क़मर वहीद नक़वी, वरिष्ठ पत्रकार :
राजनीति से इतिहास बनता है! लेकिन जरूरी नहीं कि इतिहास से राजनीति बने! हालाँकि इतिहास अक्सर अपने आपको राजनीति में दोहराता है या दोहराये जाने की संभावनाएँ प्रस्तुत करता रहता है!
चौदह के चुनावी कलश से मिले शक्तिवर्धक रसायन के बाद बीजेपी भी ऐसी तमाम संभावनाओं से गदगद है! कहा जा रहा है कि बीजेपी अब कांग्रेस बनने की तैयारी में है! अचकचाइए नहीं! गाँधी, नेहरू और इंदिरा के बैज-बिल्ले अपनी कमीज पर टाँक लेने के बावजूद न तो बीजेपी आज की टुटही कांग्रेस जैसी बनना चाहती है और न ही कांग्रेस की वैचारिक चादर ओढ़ने का उसका कोई विचार है! बीजेपी चाहती है अपने पूरे भगवा रंग के साथ देश पर वैसे ही एकछत्र राज करना, जैसा किसी जमाने में कांग्रेस किया करती थी!
क्या आज ऐसी संभावनाएँ बन रही हैं? कांग्रेस के पिट चुकने के बाद क्या अब बारी क्षेत्रीय दलों और क्षत्रपों की है? क्या क्षेत्रीय राजनीति अब इतिहास बनने वाली है? क्या सचमुच ऐसा हो सकता है या होने वाला है कि अगले कुछ वर्षों में कश्मीर से कन्याकुमारी तक हर राज्य में भगवा जलवा ही नजर आये?
पिछले हफ्ते चुनाव नतीजे आने के ठीक पहले मैंने लिखा था कि मोदी (यानी बीजेपी) अब गठबंधन की राजनीति शायद नहीं ही करना चाहें और नतीजे आने के बाद बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने एक इंटरव्यू में बाकायदा यही बात कह दी कि गठबंधन की राजनीति के दिन अब लद चुके हैं! क्या लोकसभा चुनावों के बाद महज दो राज्यों में मिली जीत से बीजेपी गर्व से फूल कर कुप्पा हो गयी कि ऐसे बयान आने लगे या फिर वाकई देश की राजनीति ऐसे मुकाम पर पहुँच गयी है, जहाँ क्षेत्रीय दलों की प्रासंगिकता खत्म हो चुकी है या खत्म होनेवाली है?
जादू की दो छड़ियाँ!
राजनीति में तो यही बदलाव हुआ है कि बीजेपी जादू की दो छड़ियाँ घुमा रही है। पहली उम्मीद की और दूसरी भी उम्मीद की! पहली यह कि लोगों को उम्मीद है कि अच्छे दिन आयेंगे और दूसरी इस उम्मीद को लगातार बनाये रखने की कि मोदी जी हैं तो वह अच्छे दिन जरूर ला कर रहेंगे! अच्छे दिन आ सकने की संभावनाएँ बनी रहें, इसके लिए मोदी जी के हाथ लगातार मजबूत करते रहना जरूरी है, यह बात लोगों के मन में बैठा देने में बीजेपी बड़ी कामयाब रही है और इसीलिए यह सवाल आज उठ रहा है कि ‘अच्छे दिन’ की देशव्यापी उम्मीदी लहरों के सामने क्षेत्रीय आकांक्षाओं और जातीय पहचान के आग्रहों की राजनीति क्या कहीं टिक सकेगी?
सवाल का आधा जवाब तो इसमें निहित है कि बीजेपी कब तक लोगों में उम्मीद के सम्मोहन को बरकरार रख पाती है और बाकी का आधा जवाब क्षेत्रीय दलों और क्षत्रपों के पास है। देखते हैं कि कहाँ से क्या जवाब मिलता है? कुछ ही महीनों में झारखंड और जम्मू-कश्मीर में और अगले साल के अंत में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं। अगर दिल्ली में बीजेपी तोड़-फोड़ कर सरकार न बना सकी तो कुछ ही दिनों में यहाँ भी चुनाव होंगे। आदिवासी हित, जातीय अनुपात और विचित्र राजनीतिक समीकरणों के चलते झारखंड अब तक अपने उजबक गठबंधनों की वजह से कुख्यात रहा है लेकिन इस बार बीजेपी वहाँ हरियाणा जैसा गुल खिला दे तो अचरज नहीं होना चाहिए। आखिर गठबंधनों की ओखली में इतने दिनों तक कुटते-पिसते रहने के बाद झारखंड के लोग एक बार क्यों न उम्मीद के रथ पर भी सवार हो कर देख लें!
दिल्ली में ‘आप’ दे सकती है कड़ी टक्कर
जम्मू-कश्मीर में जरूर इस बात पर संदेह है कि अपने सारे रणनीतिक कौशल के बावजूद क्या अमित शाह ‘मिशन 44′ का लक्ष्य पा सकेंगे? जम्मू और लेह की राजनीति एक तरफ और कश्मीर घाटी की राजनीति दूसरी तरफ। इसके लिए जरूरी है कि बीजेपी जम्मू और लेह की सारी सीटें जीते और फिर घाटी में कम से कम तीन सीटें जीते या घाटी के किन्हीं तीन विधायकों का समर्थन हासिल करे। कुल मिला कर यह मिशन बड़ा मुश्किल लगता है। अगर दिल्ली में चुनाव हुए तो हालाँकि गणित कुल मिला कर अभी बीजेपी के पक्ष में ज्यादा दिखता है, लेकिन फिर भी ‘आप’ के साथ उसकी कड़ी टक्कर होगी। कांग्रेस इन तीनों राज्यों में हाशिये पर ही होगी, इसमें संशय नहीं।
बिहार जरूर दिलचस्प होगा। लालू-नीतिश और कांग्रेस के महा-गँठजोड़ को बीजेपी क्या पासवान और दूसरे छोटे-छोटे सहयोगियों के साथ मिल कर धूल चटा पायेगी? हाल के उपचुनाव के नतीजे तो ऐसे संकेत नहीं देते। ऐसे में देखना होगा कि शाह-मोदी की जोड़ी बिहार के लिए ऐसा कौन-सा अलादीन का चिराग ढूँढ कर निकालती है जो लालटेन की रोशनी में हाथ को तीर चलाने से रोक पाये?
लालू-नीतीश का उत्तराधिकारी कौन?
वैसे चुनाव के नतीजे कुछ भी हों, सवाल यह है कि क्षेत्रीय राजनीति अब कहाँ और कितने दिन चल पायेगी? जम्मू्-कश्मीर में कश्मीर घाटी की स्थिति अलग है, इसलिए उसे फिलहाल छोड़ देते हैं। झारखंड अगला राज्य है, जहाँ क्षेत्रीय प्रश्न गौण होने वाले हैं, इसमें मुझे ज्यादा संदेह नहीं। बिहार में नीतीश-लालू भले ही इस चुनाव में मोदी-शाह युग्म को करिश्मा न करने दें, लेकिन कब तक? राजद में लालू के बाद कोई नहीं है और जदयू में नीतीश के बाद चुनाव जिता सकने वाला कोई नेता नहीं है, तो इन दोनों महानुभावों के बाद यहाँ यादव-मुस्लिम-पिछड़ा-अति पिछड़ा, दलित, महादलित समीकरणों का उत्तराधिकारी कौन होगा? फिलहाल तो कोई नहीं दिखता!
2016 में असम, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में चुनाव होंगे। लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने असम में सात सीटें ले कर शानदार जीत दर्ज की है। वहाँ की क्षेत्रीय राजनीति की ध्वजवाहक असम गण परिषद इन चुनावों में पूरी तरह साफ हो चुकी है। कांग्रेस पहले ही बुरी हालत में है। अल्पसंख्यकों के बीच केंद्रित एआइयूडीएफ का ही ले-देकर कुछ सीमित इलाकों में असर है, लेकिन बस गिनती की सीटों तक। ऐसे में बीजेपी को वहाँ अपना झंडा फहराने में ज्यादा मुश्किल नहीं होनी चाहिए।
करुणानिधि, जयललिता, ममता की विरासत?
तमिलनाडु में करुणानिधि बढ़ती उम्र के कारण और जयललिता कानूनी पचड़ों के कारण शायद अब ज्यादा दिनों तक मैदान में वैसी मजबूती से न टिके रह पायें। जयललिता की पार्टी में तो कोई उनका वारिस है ही नहीं, इसलिए कल को एआइएडीएमके का क्या होगा, कह नहीं सकते। स्टालिन भी करुणानिधि की विरासत को मजबूती से आगे बढ़ा पायेंगे, यह अभी देखा जाना है. फिलहाल, बीजेपी तमिलनाडु में अपने पैर जमाने के लिए कड़ी मेहनत कर रही है और यही कहा जा सकता है कि समय और राजनीतिक परिस्थितियाँ उसके अनुकूल हैं, लेकिन यहाँ तमिल आकांक्षाएँ, क्षेत्रीय और जातीय सवाल बहुत बड़ा मुद्दा हैं और यही बीजेपी की सबसे बड़ी बाधा है। बंगाल में लेफ्ट फ्रंट के लुढ़क जाने बाद उपजे शून्य को भरने में बीजेपी तेजी से लगी है। शारदा चिट फंड घोटाले की आँच से पहले ही जूझ रही ममता बनर्जी ने बर्दवान मामले को जिस तरह ‘निबटाने’ की विफल कोशिश की, उसने बीजेपी को नयी मनचाही जमीन दे दी है। पूरे बंगाल में एक नयी भगवा लहर हिलोरें लेती दिख रही है! फिर ममता बनर्जी की पार्टी के साथ भी यही सवाल है कि पार्टी में अगली कतार में उनके बाद कौन है? कोई नहीं!
माया और मुलायम की घटती चमक!
उसके बाद उत्तर प्रदेश! वहाँ 2017 में चुनाव होने हैं। मुलायम सिंह यादव की उम्र बढ़ती जा रही है। अखिलेश अपने बूते पार्टी चला पायेंगे या फिर चाचा शिवपाल या रामगोपाल यादव गाड़ी को खींच पायेंगे, यह संभव नहीं दिखता। सरकार का अब तक का प्रदर्शन पहले ही सवालों में हैं। दूसरी क्षेत्रीय नेता मायावती तेजी से अपना जनाधार और चमक दोनों खो रही हैं। उड़ीसा में जरूर नवीन पटनायक दम से टिके हुए हैं। बीजेपी वहाँ काँग्रेस को पछाड़ कर नम्बर दो पर आने की कोशिश में है। वहाँ भी नवीन के बाद कोई नहीं है और बीजेपी उसके बाद वहाँ भी अपना मौका़ देख रही है।
कुल मिला कर जितनी क्षेत्रीय पार्टियाँ हैं, वह किसी न किसी एक नेता के करिश्मे की बैसाखी पर चल रही हैं, जिनमें से ज्यादातर की उम्र या स्वास्थ्य या करिश्मा अब उस तरह से उनके साथ नहीं है। इसलिए बीजेपी अगर अगले कुछ बरसों में किसी नकारात्मक ‘हवा’ से बची रह गयी तो गवर्नेन्स और विकास में कोई बड़ा चमत्कार किये बिना भी उसका रास्ता आसान दिखता है। वजह दो है, अपने कामों की ‘हाइपर मार्केटिंग’ का बीजेपी का कौशल और अपनी ही दुविधाओं में उलझी कांग्रेस, जिसे सूझ ही नहीं रहा है कि वह क्या करे, कैसे करे? (raagdesh.com)
(देश मंथन, 25 अक्तूबर 2014)