बेटियों को हक है खुश होने का

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

मैंने पहली बार जब शहनाई की आवाज सुनी थी, तब मैं मेरी उम्र आठ साल रही होगी। दीदी का शादी तय हो गयी थी और घर में उत्सव का माहौल था। 

जिस दिन दीदी की शादी होने वाली थी, दो शहनाई वाले छत पर बैठ कर पूँ-पूँ बजा रहे थे। मुझे राग का ज्ञान नहीं था, लेकिन उनके मुँह से लगी शहनाई से जो आवाज निकल रही थी, वो दिल के किसी कोने में मोम बन कर पिघलती सी लग रही थी। 

मैंने पहली बार पिताजी से पूछा था, “ये लोग क्या बजा रहे हैं?” पिताजी ने समझाया था, “ये शहनाई है। शादी पर शहनाई का बजना शुभ होता है।”

रात में जब बारात आ गयी और खाना-पीना शुरू हुआ, तो शहनाई की आवाज थम गयी थी और लाउडस्पीकर पर फिल्मी गीत बजने लगा था। 

“बहारों फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है…।”

जीजाजी जयमाल के स्टेज पर बैठने वाले थे। घर की सारी महिलाएँ छत से जीजाजी की एक झलक पाने को व्याकुल थीं। 

मैं इधर से उधर दौड़ रहा था। मेरी समझ में ठीक से नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। लेकिन हम बच्चे शादी के उस पंडाल में छुआ-छुई खेल रहे थे। मुझे लग रहा था कि काश हर रोज शादी हो, सबलोग ऐसे ही खुश रहें और हम खेलते रहें, हमें कोई रोकने और टोकने वाला न रहे!

रात में मैं तो सो गया था, लेकिन दीदी जागती रही। दीदी को सारी रात बाँस के बने मड़वा में बैठे रहना पड़ा था। मुझे गहरी नींद से जगाया गया था, दीदी और जीजाजी ने फेरे ले लिए थे, अब शादी में एक रस्म भाई की थी। ठीक से नहीं याद कि भाई होने के नाते मुझे क्या करना था, लेकिन दीदी ने लाल रंग की साड़ी बदल ली थीं और पीले रंग की साड़ी में वो एकदम पीली गुड़िया जैसी लग रही थीं। थोड़ी देर में उसकी नाक से सिर के पीछे तक नारंगी रंग का सिंदूर लगा दिया गया था। 

कल तक मेरे साथ कबड्डी खेलने वाली दीदी उस रात अचानक बहुत बड़ी-बड़ी लगने लगी थी। 

दीदी कोने में सहमी सी, सिकुड़ी सी बैठी थी। उसकी सूजी आँखें बयाँ कर रही थीं कि वो खूब रोई थी। वैसे तो सब खुश थे, लेकिन एक सच ये भी है कि माँ रो रही थीं, पिताजी रो रहे थे। सब रो रहे थे। 

मुझे अभी भी नींद आ रही थी। मैं सोने जा ही रहा था कि लाउडस्पीकर पर धीरे-धीरे गाना बजने लगा…

“बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए

बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए

चार कहार मिल, मोरी डोलिया सजावें…

मोरा अपना बेगाना छुटो जाए

बाबुल मोरा…।”

मैं इस गाने के बोल तो सुन रहा था, पर मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। 

ये आवाज मेरे दिल को चीर रही थी। ऐसा लग रहा था कि कुछ ऐसा होने जा रहा है, जो नहीं होना चाहिए। ऐसा लग रहा था कि दीदी हम सबको सदा के लिए छोड़ कर जा रही है। मेरा दिल बैठ रहा था। कलेजा मुँह को आ रहा था। 

गाना बजता जा रहा था। 

आज जब मैं इस पोस्ट को लिख रहा हूँ, तो मेरा यकीन कीजिए दीदी की शादी की उस रात को याद करते हुए मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं। वो रात थी, उसके बाद मेरी हिम्मत ही नहीं हुई किसी की शादी को पूरी तरह देख पाऊँ। जब-जब मेरे कानों में ये पंक्तियाँ गूंजती हैं, “मोरा अपना तो बेगाना छुटो जाए…” मेरा दिल बैठ जाता है। 

फिर दीदी की विदाई हुई थी। शादी के दिन सारे घर में चहल-पहल थी, विदाई की सुबह सारा घर विलाप कर रहा था। पिताजी तो दहाड़ मार कर रो रहे थे। बुआ, मौसी, दीदी की सहेलियाँ सब दीदी के गले लग कर रो रही थीं। मैंने कभी पिताजी को रोते नहीं देखा था। 

ऐसा गमगीन माहौल ही मैंने नहीं देखा था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसी क्या बात हो गयी, जो सब इतना रो रहे हैं। शादी ही तो हुई है, दीदी कल फिर घर आ सकती है, सबसे मिल सकती है। 

सबको रोते देख कर मैं भी एक टेबल के उपर खड़ा होकर जोर-जोर से रोने लगा। 

*** 

कल मैं पटना आया, एक परिचित की शादी में शामिल होने। 

शादी पटना के मौर्या होटल में थी। 

बैंड वाले आ गयी थे। पहला गाना जो बजा उसे सुन कर सब थिरक उठे। 

“तू लगावे लू जब लिपिस्टिक, हिलेला आरा डिस्टिक, तू जिला टॉप लागे लू, कमरिया करे लपालप, लॉलीपॉप लागे लू…।”

मुझे नहीं पता कि आपको इस भोजपुरी गाने का कितना अर्थ पता चला। पर जितना मेरी समझ में आया है उसके मुताबिक लड़का लड़की से कहता है कि तुम जब होठों पर लिप्स्टिक लगाती हो, तो पूरे आरा जिला में तुम्हारी चर्चा होने लगती है। तुम जिला भर सबसे उम्दा नजर आती हो और जब कमर हिलती है तो तुम लॉलीपॉप लगने लगती हो।

सभी लोग लॉलीपॉप की धुन पर खूब थिरके। 

जयमाल का कार्यक्रम हुआ। लड़की मस्त भाव से चल कर स्टेज तक पहुँची। उसने अपनी सहेलियों की मदद से पूरे आत्मविश्वास के साथ गले में माला डाली। फिर वो बहुत आराम से स्टेज पर बैठी। सबके साथ उसने तस्वीरें खिंचवाई।

पूरी शादी में नो रोना-धोना। हॉल में धीरे-धीरे गाना बज रहा था, “दिल है पानी…पानी…पानी…पानी…।”

***

मैंने एक लड़की से पूछा भी कि पहले तो लड़कियों की शादी में मातम मच जाता था। पर अब ऐसा नहीं होता, क्यों?

“पहले कहते थे कि लड़की की डोली माँ के घर से उठती है, ससुराल से तो अरथी ही उठती है। इसीलिए लड़की और उसके घर के लोग मातम मनाते थे। चार कहांरों के डोली उठाने की तुलना भी निर्गुन में इसी से की गयी है। लेकिन अब लड़कियाँ ऐसा नहीं समझतीं। वो अपने घर आती हैं, अपने माँ-बाप का ख्याल रखती हैं। अब माँ-बाप भी जानते हैं कि बेटे भले उन्हें न पूछें, पर बेटियाँ तो पूछती ही रहेंगी। 

मैं समाजशास्त्री तो नहीं हूँ, लेकिन मुझे लगता है कि समय के साथ शादियों में सिर्फ गाने ही नहीं बदले। पूरी सोच बदल गयी है। 

अब लड़कियाँ जुदाई के दर्द से नहीं गुजर रहीं, तो ये अच्छी बात है। वो अब लिप्स्टिक लगा कर अपनी खुशी को जीने का अर्थ समझ गयी हैं। 

पहले शादियों में बीच सड़क पर नागिन धुन पर लोटने को लड़के अपनी बपौती समझते थे, अब उसमें भारी बदलाव आ रहा है। अब लड़कियाँ डंके की चोट पर कहती हैं, “डीजे वाले बाबू मेरा गाना बजा दो…डीजे वाले बाबू मेरा गाना बजा दो…।”

ये लड़कियों का आत्मविश्वास ही है जो, डीजे वाला बाबू उनके कहने पर शादियों में गाना बजा रहा है। ये लड़कियों का आत्मविश्वास ही है जो लिप्स्टिक की धुन पर वो खुश हो कर थिरक रही हैं। 

बेटियों को हक है खुश होने का। खुश रहने का। 

***

बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले…।

(देश मंथन, 21 जनवरी 2016)

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