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कांग्रेस की सांप्रदायिक और देशद्रोही राजनीति का रिजल्ट है एनआईटी की घटना
अभिरंजन कुमार, पत्रकार :
हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला और उसके साथियों ने मुम्बई धमाकों के गुनहगार याकूब मेमन के समर्थन में कार्यक्रम किये, लेकिन कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने पूरे मामले को जातीय रंग दे कर उन लोगों को हीरो बना दिया।
जय भारत। जय पाकिस्तान। जय बांग्लादेश।
अभिरंजन कुमार, पत्रकार :
जब आप "भारत की बर्बादी के नारे" लगाएँ और "पाकिस्तान जिन्दाबाद" बोलें, तब यह देशद्रोह है, लेकिन अगर आप "भारत जिन्दाबाद" और "पाकिस्तान जिन्दाबाद" दोनों साथ-साथ बोलें और दोनों देशों की तरक्की की कामना करें, तो यह इस उप-महाद्वीप में शांति और सौहार्द्र की हमारी आकांक्षा है।
आजादी माने खुन्नस?
अजय अनुराग:
राष्ट्रद्रोह और राष्ट्रभक्ति के बाद अब सबसे जटिल व उलझा हुआ शब्द है- 'आजादी'। आज देश में आजादी की चर्चा ऐसे की जा रही है मानों हम किसी गुलाम देश में हों। लेकिन नहीं, आजादी माँगने वालों का कहना है कि आजादी देश से नहीं, देश में चाहिए।
दुस्साहसी माँ-बाप ही बेटियों को जेएनयू भेजेंगे!
अभिरंजन कुमार, पत्रकार :
अगले सत्र से जेएनयू में प्रवेश लेने वाली लड़कियों की संख्या में खासी गिरावट आ सकती है। पिछले एक महीने में ऐसे कई अभिभावकों से बातचीत हुई, जो अपनी बेटियों को उच्च-शिक्षा के लिए किसी अच्छी यूनिवर्सिटी में भेजना चाहते हैं, लेकिन जेएनयू का नाम आते ही वे काँपने लगते हैं।
एक भारतीय की पाती
पद्मपति शर्मा, वरिष्ठ खेल पत्रकार :
आज सभी से राजनीति से ऊपर उठ एक बात कहना चाहता हूँ कि आप लोगों की लाचारी देख मुझे ऐसा लग रहा है कि आप लोगों की हालत उन भारतीय सिपाहियों जैसी हो गयी है जो मुगलों और अंग्रेजों की सेनाओं में शामिल हो जाते थे और न चाहते हुए भी अपने सिद्धांतों से समझोता कर अपने ही लोगों के खिलाफ खड़े हो जाते थे और जबरन ज्यादती करते थे।
‘भक्त’, ‘अभक्त’ और कन्हैया!
क़मर वहीद नक़वी, वरिष्ठ पत्रकार :
'भक्त' और 'अभक्त' में देश विभक्त है! और तप्त है! इक्कीस महीनों से इक्कीसवीं सदी के इस महाभारत का चक्रव्यूह रचा जा रहा था। अब जा कर युद्ध का बिगुल बजा। लेकिन चक्रव्यूह में इस बार अभिमन्यु नहीं, कन्हैया है। तब दरवाजे सात थे, इस बार कितने हैं, कोई नहीं जानता! लेकिन युद्ध तो है, और युद्ध शुरू भी हो चुका है। यह घोषणा तो खुद संघ की तरफ से कर दी गयी है। संघ के सरकार्यवाह सुरेश भैयाजी जोशी का साफ-साफ कहना है कि देश में आज सुर और असुर की लड़ाई है।
हम जो देते हैं, वही पाते हैं
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
इंदिरा गाँधी कहा करती थीं, “बातें कम, काम ज्यादा।” मैं तब उनके इस कहे का मतलब नहीं समझ पाता था। पर एक दिन पिताजी ने मुझे समझाया कि जो लोग ज्यादा बातें करते हैं, वो काम कम करते हैं। आदमी को काम अधिक करना चाहिए। इससे आदमी का, देश का, समाज का और दुनिया का विकास होता है। मेरी समझ राजनीतिक तो थी नहीं, इसलिए मैंने पिताजी से पूछ लिया था कि आखिर इंदिरा गाँधी को ऐसा कहने की जरूरत ही क्यों आ पड़ी? अगर यह सही है कि काम करने से आदमी का विकास होता है, तो ये बातें किताब में लिखी होनी चाहिए थी। मेरे स्कूल के मास्टर साहब को बतानी चाहिए थी।
जेएनयू देशद्रोह कांड : सर्जिकल ऑपरेशन की जरूरत
राकेश उपाध्याय, पत्रकार :
जेएनयू देशद्रोह कांड में कन्हैया को दिल्ली हाईकोर्ट ने अंतरिम जमानत तो दे दी, लेकिन जो नसीहतें फैसले में सुनायी हैं, वो बहुत महत्वपूर्ण हैं। जेएनयू के वामपंथी मित्रों को इन नसीहतों पर गौर करना चाहिए जिन पर अदालत ने कन्हैया से शपथपत्र माँग लिया है...एक बार आप भी देखें और समझें कि अदालत ने 23 पन्नो के फैसले में कहा क्या है-
ताकि रोज का यह टंटा खत्म हो!
क़मर वहीद नक़वी, वरिष्ठ पत्रकार :
बात गम्भीर है। खुद प्रधानमंत्री ने कही है, तो यकीनन गम्भीर ही होगी! पर इससे भी गम्भीर बात यह है कि प्रधानमंत्री की इस बात पर ज्यादा बात नहीं हुई। क्योंकि देश तब कहीं और व्यस्त था। उस आवेग में उलझा हुआ था, जिसके बारूदी गोले प्रधानमंत्री की अपनी ही पार्टी के युवा संगठन ने दाग़े थे! भीड़ फैसले कर रही थी। सड़कों पर राष्ट्रवाद की परिभाषाएँ तय हो रही थीं। पुलिस टीवी कैमरों के सामने हो कर भी कहीं नहीं थी। टीवी कैमरों को सब दिख रहा था। पुलिस को कुछ भी नहीं दिख रहा था। दुनिया अवाक् देख रही थी। लेकिन इसमें हैरानी की क्या बात? क्या ऐसा पहले नहीं हुआ है? याद कीजिए!
क्या शिक्षक हार रहे हैं?
संजय द्विवेदी, अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय :
कई बार लगता है कि विचारधारा राष्ट्र से बड़ी हो गयी है। पार्टी, विचारधारा से बड़ी हो गयी है, और व्यक्ति पार्टी से बड़ा हो गया है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में रहते हुए, जैसी बेसुरी आवाजें शिक्षा परिसरों से आ रही हैं, वह बताती हैं कि राजनीति और राजनेता तो जीत गये हैं, किंतु शिक्षक और विद्यार्थी हार रहे हैं। समाज को बाँटना, खंड-खंड करना ही तो राजनीति का काम है, वह उसमें निरंतर सफल हो रही है। हमारे परिसर, विचारधाराओं की राजनीति के इस कदर बंधक बन चुके हैं, कि विद्यार्थी क्या, शिक्षक भी अपने विवेक को त्याग कर इसी कुचक्र में फँसते दिख रहे हैं।