मन को साफ करो खुश रहोगे

0
287

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

मैं प्रेम पर लिखते हुए बहुत डरता हूँ। डर की वजह सिर्फ इतनी है कि जब मैं ऐसी पोस्ट लिखता हूँ तो अगले दिन मेरे पास ऐसे-ऐसे कई सवाल आ खड़े होते हैं, जिनके जवाब में मुझे फिर प्रेम पर एक पोस्ट लिखनी पड़ती है। एक पोस्ट और लिख कर मैं मुक्त होता हूँ और सोचता हूँ कि कल ये वाली कहानी लिखूँगा, वो वाली कहानी लिखूँगा, पर रात में जैसे ही अपने इनबॉक्स में झाँकता हूँ, मेरी तय की हुई सारी कहानियाँ उड़ जाती हैं और रह जाता है प्रेम। 

“मेरे ये मुझसे कहते हैं कि वो मुझसे प्यार करते हैं, लेकिन न जाने मुझे क्यों महसूस नहीं होता। पूरा घर यही संभालते हैं, बच्चों को भी देखते हैं, लेकिन न जाने क्यों मुझे नहीं लगता कि ये मुझसे प्यार करते हैं।”

“मेरी पत्नी मेरा पूरा घर देखती है, वो मेरा पूरा ख्याल रखती है। पर मैं समझता हूँ कि वो मुझसे प्यार नहीं करती। मैंने कभी उससे कहा नहीं, शायद कह भी नहीं पाऊँ, और अब कहने का भी क्या फायदा, इतने साल गुजर गये हैं, अब कुछ हो ही नहीं सकता। संजय जी, प्रेम पर लिखी आपके पोस्ट पढ़ता हूँ तो यही लगता है कि कहीं कुछ चूक गया। मैं जानता हूँ कि आप मेरी निजता की रक्षा करेंगे, मैं नहीं जानता कि आपसे इस बात को साझा करने में मुझे क्या मिलेगा, लेकिन कर रहा हूँ। शायद जिन्दगी से मेरा अपराध बोध कम हो जाए।”

***

पिछले दो दिनों में सौ से अधिक लोगों ने मुझसे अपनी अप्रेम की कहानियाँ साझा की हैं। मैं दो सवालों को यहाँ जस का तस उतार कर मुक्त हो रहा हूँ ऐसा नहीं, पर इसमें से एक शिकायत पत्नी की है, जिसकी शादी को कई वर्ष बीत चुके हैं, वो शायद एक बार भी अपने पति से यह नहीं कह पाई होगी कि उसे ऐसा लगता है कि वो उससे प्यार नहीं करता। 

जिस पति ने मुझसे अपनी अप्रेम कहानी को साझा किया है, उसने तो कह ही दिया है कि उसे लगता है कि उसकी पत्नी उसके साथ जरूर है, पर वो उससे प्यार नहीं करती और वो कभी किसी से इस बात को साझा नहीं कर सकता। 

एक में पत्नी को लगता है कि पति प्यार नहीं करता। 

दूसरे में पति को लगता है कि पत्नी प्यार नहीं करती। 

कमाल है। दोनों ने अपनी आधी से बहुत अधिक जिन्दगी साथ-साथ गुजार ली है, पर दोनों कह रहे हैं कि प्यार नहीं है। 

***

एक बार एक शिष्य अपने गुरु के पास गया और उनके चरणों में बैठ कर उसने कहा कि आपने मुझे पूरी शिक्षा दे दी है। मैं सारे वेद, उपनिषद् पढ़ चुका। युद्ध कला में भी मैं माहिर हो गया। अब जब आपने मुझे सारा ज्ञान दे दिया है और कल मेरा इस आश्रम में आखिरी दिन है, तो मैं आपसे दो पंक्तियों में खुशहाल जीवन का राज जानने आया हूँ। 

गुरु मुस्कुराने लगे, फिर उन्होंने कहा कि सारी विद्या तो दे दी है अब खुशहाल जीवन को जीने में अड़चन कहाँ है? 

“नहीं गुरु जी, आपने जितनी विद्याएँ मुझे सिखायी हैं, उनमें जीवन यापन के साधन सारे गुण मौजूद हैं। मैं बेहतर जिन्दगी जी सकता हूँ। मैं कामयाब जिन्दगी भी जी सकता हूँ, लेकिन मैं खुश भी रहूँगा, इसमें ऐसी कोई विद्या नहीं है। मैं जानता हूँ कि मुझे तीरंदाजी में कोई परास्त नहीं कर सकता। मुझे शास्त्रार्थ में कोई हरा नहीं सकता। पर इन बातों से मन की खुशी मिलेगी, इस बात की क्या गारंटी है?”

गुरु उठे। उन्होंने शिष्य से कहा कि तुम आज आश्रम के सारे जूठे बर्तनों को साफ करो। 

शिष्य मन ही मन सोच में पड़ गया। आया तो था गुरु जी से खुशी पाने का ज्ञान लेने और यहाँ काम मिल गया जूठे बर्तनों की सफाई का।

खैर, गुरु ने कह दिया है तो बर्तन तो साफ करने ही पड़ेंगे। 

शिष्य बर्तनों की सफाई करने लगा। कड़ाही, पतीले, थाली, गिलास। कड़ाही में जला हुआ तेल चिपका था। शिष्य उसे रगड़-रगड़ कर साफ किए जा रहा था। 

गुरु जी शिष्य के पास आए और उन्होंने उससे पूछा कि तुम कड़ाही को भीतर से इतना रगड़ क्यों रहे हो?

शिष्य ने कहा कि गुरु जी, कड़ाही बाहर से उतनी गंदी नहीं हुई है, जिनती भीतर से हो गयी है। इसीलिए भीतर से इसे ज्यादा रगड़ना पड़ रहा है। 

***

गुरु जी ने शिष्य को उठाया और गले से लगा कर कहा कि यही वो आखिरी विद्या है जिसे तुम पाना चाह रहे थे। बर्तन जब भीतर से साफ होते हैं, तभी साफ होते हैं। रगड़ना भीतर पड़ता है। ये सच है कि तुमने आज तक जो शिक्षा पायी है, उससे तुम समाज की निगाहों में बेहतरीन जिन्दगी जी सकते हो, पर जब तुम मन को साफ कर लोगे, तो तुम खुश भी रहोगे। 

मुझे नहीं लगता कि इससे आगे आज मुझे कुछ लिखने की जरूरत है। 

आपको जब लगे कि उसे आपसे प्रेम है या नहीं, तो उससे पहले खुद से पूछिए कि क्या आपको उससे प्रेम है? 

प्रेम में पहला संदेह अपने मन में उपजता है। मन में उपजा संदेह उसी जूठे बर्तन की तरह होता है, जिसमें सफाई भीतर की जगह बाहर से ज्यादा करनी पड़ती है।    

‪(देश मंथन, 17 अप्रैल 2016)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें