झुक जाना मूर्खता नहीं, जीतने के लिए तनना बेवकूफी

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक 

भोपाल में मेरे साथ एक लड़का पढ़ता था। नाम था आलोक। 

आलोक बहुत मिलनसार और विनम्र था। हम दोनों हमीदिया कॉलेज में साथ पढ़ते थे। आलोक की दिलचस्पी राजनीति में थी, मेरी पत्रकारिता में। दुबला-पतला आलोक जब किसी से मिलता तो हमेशा मुस्कुराता हुआ मिलता। कुछ लोग उसकी शिकायत भी करते, पर वो कभी किसी की बुराई नहीं करता। मैं कभी-कभी हैरान होता और उससे पूछता कि आलोक तुम्हें कभी कोई बात बुरी नहीं लगती? 

आलोक चेहरे पर सदा बहार मुस्कुराहट लिए हुए कहता, “यार, जिन्हें मुझसे नाराजगी है, उनका मैं क्या कर सकता हूँ? मैं कोशिश करता हूँ कि वो नाराज न रहें, पर मैं तो सिर्फ अपनी तरफ से कोशिश ही कर सकता हूँ। इसके आगे क्या?”

मैं कहता कि तुम उन लोगों से बातें मत किया करो। 

आलोक कहता कि मुझे उन लोगों से शिकायत नहीं है। मैं तो बात करूँगा ही। उन्हें शिकायत है, वो बात नहीं करना चाहें तो न करें।

हमारी बातचीत यूँ ही चलती रहती। 

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हम कभी-कभी उन लोगों पर मन ही मन हँसते भी थे, जो बेजवह मन ही मन किसी से नाराजगी पाले रहते हैं और समय-समय पर उसे जाहिर भी करते हैं। मैं कहता था कि संसार में इनसे मूर्ख कोई नहीं, जो बेवजह लोगों से दुश्मनी रखते हैं। 

आलोक कहता, “ज्यादातर दुश्मनी, शिकायतों की कोई वजह उनके पास भी नहीं होती जो ऐसा करते हैं।”

आलोक का कहना था कि आदमी को अंत तक कोशिश करनी चाहिए कि बेवजह किसी से बैर न हो। उसके मुताबिक आदमी स्वार्थ और चालाकी वश ही किसी से बैर मोल लेता है, लेकिन असल में वो मूर्ख होता है। समझदारी तो इसमें होती कि आदमी किसी से बैर मोल नहीं ले और सामने वाले से अच्छा व्यवहार रखे। इससे कुछ फायदा नहीं तो कोई नुकसान भी नहीं होगा। 

हमारी बातचीत चलती रही। हमारा प्यार बना रहा। 

फिर मैं दिल्ली चला आया। 

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मेरे मन में हमेशा ये बात रही कि जो लोग किसी अज्ञात अहँ की वजह से लोगों से दुश्मनी निभाते चलते हैं, वो दरअसल मूर्ख होते हैं। 

पर मैं मूर्ख नहीं था। मैंने कॉलेज में पढ़ाये गये एक ड्रामा ‘शी स्टूप्स टू कांकर’ के मर्म को बहुत शिद्दत से समझ लिया था। ओलिवर गोल्डस्मिथ के इस ड्रामा की नायिका जीतने के लिए झुक जाने को अपना आदर्श मानती थी। 

मैं समझ गया था कि जीतने के लिए झुक जाना मूर्खता या कायरता नहीं होती। बल्कि जीतने के लिए तन जाना बेवकूफी होती है। मैं समझ गया था कि चाहे मेरा स्वार्थ ही क्यों न हो, पर हर रिश्ता कुछ न कुछ देता है। कुछ न सही तो आँखों का स्नेह ही काफी है। हालाँकि दिल्ली आ कर मैंने देखा कि बहुत से लोग गुस्से और झूठे अहँ की वजह से न सिर्फ रिश्ते खोते हैं, बल्कि रिश्तों से मिलने वाले फायदे से भी वंचित रह जाते हैं। 

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आज मैं आप लोगों को एक राज की बात बताता हूँ। इस संसार में कोई भी आदमी किसी के बिना जी सकता है। इस संसार में किसी को यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि किसी के बिना किसी की जिन्दगी रुक जाएगी। 

यह मन का सबसे बड़ा भ्रम है। 

जब मैं अपनी माँ, अपने पिता, अपने भाई के मर जाने के बाद भी जी रहा हूँ, तो इसका मतलब यही हुआ कि आदमी किसी के बिना जी सकता है। मर जाने पर दुख इतना ही होता है कि जो मर गया अब कभी उससे नहीं मुलाकात होगी। 

मर जाना आदमी के वश में नहीं। मर जाने के बाद रिश्ता टूट जाना नियती होती है, लेकिन आदमी को कोशिश करनी चाहिए कि अपने झूठे अहँकार, अपनी झूठी जीत के लिए जीते जी किसी से रिश्ते को नहीं तोड़े। 

अगर आपको कोई बहुत नापसंद हो, तो सबसे आसान तरीका होता है उसे छोड़ कर आगे बढ़ जाना, लेकिन उसके विषय में बोला या लिखा गया एक-एक अनर्गल शब्द कभी न कभी बूमरैंग करके आपके ही पास आ गिरेगा। 

मत बोलिए वो सब, जिससे आपको सचमुच लाभ नहीं। 

कोई आपको बुरा लगता है, बिना कुछ कहे जुदा हो जाइए। रिश्तों में इतनी जगह हमेशा छोड़ देनी चाहिए कि अगर भूल से कभी आमना-सामना हो जाए, तो नजरें न चुरानी पड़ें। 

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ध्यान रखिए, रिश्ता कोई भी हो, टूट सकता है। रिश्तों में ईमानदारी बहुत बड़ी शर्त होती है, पर सबसे बड़ी नहीं। सबसे बड़ी शर्त होती है रिश्तों को समझने की।

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और हाँ, जिस आलोक की चर्चा मैंने ऊपर की है, उसका पूरा नाम आलोक संजर है। वही आलोक भोपाल से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर सांसद चुनाव लड़ा और अपने व्यवहार की बदौलत पहली बार ही रिकॉर्ड मतों से चुनाव जीत कर हमारा सांसद बन गया।

(देश मंथन, 02 मार्च 2016)

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