रिश्ते हैं, लेकिन कोई रिश्ता बचा नहीं

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

कई साल पहले एक रात हमारे घर की घंटी बजी। 

तब हम पटना में रहते थे। आधी रात को कौन आया?

पिताजी बाहर निकले। सामने दो लोग खड़े थे। एक पुरुष और एक महिला।

पटना वाले हमारे घर के बरामदे में लोहे की ग्रिल लगी थी, जिसमें हम रात में ताला बंद कर देते और पूरा घर सुरक्षित हो जाता। 

पिताजी ने ताला खोला। पूछा कि आप लोग कौन हैं, कहाँ से आये हैं। उन्होंने पिताजी के हाथ में एक चिट्ठी पकड़ायी। पिताजी ने चिट्ठी पढ़ी और खुश हो गये। उन्होंने हमें आवाज देकर बुलाया और कहा कि ये लोग फलाँ जगह से आये हैं और इन्हें तुम्हारी बुआ ने भेजा है।

बुआ ने भेजा है? वाह! 

अब हमारे लिये ये जानना जरूरी नहीं था कि वो कौन हैं, कहाँ से आये हैं। 

उन्हें हमारी बुआ ने भेजा था, यही जान लेना बहुत बड़ी बात थी। सर्दी की वो रात थी, फटाफट उनके सोने के लिए एक बिस्तर का इंतजाम किया गया। हम दोनों भाई दो रजाइयों में लिपटे थे, हमारी एक रजाई ले ली गयी और कहा गया कि दोनों भाई एक ही रजाई में घुस जाओ। एक रजाई नये मेहमान को देनी है। हमें याद है, हम पहली बार उनसे मिल रहे थे। पिताजी ने अपनी बड़ी दीदी और उनके पूरे परिवार का हाल पूछा और ये जान लिया कि वो उनके जानने वाले हैं। मतलब हमारे रिश्तेदार नहीं, बुआ के जानने वाले हैं। 

उनके साथ जो महिला थीं, उनकी तबीयत थोड़ी खराब थी और पटना मेडिकल कॉलेज-अस्पताल में उनका इलाज होना था। क्योंकि वो मेरी बुआ को जानते थे और बुआ के छोटे भाई का परिवार पटना में था इसलिए ये तो सोचने की बात ही नहीं थी कि वो कहाँ जायेंगे। वो बिना किसी पूर्व सूचना के हमारे घर पहुँच गये थे। उनकी ट्रेन आनी तो शाम को थी, लेकिन तब ट्रेन के टाइम से न चलने का बुरा कौन मानता था। 

ट्रेन पाँच घंटे लेट पहुँची थी और हमारे वो मेहमान बिना खाना-पीना खाये आधी रात में हमारे घर पहुँच गये थे। 

फटाफट खाना बना। सोने का जुगाड़ हुआ। 

और सुबह उन्हें अस्पताल पहुँचाने का भी। 

वो कोई हफ्ता भर हमारे घर रहे। हम खूब घुल-मिल गये। हम रोज ठहाके लगाते, साथ खाते और फुल मस्ती करते। ऐसा लग रहा था मानों हम सदियों से एक दूसरे को जानते रहे हों। बुआ ने तिल की मिठाई भेजी थी। दिल्ली में उसे गजक कहते हैं, हमारे यहाँ तब तिलकुट कहते थे। हम सबने तिल और गुड़ की उस मिठाई को खूब मजे लेकर खाया। हमारी बुआ सारे संसार का ख्याल रखती थीं और भाई-भतीजे में तो उनकी आत्मा ही बसती थी। 

उन्होंने अपने परिचित भेज दिये, हमने उन्हें रिश्तेदार बना लिया।

आप जान कर हैरान रह जायेंगे कि हम दोबारा कभी उस रिश्तेदार से नहीं मिल पाये, जो उस रात हमारे घर आये थे, लेकिन हम सब भाई-बहनों के जेहन में उस रिश्ते की याद आज भी ताजा है। हम आज भी उनके आने और अपनी रजाई छिन जाने को याद कर खुश होते हैं।

***

जब मैं पच्चीस साल पहले भोपाल से दिल्ली नौकरी करने आया था तो मेरे मामा ने एक चिट्ठी अपने एक जज दोस्त के नाम लिख कर मुझे भेज दिया था। दिल्ली के किदवई नगर में वो रहते थे और मैं चिट्ठी लेकर उनके घर पहुँच गया। यकीन कीजिए जितने दिन उनके घर रहा, परिवार के एक सदस्य की हैसियत से रहा। उनकी बेटियाँ मेरी बहनें बन गयीं और उनका बेटा मेरा भैया। मुझे दफ्तर से आने में देर होती, तो वो चिंतित होते। 

***

मेरे एक परिजन ने जानना चाहा है कि मैं हर रोज माँ, भाई, पत्नी, पिता और तमाम रिश्तों पर ही क्यों लिखता हूँ। 

उनका कहना है कि ये सारे रिश्ते तो उनके पास भी हैं। फिर रोज-रोज रिश्तों की चर्चा क्यों?

बात तो सही है। 

लेकिन फिर मैं जब सोचने बैठता हूँ तो यही सोचने लगता हूँ कि क्या सबके पास रिश्ते हैं? क्या सचमुच रिश्ते हैं? 

कल मेरे पास किसी ने रिश्तों पर कुछ सुंदर पंक्तियाँ लिख कर भेजीं। 

आज मैं बहुत छोटे में उन्हें आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। आप बहुत गंभीरता से उन पंक्तियों को समझने की कोशिश कीजियेगा। मुझे यकीन है कि पहले हजारों बार आपने ये पंक्तियाँ पढ़ी होंगी, लेकिन आज एक बार मेरे कहने से पढ़िये। फिर मुझे बताइए कि क्या सचमुच हम सब उन पंक्तियों के किसी कोने के करीब हैं।

“अकेले में हम सिर्फ बोल सकते हैं, लेकिन जब हम रिश्तों के साथ होते हैं तो हम बातें करते हैं।”

“अकेले में हम मजे कर सकते हैं, लेकिन जब हम रिश्तों के बीच होते हैं तो उत्सव मनाते हैं।”

“अकेले में हम मुस्कुरा सकते हैं, लेकिन रिश्तों के बीच हम ठहाके लगाते हैं।”

और आखिरी लाइन ये कि ये सब सिर्फ इंसानी रिश्तों में मुमकिन है।

मैं रोज-रोज रिश्तों की कहानियाँ सिर्फ इसलिए लिखता हूँ क्योंकि सच यही है कि आज आदमी सबके बीच रह कर भी सबसे अकेला हो गया है। सारे रिश्ते हैं, लेकिन दरअसल कोई रिश्ता बचा नहीं है। हम सब अपनी जिंदगी जीने की तैयारी में इतना मसरूफ हो गये हैं कि हमारे पास खुद के लिए वक्त नहीं रहा। 

***

अब मैं कहीं जाता हूँ तो होटल बुक कराता हूँ। पता नहीं सारे रिश्ते कहाँ चले गये। आप में से जिनके पास बुआ के उस पड़ोसी का कोई रिश्ता बचा है तो आप भाग्यशाली हैं। मैं तो अपने उसी भाग्य की तलाश में हर रोज मुँह उठाये आपके पास पहुँच जाता हूँ।

(देश मंथन, 09 अप्रैल 2015)

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