज्ञानिक के जीवन के हर पहलू को सामने नहीं लाना चाहिए था, जिसने जीवन भर संघर्ष किया?

उन्होंने अपना पूरा जीवन जिस ध्येय हेतु समर्पित कर दिया, वह था देश का नाम सितारों की दुनिया में चमकाना, और उन्होंने किया भी। नंबी नारायणन ने नासा में नौकरी के प्रस्ताव को ठुकरा कर इसरो के साथ कार्य करना चुना था और देश के लिए पैसे आदि की परवाह नहीं की थी। पर उन्हें झूठे मामले में फँसाया गया। उन्हें देशद्रोही घोषित किया गया और दो महिलाओं – मरियम रशीदा और फौजिया हसन के माध्यम से यह आरोप लगाया गया कि नंबी नारायणन ने इसरो के रॉकेट इंजन बनाने के गोपनीय डेटा को बेच दिया है।

इसके बाद उनका जीवन कैसा हो गया होगा, यह हम कल्पना ही कर सकते हैं। उनकी कहानी भारत के नागरिकों के सम्मुख बहुत देर से आ पायी। जब आयी तो लोग स्तब्ध रह गये थे कि कैसे एक देश अपने ही वैज्ञानिक के साथ ऐसा कर सकता है? अब जब उनके जीवन पर यह फिल्म आयी है, जिसके कारण लोग उस षड्यंत्र को जान पा रहे हैं, जो एक प्रतिभाशाली वैज्ञानिक के विरुद्ध रचा गया तो वहीं उस संघर्ष को भी जान पा रहे हैं, जो उन्होंने जिया, जो उनके परिवार ने जिया।

हिंदू सांस्कृतिक मूल्यों को दिखाने पर यह कैसा ऐतराज

यह भी सत्य है कि व्यक्ति अपने संघर्ष से बाहर तभी आ पाता है, जब उसके भीतर उसके स्वयं के सांस्कृतिक एवं धार्मिक मूल्य होते हैं। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि क्या फिल्मों में इन मूल्यों को नहीं दिखाया जाना चाहिए? क्या फिल्मों में हिंदू मूल्यों को नहीं दिखाया जाना चाहिए? यहाँ पर हिंदू इसलिए उभर कर आया, क्योंकि बॉलीवुड का एक बड़ा आलोचक वर्ग ऐसा है. जिसे हिंदुओं का दर्द, उनकी पीड़ा दिखती ही नहीं है। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनकी सोच पूरी तरह से वामपंथी है, हिंदू विरोधी है।

ऐसी ही एक आलोचक हैं अनुपमा चोपड़ा। उन्होंने पहले कश्मीर फाइल्स को लेकर भी असंवेदनशील समीक्षा करते हुए लिखा था कि यह फिल्म दरअसल बहुत बढ़ा-चढ़ा कर घटनाओं को प्रस्तुत करती है और ऐसा कुछ नहीं हुआ था, जो कुछ भी दिखाया गया। उन्होंने लिखा था कि यह फिल्म पलायन को एक पूर्ण स्तर के नरसंहार (जीनोसाइड) के रूप में दिखाती है, जिसमें हर हिंदू एक त्रासदी से भरा हुआ यहूदी है तो वहीं हर मुस्लिम कातिल नाजी! अनुपमा चोपड़ा ने पूरी तरह से इस फिल्म के दर्द को भी खारिज कर दिया था और उनकी आलोचना भी हुई थी।

रॉकेट्री के साथ कश्मीर फाइल्स जैसा सलूक

अनुपमा चोपड़ा ने दुर्भाग्य से नंबी नारायणन के जीवन संघर्ष पर बनी फिल्म के साथ भी यही किया है। उन्होंने नंबी नारायणन के हिंदू होने और स्वयं को हिंदू प्रदर्शित करने को लेकर विरोध व्यक्त किया है। उन्होंने लिखा कि ‘इस बात की सराहना की जा सकती है कि फिल्म ने नारायणन की उपलब्धियों को सामने रखा है, परंतु इस फिल्म ने नारायणन की भक्ति को बार-बार दिखाया है। वे जब भी कठिनाई में फँसते हैं तो वे प्रार्थना करते हैं। वे एक सच्चे हिंदू देशभक्त हैं!’

अब अनुपमा चोपड़ा से पूछा जाये कि क्या हिंदू देशभक्त होना अपराध है? क्या वह व्यक्तित्व, जिन्होंने अपने जीवन में तमाम कठिनाइयों का सामना किया और उनसे संघर्ष करने की शक्ति उन्हें अपने धार्मिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों से प्राप्त हुई, तो क्या वह बात इस फिल्म में दिखायी नहीं जानी चाहिए थी?

परंतु दुर्भाग्य की बात है कि वामपंथी सोच वाले लोगों के लिए हिंदी फिल्मों का अर्थ हिंदुओं का विरोध ही होता है, और कुछ नहीं! फिर भी इन आलोचनाओं से इतर यह फिल्म दर्शकों को पसंद आ रही है और अच्छा व्यापार कर रही है, क्योंकि लोग अब जानना चाहते हैं कि अंतत: सत्य क्या है और हुआ क्या था देश के इस होनहार सपूत के साथ!

(देश मंथन, 6 जुलाई 2022)

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