अबूझ पहेली

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

हमारे फेसबुक परिजनों में एक हैं Shaitan Singh Bishnoi। मैंने एक दो बार जब कभी ये लिखा कि कृष्ण और द्रौपदी के बीच का रिश्ता कभी सखा-सखी का था, कभी भाई-बहन का और कभी प्रेमी-प्रेमिका का, तो शैतान सिंह जी ने मुझसे कहा कि मैं कभी न कभी इस बात की खुल कर चर्चा करूँ कि आखिर ऐसा कैसे संभव है कि एक ही स्त्री में कोई हर रूप को तलाश ले। यकीनन उन्हें पता होगा कि कृष्ण की बहन सुभद्रा अर्जुन से ब्याही गयी थीं, इस तरह द्रौपदी भी कृष्ण की बहन लगीं।

अपनी व्यस्तता में मैं भूल गया कि मैंने उनसे वादा किया था कि कृष्ण और द्रौपदी के प्रेम पर लिखूँगा। मेरे भूलने से क्या होता, वो तो नहीं भूले। और रह-रह कर कई बार उन्होंने याद दिलाया कि मैंने वादा किया है। तो आज उनसे किया वादा पूरा कर रहा हूँ। 

सखा-सखी का रिश्ता बड़े दुलार का होता है और ये दुलार पनपता है आपसी सौहार्द और विश्वास के रिश्ते से। शैतान सिंह जी को ये भी पता होगा कि अर्जुन और कृष्ण में बहुत गहरी दोस्ती थी। कृष्ण ने कई जगह अर्जुन को सखा कहा है। इस रिश्ते से भी द्रौपदी ने खुद को कृष्ण की सखी माना। 

ये दोनों रिश्ते स्प्ष्ट हैं। 

कभी न कभी सखा-सखी के भाव पर एक पोस्ट लिखना बनता है। बहुत अद्भुत होता है, जब दो विपरीत लिंग वालों में ऐसा कोई रिश्ता पनपता है, जो संपूर्ण विश्वास के भाव पर टिका होता है, और उसे कोई नाम नहीं मिल पाता। अंग्रेजी में फ्रेंड, ब्वॉय फ्रेंड कह कर इस रिश्ते की खुशबू कमजोर कर दी जाती है। हिन्दी में द्वापर युग की क्या स्थिति थी, ये मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा। लेकिन कलयुग में स्त्री और पुरुष की मित्रता के मायने बहुत सिमट गये हैं। देह का आकार आत्मा से बड़ा हो गया है। तन मन पर हावी हो गया है। ऐसे में हिन्दी में स्त्री और पुरुष के रिश्ते का अर्थ बहुत संकुचित और सिमट कर रह गया है। इसीलिए आज कोई किसी को सखी या सखा संबोधित नहीं करता। कर भी ले तो वो रिश्ता फेसबुक या टेलीफोन के तक सिमट कर रह जाता है। सखी यानी सहचरी यानी संगिनी। 

बड़ा अटपटा सा अर्थ है इसका। पर जितना मुझे याद आ रहा है द्वापर युग कलयुग की तुलना में अधिक उन्नत और उदार था। 

मैं खुद ही अपने भाव से न भटक जाऊँ, इसलिए जरूरी है कि आज मैं मूल मुद्दे पर ही रहूँ। 

बात थी कि द्रौपदी कृष्ण की प्रेमिका कैसे हुईं।

ये तो सब जानते ही हैं कि द्रौपदी अपने जमाने की गजब की खूबसूरत महिला थीं। बहुत तपस्या और तप से पैदा हुई थीं। महाराज द्रुपद की आन-बान और शान थीं। उस जमाने के सारे योद्धा द्रौपदी पर जान छिड़कने को तत्पर थे। ये भी सभी जानते हैं कि गुरु द्रोण के कहने पर अर्जुन ने महाराज द्रुपद का अपमान किया था, उन्हें बन्दी बनाया था और द्रुपद ने द्रोण से बदला लेने की ठान ली थी। 

इसके आगे की कहानी मैं सुनाता हूँ। 

अर्जुन और द्रोण से बदले की आग में झुलस रहे द्रुपद ने कृष्ण की मदद लेनी चाही थी द्रौपदी के विवाह के लिए।

अगर मैं सही याद कर पा रहा हूँ तो द्रुपद मन ही मन चाहते थे कि कृष्ण ही द्रौपदी से विवाह कर लें। अजीब विडंबना थी, संपूर्ण को ही पूर्ण किए जाने की तैयारी थी। बल्कि एकबार उद्धव ने कृष्ण पर ताना भी मारा था, “कान्हा! सारे संसार को पता है कि मैं कुंआरा हूँ, और तुम विवाहित हो। फिर भी देखो विवाह का प्रस्ताव तुम्हारे पास आ रहा है।”

खैर, कृष्ण जब महाराज द्रुपद से मिलने पहुँचे, तो उनके पास एक पैगाम आया कि द्रुपद की बेटी द्रौपदी कृष्ण से अकेले में मिलना चाहती हैं। 

कृष्ण द्रौपदी से मिलने गये भी। 

मुलाकात के इस एक पल में द्रौपदी और कृष्ण के बीच के सारे रिश्तों का आधार तय हो गया था। द्रौपदी ने पहली मुलाकात में कृष्ण से कहा था कि अंतरंग के इस पल का आप चाहें, तो फायदा भी उठा सकते हैं। कृष्ण मुस्कुराए। द्रौपदी ने कहा कुछ अन्यथा अर्थ न लें कृष्ण, मेरा मतलब ये है कि आप मुझे तुम बुला सकते हैं। कृष्ण मुस्कुराते रहे। द्रौपदी ने आगे कहा कि कोई भी स्त्री आपसे विवाह कर प्रसन्न होगी। कृष्ण ने पूछा था कि हर रिश्ते का अंजाम विवाह ही क्यों? 

“क्योंकि मेरे पिता बदला लेना चाहते हैं, द्रोण से। अर्जुन से।”

“मतलब इस विवाह में देने का भाव कम लेने का भाव ज्यादा है। क्या हो गया है आज आर्यावर्त को? संबंधों को आधार बनाया जा रहा है ‘बदलापुर’ फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने के लिए?” 

“हाँ, मैं जानती हूँ। पिताजी ‘गजनी’ फिल्म के नायक की तरह बदले की आग में झुलस रहे हैं। और मैं ये भी जानती हूँ कि वो आप ही हैं, जो पिताजी की मदद कर सकते हैं।”

“मदद तो मैं बिना तुमसे विवाह किए भी कर सकता हूँ। तुम जैसी रूपवती और बुद्धिमान स्त्री की मदद भला कौन नहीं करना चाहेगा? लेकिन इसके लिए किसी बंधन में बंधने की क्या आवश्यकता?”

“क्योंकि बंधन से ही समर्पण का भाव उत्पन्न होता है। और समर्पण दुतरफा न हो तो उसकी विश्वसनीयता घट जाती है।”

“तब तो ठीक है, तुम सखी बन जाओ। सखी यानी संगिनी, सखी यानी सहचरी।”

“कान्हा, मैं जानती हूँ कि तुम विवाहित हो। इसलिए तुम मुझसे विवाह नहीं करना चाहते।”

“बंधन तन के रिश्तों पर है, मन के रिश्तों पर नहीं। तुम्हें एक से बढ़ कर एक शूरवीर मिलेंगे, जिनसे विवाह करके तुम पिता का बदला ले सकती हो।”

“मैं जानती हूँ कान्हा, भविष्य में तुम मुझे कर्ण से विवाह नहीं करने दोगे। यहाँ तक कि तुम एकलव्य को भी विवाह की बेदी तक नहीं पहुँचने दोगे। तुम वो सब करोगे जिसे तुम अभी-अभी पिताजी के संदर्भ से कह रहे थे कि आज आर्यावर्त रिश्तों में देने की तुलना में लेने पर यकीन करने लगा है। मैं जानती हूँ कि तुम कुछ न कुछ ऐसा करोगे कि सारा खेल मेरी मर्जी से अधिक आर्यावर्त की राजनीतिक मर्जी पर निर्भर करने लगेगा। और तुम ये सब करोगे, अपनी सुविधा से। अपनों की सुविधा से।”

“ऐसा नहीं होगा, द्रौपदी। जो होगा तुम्हारी ही इच्छा से होगा। संसार का सबसे बड़ा वीर तुम्हारा पति होगा। इसके लिए तुम्हें हामी भरनी होगी स्वयंवर के लिए।”

“स्वंयवर? यानी खुद अपने लिए वर का चयन? लेकिन कृष्ण मान लो मैं तुम पर पहली ही नजर में मर मिटी होऊँ तो?”

“तो क्या? उस स्वयंवर में सिर्फ कुंआरे आएँगे द्रौपदी। काश तुम रुक्मिणी से पहले मिली होती!”

“तो आर्यावर्त का इतिहास बदल जाता या भविष्य?” 

“मैं जानता हूँ द्रौपदी, कि तुम अगमजानी हो। तुम बहुत कुछ समझ भी रही हो। फिर भी स्वयंवर से बेहतर कोई साधन नहीं है स्त्रियों के लिए वर चुने जाने का।”

“कृष्ण अगर तुम मुझसे पूछते तो मैं वर माला तुम्हारे गले में ही डालती।”

“भाई के गले में तुम्हारा माला कंठी माला में तल्दील हो जायेगी।”

“बहुत खूब! भाई। सखा। और कुछ? क्यों कृष्ण, क्या ही अच्छा हो स्त्री पुरुष के एक ही रिश्ते में सभी रिश्ते समाहित हों।”

“मुमकिन है द्रौपदी। अगर ऐसा हो सका तो वो संपूर्ण रिश्ता होगा। लेकिन ऐसा तभी होगा, जब सबकुछ भाव आधारित होगा।”

“तुम वादा करो, कान्हा कि चाहे वरमाला जिसके गले में मैं डालूँ, चाहे तुम जिन परिस्थितियों में रहो, मैंने अगर तुम्हें भाव से पुकारा तो तुम मेरे सामने रहोगे।”

“ओह! पांचाली! मैं कितनों की यादों में बसूँगा? यही वादा मुझसे वृंदावन में राधा ने लिया है। यही वादा सारा संसार मुझसे माँग रहा है। मैं वादा करता हूँ द्रुपद पुत्री कि इस संसार में जो भी व्यक्ति मुझे मन से याद करेगा, मैं उसके समक्ष रहूँगा। युगों-युगों तक।”

“कान्हा। इस जन्म में न सही, अगले जन्म में, अगले में न सही उसके अगले जन्म में मैं तुम्हारी पत्नी बनूंगी।”

“द्रौपदी! तुम इस जन्म में भी मुझमें ही समाहित हो, अगले जन्म में भी मुझमें समाहित रहोगी। उसके अगले भी समाहित रहोगी। एक स्त्री सिर्फ एक रूप में किसी पुरुष की जिन्दगी में सिमट कर नहीं रह सकती। तुम ही सुभद्रा होगी, तुम ही राधा होगी। जो सोलह हजार महिलाएँ भविष्य में नरकासुर से मुक्त होकर संपूर्ण आर्यावर्त में भ्रमण करेंगी, उनमें भी तुम ही रहोगी। रुक्मिणी तुम्हीं हो, जामबंती तुम्हीं हो, सत्यभामा भी तुम्हीं हो।

मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि तुम जब-जब मुझे याद करोगी, मैं चाहे जिन परिस्थितियों में रहूँ, मैं क्षण भर में तुम्हारे समक्ष रहूँगा। 

राधा से रिश्ता दुनिया जानेगी। रुक्मिणी से भी रिश्ते को दुनिया जानेगी। उन सभी रिश्तों को दुनिया परिभाषित कर पाएगी, जिनसे मैं जुड़ा रहूँगा। लेकिन तुम्हारा मेरा रिश्ता एक अबूझ पहेली रहेगा, सारे संसार के लिए। 

तुम सखी रहोगी। तुम प्रेमिका रहोगी। तुम बहन भी रहोगी। तुम भविष्य में चाहे पाँच पतियों की पत्नी बन जाओगी, लेकिन तुम मेरी रहोगी, द्रौपदी।”

(देश मंथन 20 जून 2015)

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