बलात्कारी को कौन रोकेगा?

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सुशांत झा, पत्रकार :

निर्भया मामले में बाल अपराधी की उम्र को लेकर बहस हो रही है, मेरे ख्याल से इसे कम करने की जरूरत है। कम से कम बलात्कार और हत्या जैसे मामलों में तो जरूर। 18 साल सरकार चुनने की उम्र तो हो सकती है, लेकिन बलात्कार या हत्या के प्रति अनभिज्ञ रहने की नहीं। इस सूचना विस्फोट के युग में 18 साल की उम्र में कोई व्यक्ति वैसा बालक भी नहीं रहता-जी हाँ वो गरीब का बच्चा भी नहीं जिसके बारे में कई लोग कह रहे हैं कि गरीबी और जहालत के हालात ने उसे बलात्कार करने पर मजबूर किया होगा। मुझे लगता है कि किसी गरीब या अनपढ़ का इससे बड़ा अपमान क्या होगा? 

हाँ, ऐसा होता है कि गरीबी/अशिक्षा कई बार लोगों को गलत संगत में डाल देती है। लेकिन ऐसे बच्चों को सिर्फ 14 साल तक की उम्र के लिए कुछ राहत दी जानी चाहिए, न कि 18 साल तक की उम्र तक। चौदह साल की उम्र शायद बाल मजदूरी में भी माना गया है। 

एक मित्र ने कहा कि उम्र घटा कर अगर 16 भी कर दिया जाए तो क्या वो बलात्कार नहीं करेगा? मेरा मानना है कि 14 साल या उससे कम का बच्चा बलात्कारियों की सूची में कम से कम पाया जाएगा (हालाँकि इस पर शोध करना होगा)..कम से कम उस समय तक उसके हाथ-पैर और हाथों की हड्डियाँ इतनी मजबूत न होंगी कि वो किसी वयस्क महिला का बलात्कार कर सके। हाँ, छोटी बच्चियाँ तब भी उससे सुरक्षित नहीं रहेंगी। 

लेकिन लोगों का गुस्सा सिर्फ इसी बात पर नहीं है। लोगों का गुस्सा बलात्कार के आम मामलों पर शासक और राजनीतिक वर्ग की उदासीनता को लेकर है। निर्भया कांड के तीन साल बीत जाने पर भी राजनीतिक वर्ग की तरफ से कोई ठोस आश्वासन नहीं है कि देश में बलात्कार (और हत्या) के मामले में स्पीडी ट्रॉयल की व्यवस्था की जाएगी और की जाएगी तो उसकी शुरुआत कब होगी? जाहिर है, इसके लिए भारी इंतजाम करना होगा, हजारों या संभवत: लाख से भी ऊपर कर्मचारियों की बहाली करनी होगी, प्रशिक्षण देना होगा और भारी धन खर्च करना होगा। इस प्रक्रिया को लागू करने में ही दसियों साल लगेंगे-लेकिन शुरू तो हो।

तर्क और कुतर्क तो कई हो सकते हैं कि पुलिस ही लगा दोगे तो क्या बलात्कार रुक जाएगा? लेकिन प्रश्न ये है कि जब देश का हर कोना महिलाओं के लिए असुरक्षित हो, तो एक नियमित मासिक वेतन पाने वाला पुलिसिया तो एक आम लफंगे-बलात्कारी से ज्यादा जिम्मेदार होता ही है। थानों में काम करने के बदतर हालात, अदालतों में पेंडिंग मामले और कर्मचारियों के कम वेतन और पुरातन प्रशिक्षण ने ऐसा हाल कर दिया है कि महिला तो महिला, एक पुरुष भी थाना जाने में डरता है। 

125 करोड़ के देश में पुलिसिया और कानूनी सुधार तो महज एक पक्ष हो सकता है, लेकिन उन सुधारों का क्या जो हमें अपने घरों में, स्कूलों में, फिल्मों में और रेडियो जॉकियों के लिए करने है? जब रेडियो पर द्वि-अर्थी संवाद और गाने बजते हैं तो वे कितने नाबालिगों को भविष्य का बलात्कारी बनाते हैं? और जब टीवी पर कॉमेडी शो में स्त्री-विरोधी ‘तड़का’ लगाया जाता है तो उससे कितने बलात्कारी पैदा होते हैं? उसे कौन रोकेगा?

लेकिन सबसे बड़ी मांग स्पीडी ट्रॉयल की है, मैं फाँसी को जुमला मानता हूँ। फाँसी से बड़ी सजा जवानी के दस-बीस साल जेल में सड़ने की है। लेकिन स्पीडी ट्रॉयल के लिए एकाध लाख कर्मचारियों को बहाल करना होगा और बजट का एक हिस्सा देना होगा। क्या हमारा राजनीतिक वर्ग इसके लिए तैयार है?

(देश मंथन, 22 दिसंबर 2015)

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