रिश्तों की तलाश

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

आज आपको बहुत से सवालों के जवाब मिल जाएँगे। 

आप में से बहुत से लोग जानना चाहते हैं कि संजय सिन्हा कौन हैं? रोज सुबह उठ कर फेसबुक पर लिखने के पीछे उनका मकसद क्या है? उनकी महत्वाकांक्षा किसी राजनीतिक पार्टी के साथ तो जुड़ने की नहीं? कहीं वो कुछ और तो नहीं चाहते? आखिर कोई क्यों सुबह उठ कर फेसबुक पर लिखने बैठ जाएगा? क्या मिलता है ऐसे मुफ्त लिखने से? आखिर वो क्यों रिश्तों की बातें करते हैं? उनकी कथनी और कहनी में अंतर तो नहीं? 

कई लोगों ने मुझसे ये सवाल किये हैं। कई लोगों ने मेरी कुंडली ढूँढने की भी कोशिश की है। कई लोगों ने मेरे मकसद पर सवाल भी खड़े किये हैं। कई लोगों ने मुझसे रिश्ता जोड़ा है, तो कुछ लोगों ने तोड़ भी लिया है। 

आज आपको सभी सवालों के जवाब मिल जाएँगे। मिल जाने चाहिए। 

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फेसबुक पर मैं लिखने आया था 12 नवंबर, 2013 की सुबह। 

पर आप सबसे मैं जुड़ गया था 2 अप्रैल, 2013 की सुबह। अब आप सोच रहे होंगे कि ये कौन सी नई पहेली बुझा रहा हूँ आपको। ये पहेली नहीं है। यही सच्चाई है। 

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2 अप्रैल, 2013 की सुबह ही मेरे पास किसी अनजान व्यक्ति का फोन आया था कि आपका भाई इस संसार में नहीं रहा। मेरा छोटा भाई, मेरे जिगर का टुकड़ा इस संसार में नहीं रहा? उसके होने और नहीं होने के बीच बस वो तारीख थी, वो फोन था और घड़ी की रुकी हुई सुई थी। 

मर तो इस संसार में कोई भी सकता है, पर यमराज को पता नहीं क्यों जल्दी थी मेरे छोटे भाई को ले जाने की। वो दफ्तर में बैठा था, काम कर रहा था और बैठे-बैठे यूँ ही चला गया। जो भाई जब दिल्ली में मेरे घर पर होता, तो बिना बताए तीसरी मंजिल के मेरे फ्लैट से नीचे एक सिगरेट पीने भी नहीं जाता था, वो भाई बिना बताए चला गया। 

मर जाना बड़ी बात नहीं होती। जो इस संसार में आया है, उसे एक दिन मर ही जाना होता है। पर मर जाने का सबसे दुखद पहलू ये होता है कि जो मर जाते हैं, वो दुबारा कभी नहीं नहीं मिलते। कभी नहीं, मतलब कभी नहीं। न इस जन्म में, न अगले और उसके अगले जन्म में। 

तो मेरा भाई मुझसे बिना बताए चला गया, फिर कभी नहीं मिलने के लिए। 

मैं न जाने कितनी बार उसके और अपने रिश्तों पर पोस्ट लिख चुका हूँ। मैं लिख चुका हूँ कि उस दिन मेरा भाई नहीं मरा था, मैं ही मर गया था। 

पर क्योंकि मेरा शरीर सबके सामने है, उस शरीर में डॉक्टरी भाषा में बाईं ओर एक दिल धड़क रहा है, इसलिए सबको लगता रहा कि मैं जिंदा हूँ, पर ये सच नहीं है। 

सच यही था कि मेरी मृत्यु हो चुकी थी। जला मेरे छोटे भाई का शरीर था, पर जल मैं ही गया था। 

उसके बाद मेरे लिए नारंगी के आकार की इस धरती के होने और नहीं होने का कोई अर्थ बचा ही नहीं। जो बचा था, वो मेरी तन्हाई थी, रोज सुबह का मेरा क्रंदन था। 

हम दोनों पति-पत्नी सुबह जगने के बाद चाय पीने से पहले रोते थे। वो अपने सखा रूपी देवर को याद करके अपने आँसू पोंछती थी, मैं अपने जिगर के टुकड़े को याद करके अपने आँसू पोछता था। ये सिलसिला चला 02 अप्रैल से 12 नवंबर तक। सात महीनों तक हमारा यही रूटीन रहा। हम रात में सोते अपने भाई की चर्चा करते हुए, हम जगते अपने भाई को याद करते हुए। 

इस तरह हमारा जीवन आँसुओं में सराबोर रहा। हम इन सात महीनों में अपने रिश्तों से जुड़ने की जगह कटते चले गये। हमें लगने लगा कि इस संसार में कुछ भी नहीं। हम दोनों अवसाद के चरम पर पहुँच चुके थे। 

मैं दफ्तर जाता था, पर काम में मन नहीं लगता था। मेरी पत्नी ने दफ्तर जाना ही छोड़ दिया। हमारे सामने जिन्दगी का मकसद खत्म हो गया था। 

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आज मैं इस विषय पर जितना लिखूँगा, मेरी तकलीफ उतनी बढ़ती चली जाएगी। 

इसलिए कम से कम आज की तारीख में मैं आपको सिर्फ यह बताना चाहता हूँ कि सात महीनों के बाद एक दिन जब मैंने फेसबुक पर लिखना शुरू किया, तो वो पहला दिन था, जब मैं कुछ और कर रहा था, अपने आँसुओं को पोंछने के अलावा।

मैं आपसे पहले भी कह चुका हूँ कि मैं फेसबुक पर जुड़ा था अपने दुख से मुक्ति पाने के लिए। मैं फेसबुक से जुड़ा था अपने रिश्तों को तलाशने के लिए। 

एक भाई को तलाशने के लिए। 

मेरे पास वक्त नहीं था नफरत को जीने के लिए। 

आया था एक भाई की तलाश में। मिल गये एक हजार भाई। 

मेरा दुख कम हो गया। मेरा दुख कम हुआ तो, मेरी पत्नी का दुख भी कम हो गया। हम सुबह फेसबुक पर आपसे मिल लेते हैं, हमारा दिन बन जाता है। 

मैं इसीलिए राजनीति पर नहीं लिखता। मैं रात-दिन राजनीति को जीता हूँ। जिन नेताओं और अभिनेताओं से आप मिलने की तमन्ना रखते होंगे, मैं उनके साथ उठता-बैठता हूँ। 

मैं यहाँ रिश्तों की तलाश में आया था, रिश्तों को ही जीता हूँ। 

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“जीवन है बर्फ की नैया, नैया पिघले हौले हौले, चाहे हँस ले चाहे रो ले, मरने से पहले जीना सीख ले…।

मैं यही सीख रहा हूँ।  

(देश मंथन, 03 अप्रैल 2016)

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