भस्मासुर

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

सुबह से दस बार लिख कर मिटा चुका हूँ। कई बार सोचा जिन्दगी की कहानी लिखूँ, लेकिन आधी रात को फ्रांस में हुए धमाकों से मन बहुत विचलित हो रहा था। मुझे याद है कि उस दिन मैं अमेरिका में ही था, जब सुबह-सुबह दो विमान न्यूयार्क की जुड़वाँ ऊँची इमारतों में समा गये थे और दस हजार जिन्दगी देखते-देखते खत्म हो गयीं थीं। उस दिन भी मन बहुत विचलित हुआ था। 

मैं बहुत बार सोचता हूं कि कौन लोग होते हैं, जिन्हें हिंसा से प्यार होता है। कौन लोग होते हैं, जो अपनी बात कहने के लिए, अपनी बात मनवाने के लिए मार देने को हथियार बनाना पसंद करते हैं। बस इसी चक्कर में दस बार लिखा और दस बार मिटा दिया। अब ऐसे में देर तो होनी ही थी। 

ऐसे में मुझे याद आया कि 11 सितंबर 2001 को सुबह पौने नौ बजे दो विमान जब इमारत से टकराये थे, तब स्कूलों में टीचर बच्चों को जीवन की कहानी समझा रहे थे। टीचर ने हमें बुला कर यह बताया था कि अपने बच्चे के सामने आप इस हिंसा की बात मत कीजिएगा। आप उसे यह समझाइएगा कि ऐसी कहानियाँ सुनने और सुनाने के लिए नहीं होतीं। यह एक दुर्घटना है, इसे इसी रूप में लेना है। बच्चों का मन कोमल होता है, ऐसी कहानियों से उनमें उग्र राष्ट्रवाद पनपता है, ऐसी कहानियाँ उन्हें बदला लेने के लिए उकसाती हैं और ऐसी कहानियाँ उन्हें भविष्य में हिंसक बना सकती हैं। तो आप प्लीज अपने बच्चों के साथ इस घटना पर चर्चा करने की जगह जिन्दगी की कहानी साझा कीजिएगा, रिश्तों की कहानी साझा कीजिएगा।

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मैं ऐसे बहुत से लोगों से मिलता हूँ जो किसी धर्म या समुदाय के खिलाफ जब बोलते हैं, तो उसकी वजह बताते हैं कि आपने बँटवारे का दंश नहीं देखा है। मैं उनसे कहता हूँ कि जो बात खत्म हो गयी उसके बारे में चर्चा बंद कर देनी चाहिए। ऐसी यादें मन को हिंसक बनाती हैं, शोक को जन्म देती हैं। मैं बार-बार कोशिश करता हूँ कि शोक को पालना नहीं चाहिए। जो हुआ, वो हो गया। अब नये सिरे से जिन्दगी की किताब पढ़नी चाहिए, नये सिरे से रिश्तों की डोर थामनी चाहिए। समय के पन्ने पर जो मिट गया, उसे दिल के पन्ने से भी मिटा देना चाहिए। कुछ लोग मेरी बात समझते हैं, कुछ नहीं समझते। जो नहीं समझते उनकी कोख से ही पेरिस जैसे धमाकों का जन्म होता है। ऐसी संतान का जन्म, जिसे हमारे धर्म की किताब में भस्मासुर का नाम दिया गया था। 

खैर आज मैं इन मुद्दों पर चर्चा ही नहीं करना चाहता।

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आज मैं चर्चा करना चाहता हूँ इस बात पर कि मैं कई दिनों से यह सोच रहा हूँ कि मथुरा मिलन समारोह में कौन सा सूट पहनूँगा। सूट पहनूँ या कुर्ता पायजामा। पायजामें में मुझे बहुत मुश्किल होती है। शादी-ब्याह में दो चार घंटे के लिए पहन भी लूँ, पर हकीकत में बहुत असहज सा लगता है। दो नये सूट सिलवा चुका हूँ। जब भी घर में कोई फंक्शन होता है, तो मेरे लिए सबसे खुशी की बात यही होती है कि मैं नए कपड़े पहनूँगा। 

अभी तय करना बाकी है कि उस दिन क्या पहनूँगा। आज इसी पर लिखने का मन था, पर खबरों के संसार में रहने वालों को तो हिंसा, मार-धाड़, बम विस्फोट की खबरों से गुजरना ही पड़ता है। तो सुबह-सुबह पेरिस ब्लास्ट में उलझ गया और मेरे दिल की बात दिल में ही रह गयी। 

(देश मंथन, 14 नवंबर 2015) 

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