जोश और अनुभव से मिलती है जीत

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संजय सिन्हा :

ये कहानी भी माँ ने ही सुनाई होगी, वर्ना और कहाँ से कहानी सुन सकता था मैं, लेकिन ये कहानी मुझे अधूरी सी याद है।

पता नहीं कल से कई बार रुक-रुक कर ये कहानी मुझे याद आती रही। पहले कहानी सुनाने की कोशिश करता हूं, फिर संदर्भ तो आप खुद ही समझ जाते हैं। 

किसी गाँव के एक लड़के की शादी दूसरे गाँव की लड़की से तय हुई। दोनों गाँव वाले समृद्ध थे, अक्खड़ थे। गाँव में शादी सिर्फ शादी तो होती नहीं थी, आन-बान-शान की बात भी होती थी। शादी तय हुई तो लड़के वालों ने मांग रख दी कि सौ लोग बरात में आएंगे, और सभी बकरे का भुना गोश्त खाएंगे। लड़की वालों ने मांग तो मान ली, पर दो शर्त रख दीं कि बारात में एक भी बुजुर्ग नहीं होगा और सौ लोगों के लिए सौ बकरों का गोश्त बनेगा, पर मांस का एक टुकड़ा भी बचना नहीं चाहिए। 

मैं जानता हूं, सुबह-सुबह मांस-बकरा-गोश्त सुन कर कई लोगों को मितली आ सकती है, लेकिन क्या करूं ये तो कहानी है। इसे कहानी की तरह ही पढ़ें, सुबह-सुबह तो राम का नाम ही भजने में खुशी मिलती है। 

हाँ, तो ये गजब की शर्त लग गई और अब मामला हो गया आन-बान-शान और जिद का। 

तय समय पर गाँव से बारात निकली, रास्ते में एक बुजुर्ग आदमी ने इतने लोगों को सज-धज कर जाते देखा, तो उसने पूछा, “भाई कहाँ जा रहे हो।”

“मुखिया साहब के बेटे की शादी है।”

“तो, तुम सारे नौजवान ही क्यों जा रहे हो?”

“जिस गाँव में बेटे की शादी तय हुई है, वहाँ के लोगों ने शर्त रखी है कि एक भी बुजुर्ग शादी में नहीं शामिल होगा।”

बुड्ढे ने अपना सिर पीट लिया। कहने लगा, “मूर्खों उन लोगों ने कुछ सोच कर ही ऐसी शर्त रखी होगी। तुम लोग अभी तो बहुत जोश में हो लेकिन ऐसी शर्तों वाले गाँव में जाकर वहाँ फंस जाओगे। ऐसा करो मुझे साथ ले चलो, मेरे पास उम्र का अनुभव है, मैं मुसीबत में काम आऊंगा।”

बुड्ढे की बात सुन कर एक तेज तर्रार नौजवान ने कहा कि, लेकिन तुम्हें ले कैसे जाऊँगा। शर्त तो ये है कि सिर्फ नौजवान लोग ही आएँगे।

“ऐसा करो, तुमलोग किसी संदूक में मुझे बिठा कर ले चलो। मैं चुपचाप संदूक में छुपा रहूंगा, और जब तुम लोग कहीं फँसोगे तो मुझसे पहले बात कर लेना।”

पहले तो नौजवान नहीं माने। उन्हें अनुभव से ज्यादा जोश पर भरोसा था। पर बुड्ढा अड़ गया, मिन्नतें की तो मजबूरी में वो मान गए।

बारात पहुँची। खूब आव-भगत हुई। 

खाने के समय लड़की वालों की तरफ से शर्त याद दिलाई गई कि सौ लोगों के लिए सौ बकरे काटे गए हैं, और सौ लोगों को मिल कर सारे बकरे खत्म कर देने होंगे। 

इस शर्त की याद आते ही लड़के वालों की बुद्धि गुल हो गई। उस समय तो जोश में पता नहीं क्या-क्या कह दिया था। जैसे चुनाव से पहले नेता वादे करते हैं कि बिजली, पानी, इंटरनेट पता नहीं क्या-क्या मुफ्त दे देंगे। चावल, दाल, सब्जी सब फ्री कर देंगे, लेकिन बाद में उन्हें अपने ही किए वादों को पूरा करने में नानी याद आ जाती है, लेकिन यहाँ तो नेताओं का वादा नहीं था, ये तो दो गाँव में लगी शर्त थी, जिसे ठीक खाने से पहले लड़की वाले लड़के वालों को याद दिला रहे थे। जाहिर है यहाँ भी नानी, नाना दोनों याद आए होंगे।

बड़ी मुसीबत थी। अब एक आदमी एक बकरे का गोश्त कैसे खा सकता है। मतलब सौ लोग, सौ बकरे को कैसे खाएँगे। भारी चिंता का विषय। इज्जत दाँव पर।

तभी किसी ने मुखिया के कान में फुसफुसाया, “हमारे साथ संदूक में एक बुड्ढा आदमी है, जिसने कहा था कि वो अनुभवी है और मुसीबत में काम आएगा, तो क्यों न उसी से इस बारे में बात की जाए। क्या पता कुछ बता दे।”

“हां, हां उसी से पूछो। बड़ा अकड़ कर कह रहा था कि ले चलो, मेरा अनुभव काम आएगा।”

लोगों ने संदूक को खोला, बुजुर्ग को बाहर निकाल कर पूछा कि सौ लोग हैं, सौ बकरे हैं, शर्त है कि एक टुकड़ा मांस का नहीं बचना चाहिए, कैसे होगा?

बुजुर्ग मुस्कुराया। उसने कहा, “ये तो बहुत आसान सी बात है। तुम लोगों ने सौ लोगों पर सौ बकरे की शर्त कबूली है, ये तो नहीं कबूला न कि हर आदमी एक बकरा खाएगा। फिर क्या है। तुम उनसे कहो कि हम सौ लोग मिल कर सौ बकरे खा जाएँगे। पर शर्त ये है कि एक-एक करके बकरे का गोश्त भून कर लाना। जैसे ही एक खत्म हो, दूसरा ले आना। हम सौ लोग हैं, सौ बकरे सफाचट कर देंगे।”

नौजवानों ने अपनी बात लड़की वालों तक पहुंचा दी। लड़की वाले तैयार हो गए। 

अब एक बकरे का भुना गोश्त आया, सौ लोग उस पर एक साथ टूट पड़े। एक मिनट में बकरा साफ। किसी के हाथ छोटा सा टुकड़ा आया, किसी के हाथ वो भी नहीं। फिर दूसरा, तीसरा, चौथा बकरा भुन-भुन कर आता रहा, सब एक साथ उस पर टूट पड़ते और बकरा सफाचट हो जाता। 

इस तरह कुछ ही देर में सौ लोगों ने मिल कर सौ बकरे खा लिए। 

लड़की वाले शर्त हार गए थे। उन्हें बहुत आश्चर्य हो रहा था कि सचमुच सौ लोग मिल कर सौ बकरे सफाचट कर गए। 

बाद में नौजवानों ने बुड्ढे को धन्यवाद दिया कि आपकी सलाह पर हम शर्त जीत गए। वर्ना एक आदमी एक बकरा नहीं खा सकता था। बुड्ढे ने समझाया कि मिल कर खाने से किसी को पता ही नहीं चला कि वो कितना खा रहा है। और तुम लोग पूरा खा गए। 

खैर, ये तो कहानी थी। लेकिन माँ ने सुनाई थी तो सिर्फ सुनाने के लिए नहीं सुनाई होगी। ये उसका अपना तरीका था, ज़िंदगी जीने के लिए मुझे तैयार करने का। 

कहानी में और भी कई शर्तें थीं, लेकिन इस एक शर्त से ही आप समझ गए होंगे कि जिंदगी की लड़ाई सिर्फ जोश से नहीं अनुभव से भी जीती जाती है। अगर वो बुड्ढा उनकी टीम में नहीं होता तो नौजवानों की ये टीम नाक कटवा कर आती।  

जिंदगी के सफर में बहुत जगहों पर अनुभव की दरकार होती है। हर जगह सिर्फ जोश से काम लेने वाले अक्सर हार जाते हैं। सिर्फ जोश से अज्ञान पैदा होता है। अज्ञान अहंकार का जनक होता है और अहंकार के दस सिर भी हों तो वो बच नहीं सकता।

(देश मंथन 12-02-2015)

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